जिउतिया व्रत कब है? 6 या 7 को?

जान-बूझकर मतभेद पैदा किया जा रहा है?

बनारसी परम्परा में भी पहले प्रदोषव्यापिनी जीवित्पुत्रिका का विधान है। केवल पिछले वर्ष उदयव्यापिनी लिखा गया। इस वर्ष बनासर के पंचांगों में दिनांक 6 अक्टूबर को ही जिउतिया का उल्लेख किया गया है।

पंचांगों में अष्टमी तिथि की स्थिति

हृषीकेश पंचांग के अनुसार इस वर्ष दिनांक 6 अक्टूबर को दिन में 9:25 बजे से अष्टमी तिथि प्रारम्भ होकर दिनांक 7 को 10:21 बजे तक है।

मैथिल पंचांग के अनुसार भी तिथि का आरम्भ दिनांक 6 अक्टूबर को 9:35 बजे है तथा समाप्ति दिनांक 7 को 10:32 बजे है।

इस प्रकार, गणना में ऐसा कोई अंतर नहीं है, जिसके कारण व्रत के दिन में अंतर हो जाये।

मिथिला में जीवित्पुत्रिका व्रत की पुरानी परम्परा

मैथिल पंचांगकारों के पास अपनी शास्त्रीय परम्परा है। यहाँ के प्राचीन निबन्धकार जीवित्पुत्रिका के सम्बन्ध में निर्देश दे गये हैं। म.म. शुभङ्कर ठाकुर (1600ई.) ने निर्देश दिया है कि-

“आश्विनकृष्णाष्टमी जीमूतवाहनव्रते प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या। उभयदिने प्रदोषव्याप्तौ परैव। उभयदिने प्रदोषाव्याप्तौ उदयगामिनी। नारीमामनशनम्, नवम्यां पारणेति सिद्धान्तः।।

यानी आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी जीमूतवाहन व्रत में प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिए। दोनों दिन यदि प्रदोष में अष्टमी हो तो अगले दिन करें। दोनों दिनों में से किसी दिन यदि अष्टमी न रहे, तो जिस दिन सूर्योदय काल में अष्टमी रहे उस दिन व्रत करें। इस अष्टमी में नारियों के लिए व्रत का विधान किया गया है, नवमी में पारणा करें, यह सिद्धान्त है।

इसके अनुसार दिनांक 6 अक्टूबर को प्रदोषकाल यानी सन्ध्याकाल अष्टमी होने के कारण उसी दिन व्रत होगा।

मिथिला की परम्परा में है, इस व्रत का विशिष्ट विधान

यह व्रत मिथिला के अतिरिक्त दक्षिण बिहार और उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रचलित है। मैथिल को छोड़कर अन्य श्रद्धालु इस व्रत के निर्णय के लिए बनारसी परम्परा को मानते रहे हैं।

बनारसी परम्परा के निबंधकारों में कमलाकर ने ‘निर्णयसिन्धु’ में इसका उल्लेख नहीं किया है। बनारसी परम्परा के विद्वान् कमलाकर कृत ‘निर्णयसिन्धु’ तथा काशीनाथ उपाध्याय कृत ‘धर्मसिन्धु’ को प्रमाण मानते रहे हैं। इऩ दोनों ग्रन्थों में आश्विन कृष्ण अष्टमी को महालक्ष्मी व्रत का उल्लेख तो है किन्तु जीमूतवाहन व्रत या जीवत्पुत्रिका व्रत का उल्लेख नहीं है।

पी.वी.काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में तेरह अध्यायों में व्रतों के विवेचन में भी इसे स्थान नहीं दिया है। तेरहवें अध्याय में बृहत् व्रतसूची में एक पंक्ति में इसका उल्लेख मैथिल निबन्धकार अमृतनाथ कृत ‘कृत्यसारसमुच्चय’ के आधार पर उन्होंने किया है।

मध्यकाल और वर्तमान काल के मैथिलों में रुद्रधर, पक्षधर, महेश ठक्कुर, परमानन्द ठक्कुर, शुभंकर ठक्कुर, अमृतनाथ और दामोदर मिश्र आदि ने इस व्रत पर पूरा विवेचन किया है।

1931-35 तक दरभंगा में गठित धर्मसभा में पं. दीनबन्धु झा ने इस विषय पर अपना बृहत् आलेख प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने सभी मैथिल तथा गौड़ निबन्धकारों के मतों का उल्लेख करते हुए गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है। पं. झा का यह विशिष्ट निबन्ध कुशेश्वर शर्मा द्वारा सम्पादित ‘पर्वनिर्णय’ ग्रन्थ में प्रकाशित है।

मिथिला परम्परा में है ओठगन की विशेष व्यवस्था

जीवित्पुत्रिका की परम्परा मिथिला में विशिष्ट है। यहाँ सप्तमी तिथि में रात्रि में स्त्रियों के लिए ओठगन की व्यवस्था है। लोक में इस ओठगन के सम्बन्ध में अनेक कहावतें प्रचलित हैं- “जितिया पावनि बड़ भारी। धियापुताकेँ ठोकि सुतौलनि अपने लेलनि भरि थारी।”

व्यावहारिक स्थिति

जीवित्पुत्रिका व्रत में अष्टमी तिथि जब तक रहती है तब तक पारणा नहीं होती है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण अष्टमी तिथि में भोजन का अत्यन्त निषेध है। जीमूतवाहन की कथा में भी संकेत है कि अष्टमी जबतक रहे तब तक भोजन नहीं करना चाहिए। इस वर्ष दिनांक 6 अक्टूबर को लगभग 9:30 बजे से अष्टमी है तो क्या 7 को व्रत मानने वाले इस समय से भोजन करना बंद कर देंगे? सामान्य नियम है कि कोई व्रत प्रातःकाल से ही आरम्भ होगा। तब तो दिनांक 6 अक्टूबर को प्रातःकाल से भोजन-निषेध आरम्भ हो जायेगा।

स्पष्ट है कि बनारसी पंचागकार ने भी इस वर्ष 2023ई. में अपनी पुरानी परम्परा का अनुसरण करते हुए इस वर्ष दिनांक 6 को ही व्रत करने का निर्देश दिया है। अतः पंचांगकार एक मत से दिनांक 6 को जिउतिया मानते हैं।

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