पं. सदल मिश्र का सम्पादन सुन्दरकाण्ड के सन्दर्भ में दिग्दर्शन

भवनाथ झा

महावीर मन्दिर की पत्रिका धर्मायण की अंक संख्या 88, अक्टूबर-मार्च, 2015 में प्रकाशित)

बहुत कम पाठकों को यह विदित है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस के प्रथम सम्पादक, हिन्दी के आदि गद्यकार, पं. सदल मिश्र थे। उनके द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ कलकत्ता से 1810 ई. में प्रकाशित हुआ था। यह एक हस्तलिखित प्रकाशन था, जिसमें लीथो प्रिंटिंग की तकनीक अपनायी गयी थी। बहुत कम संख्या में छपाई के कारण कम समय में ही यह अनुपलब्ध हो गया।

पं. श्यामसुन्दर दास ने नागरी प्रचारणी सभा, बनारस से रामचरितमानस का सम्पादन करते समय भूमिका में इस संस्करण का उल्लेख किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में इसका उल्लेख मात्र किया है। इतना ही नहीं, 1895 में अडविन ग्राउजे ने जब Notes on the grammar of the Ramayan of Tulsi Das लिखा तो अपने विवेचन के लिए आधार-ग्रन्थ के रूप में उन्हें बम्बई से मुद्रित कई संस्करण उपलब्ध हुए थे। इन संस्करणों के सम्बन्ध में Grawse का कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अपनी पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं कि बम्बई से मुद्रित अनेक सुन्दर संस्करण मुझे मिले, पर शुद्धता की दृष्टि से वे बहुत निम्न कोटि के हैं। उन्होंने मुंशी नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित प्रति का उपयोग किया तथा इसके अतिरिक्त निम्नलिखित तीन संकरणों से भी सहायता लेने की बात स्वीकार की है।

1. पं. राम जस द्वारा सम्पादित तथा बनारस से 1883 ई. में प्रकाशित प्रति।
2. बाबू विशेशर प्रसाद के प्रेस से 1887 में प्रकाशित तुलसीदास-ग्रन्थावली।
3. खड्गविलास प्रेस, बाँकीपुर, पटना से 1889 में प्रकाशित रामचरितमानस की प्रति।

इस प्रकार, Grawse को भी यह प्रति उपलब्ध नहीं हुई थी। फलतः हिन्दी साहित्य के लिए यह संस्करण गुमनाम हो गया। वर्तमान में Bibliotheca Regia Monacensis, जर्मनी में संकलित रामचरितमानस की इस प्रति का डिजिटाइजेशन हुआ ओर नेट के माध्यम से यह उपलब्ध हुआ है, तब इसकी विशेषताओं का अध्ययन सम्भव हो सका है। हमने इस प्रति का उपयोग कर सुन्दरकाण्ड सम्पादन में किया है। इस क्रम में हमने पाया कि गीता प्रेस की प्रति, एवं नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित प्रति की अपेक्षा इसका पाठ अधिक संगत है और तुलसी-साहित्य की मूल भावना के अधिक निकट है।

इस आलेख में सुन्दरकाण्ड के सन्दर्भ में गीता-प्रेस की प्रति, नागरी प्रचारिणी सभा की प्रति एवं आचार्य सीताराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित अखिल भारतीय विक्रम परिषद् की प्रति के साथ इस प्रति का पाठालोचन प्रस्तुत है।

पं. सदल मिश्र ने इस सम्पादन के लिए किस पाण्डुलिपि को आधार के रूप में व्यवहार किया है, उसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। वे इस ग्रन्थ के आरम्भ में अपनी उक्ति के रूप में केवल तिथि की चर्चा इस प्रकार करते हैं-

भूमिका भाग में सम्पादन की तिथि का संकेत

शाके नेत्राग्निशैलद्विजपतिमिलिते मासि मार्गे दशम्यां
पारावारर्तुनामक्षितिभिरुपयुते वैक्रमेब्दे सितायाम्।
वस्तीरामं प्रवीणं प्रबलमतियुतं दर्शयित्वाङ्कयच्छ्री-
बाबूरामो विपश्चिन्निखिलगुणमिदं पुस्तकं साधुप्रीत्यै।।
श्रीमत्सदलमिश्रेण ज्ञात्वा वाचः सुपर्वणाम्।
शुद्धीकृतमिदं सर्वं यथोचितमतन्द्रिणा।।

अर्थात् शाके 1732 एवं 1867 विक्रम संवत् में अगहन मास, शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को अत्यधिक बुद्धिमान् एवं कुशल वस्तीराम को दिखाकर विद्वान् बाबूराम ने सभी गुणों से भरे इस पुस्तक को सज्जनों की प्रसन्नता के लिए मुद्रित कराया। सावधान होकर श्रीमान् सदल मिश्र ने देवताओं की वाणी को जानकर आदि से अन्ततक इसे शुद्ध किया।

आरा के मिश्रटोला मुहल्ला में सन् 1767 में पं. सदल मिश्र का जन्म हुआ था। उन्होंने लगभग 25 वर्षों तक फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता में हिन्दी के प्राध्यापक तथा लेखक के रूप में अपनी सेवा दी। इसी अवधि में उन्होंने हिन्दी की खडी बोली के विकास में अपना योगदान किया। जाॅन गिल क्राइस्ट की अध्यक्षता में यह कार्य करने के क्रम में इन्होंने नासिकेतोपाख्यान, अध्यात्मरामायण का अनुवाद किया तथा रामचरितमानस का सम्पादन किया। हिंदी और फारसी की शब्दसूची तैयार करने पर भी इन्होंने पुरस्कार प्राप्त किया। इन प्रारंभिक गद्य लेखकों में मिश्र जी की भाषा खड़ी बोली के विशेष अनुरूप सिद्ध हुई, यद्यपि वह बिहारी भाषा से प्रभावित है। सदल मिश्र का प्रयास इसलिये विशेष अभिनंदनीय है कि उनमें खड़ी बोली के अनुरूप गद्य लिखने और भाषा को व्यवहारोपयोगी बनाने का प्रयास विशेष लक्षित होता है। पं. सदल मिश्र सीधे-सादे स्वभाव के कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। अंग्रेजों के निरंतर संपर्क में रहते हुए भी अपने खानपान और रहनसहन में आप कट्टर परंपरावादी थे। वे जीवन भर स्वयंपाकी रहे। किसी के हाथ का भोजन तो क्या, जल भी ग्रहण नहीं किया। फोर्ट विलियम कालेज की नियुक्ति के पूर्व वे प्रायः कथावाचन का कार्य करते थे। पटना में कथावाचन करते समय उनका कुछ अंग्रेज अधिकारियों से परिचय हुआ, जिनके प्रभाव से उनकी नियुक्ति फोर्ट विलियम कालेज में हुई। वे नंदमणि मिश्र के पुत्र तथा लक्ष्मण मिश्र के प्रपौत्र थे। बदल मिश्र और सीताराम मिश्र उनके दो भाई थे। अपने भाइयों के पुत्रों से ही आगे इनका वंश चला। वे निस्संतान थे। इनका देहावसान 1847-48 ई0 के लगभग 80 वर्ष की अवस्था में हुआ।

अब यहाँ कुछ पाठालोचन प्रस्तुत है।

यहाँ सन्दर्भ के लिए गीता प्रेस का पाठ लिया गया है। इसके बाद गीताप्रेस का पाठ आचार्य सीताराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित अखिल भारतीय विक्रम परिषद् का पाठ तथा नागरी प्रचारिणी सभा का पाठ दिया गया है। अन्त में सदल मिश्र का पाठ देकर पाठालोचना की गयी है।

1. सन्दर्भ – किष्किन्धाकाण्ड, दोहा संख्या 30 क ।

गीता प्रेस– सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- सिद्ध करहिँ त्रिसिरारि।।
नागरी प्रचारिणीसभा- सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।
सदल मिश्र का पाठ- सिद्ध करहिं त्रिपुरारि।।
यहाँ ‘त्रिसिरारि’ से राम का अर्थ अभीष्ट है, किन्तु ‘त्रिपुरारि’ से महादेव का अर्थ है। यहाँ दो दोहे हैं, जिनमें से प्रथम दोहा में महादेव के द्वारा रघुनाथ कीर्तन सुननेवालों को फल देने की बात कहने के बाद दूसरे दोहे में श्रीराम का पुनः वर्णन अधिक संगत प्रतीत होता है।

2. सन्दर्भ – सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 3 का छन्द।

गीता प्रेस- चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्– चउहट्ट, हट्ट, सुबट्ट, बीथी,
नागरी प्रचारिणीसभा- चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथी
सदल मिश्र का पाठ- चउहट्ट दहदिस सुभग बीथी
यहाँ सदल मिश्र के पाठ में चौराहे और उसकी दशो दिशाओं में सुन्दर गलियों का उल्लेख है। यहाँ पुनरुक्ति नहीं है अपितु सम्बद्ध चित्रण है, जिससे एक चित्र खिंच जाता है, किन्तु अन्य पाठों में चौहट्ट (चौराहा) के साथ साथ हट्ट (बाजार) फिर सुबट्ट (सुन्दर रास्ते) तथा बीथी (बाजार की गलियाँ) एक ही दृश्य को बार बार संकेतित करती है। साथ ही, यहाँ ललित वर्णन के क्रम में कठोर वर्णों का बार-बार प्रयोग रस की निष्पत्ति में बाधक है। इसके स्थान पर सदल मिश्र के पाठ में ‘दह दिस’ और ‘सुभग’ के प्रयोग से लालित्य का बोध होता है।

3. सन्दर्भ – सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 3 का छन्द।

गीता प्रेस- एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछुएक है कही ।।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहि सही ।।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- ऐहि लागि तुलसीदास इनकी कथा कछु-ऐक है कही ।।
रघुबीर सर तीरथ, सरीरनि, त्यागि गति पैहहिँ सही ।।
नागरी प्रचारिणीसभा- एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछुअेक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहि सही।।
सदल मिश्र का पाठ- एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा संछेपहि कही।।
रघुबीर शर तीरथ सरित तनु त्यागि गति पैहैं सही।।
यहाँ ‘कछुएक’ शब्द से अनिश्चितता का बोध होता है। किन्तु संक्षेप में कथा कहने की बात से कथा की विशालता ध्वनित होती है, जो श्रीराम के गौरव के अधिक अनुकूल है। दूसरी पंक्ति में रघुवीर का शर उपमान है और तीर्थ उपमेय है। तीर्थ अचलता का बोधक है जबकि शर गतिशीलता का, अतः दोनों में उपमानोपमेय भाव के परिपाक में वैपरीत्य गुण के कारण बाधा होती है। किन्तु पं. मिश्र के पाठ में तीर्थवाला सरित उपमेय है, जिससे गतिशीलता की ध्वनि निकलती है, अतः पं. मिश्र का पाठ श्रेष्ठ है।

4. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 10 अद्धार्ली संख्या 6।

गीता प्रेस- सीतल निसित बहसि बर धारा।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- सीतल, निसित, बहसि बर धारा।
नागरी प्रचारिणीसभा- सीतल निसि तव असि बर धारा।
सदल मिश्र का पाठ- सीतल निश तव असिवर धारा।
यहाँ गीता प्रेस के पाठ में ‘बहसि’ शब्द का प्रयोग संस्कृत के क्रियापद का प्रयोग है, जो धारण करने के अर्थ में मानकर तलवार में तेज धार धारण करने का अर्थ निकाला जाता है, लेकिन ‘वहसि’ क्रिया का प्रयोग संस्कृत में भी स्वगुणातिरिक्त वस्तु को वहन करने के अर्थ में होता है, जैसे ‘‘वहसि वपुषि वसनं जलदाभं’’ (गीतगोविन्द- जयदेव), ‘‘भारं वहति गर्दभी’’ आदि। किन्तु यहाँ धार तो तलवार का गुण ही है, तलवार तभी सार्थक है जब उसमें धार हो, अन्यथा वह तुच्छ लोहा है। इसे अलग से ढोने की आवश्यकता नहीं है, अतः ‘वहसि’ का प्रयोग अनुचित है। नागरी प्रचारिणी सभा का पाठ और पं. मिश्र का पाठ अर्थ की दृष्टि से समान है।

5. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 12 अद्धार्ली संख्या 6।

गीता प्रेस- निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- निसि न अनल मिल, सुनु सुकुमारी।
नागरी प्रचारिणीसभा- निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
सदल मिश्र का पाठ- निशि न अनल मिलु राजकुमारी।
यह सीता के प्रति त्रिजटा का कथन है। इसके पूर्व चैपाई में त्रिजटा के द्वारा श्रीराम के प्रताप-वर्णन का प्रसंग है। इस प्रसंग में सीता को सुकुमारी कहना एक सामान्य कथन है, इसमें ठगने का भाव प्रकट होता है, सीता की कोमलता का लाभ उठाकर छल करने का भाव प्रकट होता है, किन्तु ‘राजकुमारी’ शब्द के प्रयोग से यह भाव ध्वनित है कि मैं आपकी अनुचरी हूँ, मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य हूँ, आपकी आज्ञा अमोघ है, किन्तु विवश हूँ, क्योंकि रात को अग्नि नहीं मिलेगी। यहाँ त्रिजटा की सीता-भक्ति तथा सीता की गरिमा प्रकट होती है, जो तुलसीदास की भाव-कल्पना के अधिक निकट तथा मूलध्वनि के अनुकूल है।

6. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 35 अद्धार्ली संख्या 10।

गीता प्रेस- डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- डगमगाहिँ दिग्गज, चिक्करहिँ।
नागरी प्रचारिणीसभा- डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।
सदल मिश्र का पाठ- डगमग महि दिग्गज चिक्करहीं।
यहाँ प्रथम तीनों पाठों में ‘डगमगाहिं’ का कर्ता अस्पष्ट है। यदि दिग्गज को ही चिक्कार एवं डगमग करनेवाला कर्ता मान लिया जाये तो यह कविसमय (कवियों में प्रचलित मान्यताएँ) के अनुकूल नहीं है। दिग्गज का चीत्कार सर्वत्र वर्णित है। साथ ही, यहाँ चैपाई की अन्तिम पंक्ति का भाव लेकर तुलसीदास ने अग्रिम छन्द का आरम्भ किया है, जिसमें स्पष्ट है- ‘चिक्करहिं दिग्गज डोल महि।’ अतः ऊपर चैपाई में भी डगमग करने अर्थात् डोलने का कर्ता ‘मही’ होना चाहिए। अतः पं. मिश्र का पाठ अधिक स्पष्ट तथा उपयुक्त है।

7. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 35 छन्द की प्रथम पंक्ति।

गीता प्रेस- गिरि लोल सागर खरभरे।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- गिरि लोल, सागर खरभरे।
नागरी प्रचारिणीसभा- गिरि लोल सागर खरभरे।
सदल मिश्र का पाठ- गिरि कोल सागर खरभरे।
प्रथम दोनों पाठों में गिरि का लोल अर्थात् चंचल होना अभिप्रेत है, किन्तु ‘गिरि’ शब्द से अटलता का बोध होता है, इसकी चंचलता कविसमय के अनुकूल नहीं है, किन्तु पं. मिश्र के पाठ में गिरि में कोल होना अर्थात् दरार पड़ना अधिक स्वाभाविक वर्णन है। पृथ्वी के डोलने से पहाड़ में दरार पड़ना अधिक स्वाभाविक वर्णन है।

8. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 37 ।

गीता प्रेस- प्रिय बोलहिं भय आस।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- प्रिय बोलहिँ भय-आस।
नागरी प्रचारिणीसभा- प्रिय बोलहिं भय आस।
सदल मिश्र का पाठ– बोलहिं प्रिय प्रभु त्रास।
यहाँ प्रथम दो पाठों में अर्थ अस्पष्ट है। अतः गीता प्रेस के अनुवादक ने इसका अनुवाद किया है- ‘‘ये तीन यदि (अप्रसन्नताके) भय या (लाभकी) आशासे (हित की बात न कहकर) प्रिय बोलते हैं (ठकुरसुहाती कहने लगते हैं),….।’’ अर्थानुसंधान में इस द्रविड प्राणायाम का कारण है कि भय की आशा नहीं होती है, बल्कि आशंका होती है। किन्तु ‘प्रभु त्रास’ पाठ से सारे संदेह दूर हो जाते हैं।

9. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 39 अद्धार्ली 4।

गीता प्रेस- जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- जनरंजन, भंजन-खल-ब्राता। बेद-धरम-रच्छक, सुनु भ्राता।
नागरी प्रचारिणीसभा- जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।
सदल मिश्र का पाठ- जनरञ्जन गञ्जन खल भ्राता। वेद धर्म रक्षक सुरत्राता।
यहाँ प्रथम दो पाठों में ‘भंजन खल ब्राता’ अंश का अर्थ होगा कि खल और व्रात्यों का भंजन करनेवाले। यहाँ ‘खल का भंजन करना’ तो संगत भी है किन्तु ‘व्रात्यों का भंजन’ असंगत है, क्योंकि वैदिक धर्म में ‘व्रात्य’ शब्द से चार प्रकार के लोगों का बोध होता है आचारभ्रष्ट, नीच कर्म करनेवाले जातिबहिष्कृत, और जिनकी जननेंद्रियों की शक्ति नष्ट हो गयी हो। श्रीराम तो ऐसे दीन-हीनों का उद्धार करनेवाले हैं, इनका भंजन करनेवाले नहीं। अतः ‘गंजन खल ब्राता’ का व्यवहार गोस्वामीजी नहीं कर सकते हैं। पं. मिश्र के पाठ में अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि हे भ्राता रावण, श्रीराम सज्जन लोगों का रंजन करते हैं और खलों का गंजन करते हैं, वे वेद और धर्म के रक्षक हैं तथा देवताओं की भी रक्षा करनेवाले हैं।

10. सन्दर्भ- सुन्दरकाण्ड, दोहा संख्या 59 अद्धार्ली 8।

गीता प्रेस- ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- ढोल, गँवार, सूद्र, पसु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।
नागरी प्रचारिणीसभा- ढोल गवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।
सदल मिश्र का पाठ- ढोल गंवार क्षुद्र पशुमारी। ये सब ताडन के अधिकारी।।
यह तुलसी-साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद पंक्ति है, जिसके आधार पर तुलसीदास पर अनेक प्रकार के आरोप लगे हैं। किन्तु यहाँ स्पष्ट है कि ये आरोप अपपाठों के कारण हैं। पं. सदल मिश्रजी के में शूद्र और नारी शब्द हैं हीं नहीं। वस्तुतः तुलसीदास ने नीच व्यक्ति के अर्थ में छुद्र शब्द का प्रयोग किया होगा। पं. मिश्र ने इस मूल अर्थ को सुरक्षित रखते हुए इसे क्षुद्र मानकर पाठ दिया, किन्तु दूसरे लिपिकार ने इसे शूद्र मानकर सूद्र कर दिया। इसी प्रकार मूल पाठ ‘पसुमारी’ (पशुओं को मारनेवाला- हत्यारा) को पशु और नारी कर दिया गया। इन अपपाठों के कारण गोस्वामी तुलसीदास पर अनेक प्रकार के आक्षेप किये गये हैं, किन्तु अब सही पाठ सामने आने पर इन आक्षेपों का अन्त हो जाना चाहिए। यहाँ प्रमाण के लिए पं. मिश्र के पाठ का संगत अंश प्रस्तुत है।

11. सन्दर्भ- सुन्दर काण्ड, दोहा संख्या 60 के पहले का छन्द।

गीता प्रेस- तजि सकल आस भरोस गाबहि सुनहि संतत सठ मना।
अखिल भारतीय विक्रम परिषद्- तजि सकल आस भरोस गाबहि सुनहि संतत सठ मना।
नागरी प्रचारिणीसभा- तजि सकल आस-भरोस, गाबहि, सुनहि, संतत, सठ मना।
सदल मिश्र का पाठ- तजि सकल आश भरोस गाबहिं सुनहिं सज्जन शुचि मना।
यहाँ प्रथम दो पाठों में सामान्य अर्थ है कि गोस्वामीजी सभी आशा और भरोसा छोड़कर गाते हैं और शठ लोग हमेशा सुनते हैं। यह सामान्य अर्थ बिल्कुल असंगत है, क्योंकि ‘शठ’ (दुर्जन) लोग भला तुलसीदास की वाणी क्यों सुनेंगे। अतः गीताप्रेस के अनुवादक ने इसका अर्थ लगाने में भी द्रविड-प्राणायाम किया है- ‘‘अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा भरोसा त्यागकर निरन्तर इन्हें गा और सुन।’’ हलाँकि ‘सुनहि’ शब्द के प्रयोग के कारण ‘शठ’ को संबोधन नहीं माना जा सकता। पं. मिश्र के पाठ में ‘शठ’ के स्थान पर ‘शुचि’ शब्द है। वस्तुतः प्राचीन नागरी में च एवं ठ अक्षर समान रूप से लिखे जाते हैं। अतः यहाँ ‘शुचि’ के स्थान पर ‘सठ’ शब्द का भ्रम हुआ, फलतः ऐसा अपपाठ पाठकों के सामने आया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पं. सदल मिश्र का पाठ गोस्वामी तुलसीदास की उदार भावना के निकट है। हमें तुलसी साहित्य पर विचार करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि गोस्वामीजी संस्कृत के प्रकाण्ड अध्येता रहे हैं। अतः उन्होंने संस्कृत काव्य परम्परा के कविसमयों की अवहेलना न की होगी।

फिर भी, पं. मिश्र के सम्पादन में अवधी की प्रकृति के विपरीत संस्कृतनिष्ठता है। इसका कारण यह हो सकता है कि फोर्ट विलियम कालेज की समिति के द्वारा खड़ी बोली की शैली विकसित करने के क्रम में वे जनभाषा में वर्तनी की विविधता को मिटाकर मानकीकरण के क्रम में वर्तनी के स्तर पर संस्कृतीकरण का प्रयास किया हो, जिसके कारण अनेक संस्कृत शब्दों का प्रयोग उन्होंने तत्सम के रूप में किया हो।

अतः इस सम्पादन में यदि कोई कमजोर पक्ष है तो केवल वर्तनी के स्तर पर। अवधी में श, ण, क्ष, आदि का प्रयोग नहीं होता है, इसे ध्यान में रखकर यदि केवल वर्ण के स्तर पर हम अवधी की प्रकृति के अनुकूल इसे कर देते हैं, तो इसे रामचरितमानस का सबसे प्रामाणिक पाठ माना जा सकता है। हलाँकि पं. मिश्र ने अपने सम्पादन के क्रम में आधार पाण्डुलिपि का विवरण नहीं दिया है। उन्होंने 1808 ई. के आसपास इसका कलकत्ता में इसका सम्पादन था। अधिक सम्भावना है कि बंगला लिपि की कोई प्राचीन पाण्डुलिपि को उपयोग आधार के रूप में किया गया हो।

इतना होने के बादजूद पं. मिश्र के पाठ को एक आदर्श सम्पादन के रूप में माना जा सकता है।

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