मिथिलाक चौहद्दी आ ओकर निर्धारणक आधार-सामग्री

(मिथिला गोवा दर्पण, 2022ई. प्रकाशक- मिथिला समाज, गोवा, संपादक दिलीप कुमार झा, स्मारिका मे पृ. 20-23 पर प्रकाशित।

मिथिलाक स्वतन्त्र अस्तित्व रहल अछि। राजनीतिक कारण सँ आइ हमरालोकनि बिहार नामक एकटा ‘कोलाजʼ संस्कृति आ भाषा वला राज्यक अन्तर्गत सम्मिलित कए देल गेल होइ, मुदा हमरालोकनि सभ केओ जनैत छी जे ई प्राचीन कालसँ विदेह जनपदक रूपमे स्वतन्त्र रहल अछि।

तकर बादो ईसाक सातम शतीमे हर्षवर्द्धनक मृत्यु भेलाक उपरान्त उत्तर भारतमे क्षेत्रवाद जनमल, क्षेत्रीय भाषा, लिपि आ संस्कृतिक विकास आरम्भ भेल; तँ ओहू स्तर पर ई अपन स्वतन्त्र अस्मिता बनौने रहल। भलें एकर राजनीतिक सीमा घटैत-बढ़ैत रहल हो; एकर क्षेत्रमे अवान्तर शासन-क्षेत्रसभ जनमैत-बिलाइत रहल हो; भाषा, लिपि, धर्मशास्त्रक परम्परा, कर्मकाण्डक परम्परा, आर्षग्रन्थक परम्परा आदि कोनो ने कोनो कारक प्रभावी रहैत एकर स्वतन्त्र अस्मिताकेँ सुदृढ़ करैत रहल अछि।

आइ जखनि हमरालोकनि फेरसँ मिथिलाक स्वतंत्र अस्मिताकेँ जगएबाक प्रयास कए रहल छी तँ पहिल विचारणीय तथ्य अछि जे एकर अस्मिताक कारक तत्त्व की थीक? कोन कोन एहन कारक तत्त्व अछि, जकरा आधार पर मिथिलाक सीमा निर्धारित कए सकैत छी?

आइ कहैत छी जे जतए धरि मैथिली भाषा बाजल जाइत अछि से मिथिला थीक, जतए धरि तिरहुता/मिथिलाक्षरमे लिखल ग्रन्थक पाण्डुलिपि भेटैत अछि ओ मिथिला थीक।

एतय विचार करी जे की मात्र भाषा आ लिपि एकर कारक थीक?

सोझ उत्तर अछि- नहि।

भाषा, लिपि, चौहद्दीक प्राचीन उल्लेख एहि तीनू कारकक संग आरो बहुत रास एहन तत्त्व सभ विवेचनीय अछि जे मिथिलाक अस्मिताक निर्धारक तत्त्व थीक, जेकर विवेचन एतए अपेक्षित अछि।

धर्मशास्त्रक परम्परा

सम्पूर्ण भारत मे पाँच टा धर्मशास्त्रीय परम्परा निर्धारित भेल अछि। एकरा यूरोपियन विद्वान् ‘स्कूल ऑफ लॉʼ कहने छथि। ई पाँच टा ‘स्कूल ऑफ लॉʼ भारतमे अछि- मिथिला, बंगाल, बनारस, महाराष्ट्र आ द्रविड़।

एतए स्पष्ट अछि जे मिथिला, बनारस आ बंगला स्कूल एकटा छोट क्षेत्रमे अपन-अपन परम्पराक स्वतंत्र अस्तित्व बनौने रहल अछि। सभक पृथक-पृथक् भौगोलिक सीमा छैक आ ओहि भौगोलिक सीमामे बसनिहार लोक अपन अपन धर्मशास्त्रीय परम्पराकेँ मानैत एकर पालन करबाक लेल बाध्य छथि।

ई ‘मिथिला स्कूल ऑफ लॉ’ जतय धरि प्रचलित अछि से मिथिलाक भौगोलिक सीमा थीक। ब्रिटिश शासन कालमे प्रिवी कौंसिलक अनेक एहन निर्णय आएल अछि जाहिमे एही ‘स्कूल ऑफʼक आधार पर मुंगेर आ भागलपुर निवासी लोकनिक लेल विशेष निर्णय देल गेल अछि।

राजकुमार सर्वाधिकारी अपन पुस्तक “द प्रिंसिपल्स ऑफ द हिन्दू लॉ ऑफ इन्हेरिटेन्स” मे लिखैत छथि जे ‘एहिमे सँ मिथिला स्कूल सभसँ पुरान प्रतीत होइत अछि। यद्यपि हम सभ कोनो मिथिलाक एहन प्राधिकारी विद्वान् दिस संकेत नहि कए सकैत छी जे निःसंदेह प्राचीन होथि आ हुनक काल विज्ञानेश्वरक कालसँ पूर्व सिद्ध कएल जा सकए। विज्ञानेश्वर अपन समयमे विद्यमान एकटा उत्तर आ दक्षिण परम्पराक उल्लेख करैत छथि। हमरा सभकेँ बुझाइत अछि जे उत्तरी भारतक परम्पराक प्रतिनिधित्व श्रीकर द्वारा कएल गेल, जे मिथिलाक परम्परा छल आ दक्षिणी परम्परा मेधातिथि आ हुनक अनुयायी द्वारा स्थापित द्रविड़ परम्परा छल-

Of these the Mithila School seems to be the oldest though we cannot point to any Mithila authority who is of undoubted antiquity and whose age can be proved to be anterior to that of Vijnanesvara Vijnanesvara speaks of a Northern and a Southern School existing in his time. It seems to us that the Northern School spoken of was the Mithila School represented by Srikara and the Southern School was the Dravira School founded by Medhatithi and his followers. (Rajkumar Sarvadhikari, (1882), The Principles of The Hindu Law of Inheritance, Calcutta,, पृ. 409)

व्यावहारिक रूपसँ स्वतंत्र भारतमे संविधान लागू भेलाक बाद यद्यपि ई ‘स्कूल ऑफ हिन्दू लॉ’ प्रचलनमे नहि रहल। मुदा एकर अन्तर्गत पर्व-निर्णय, धार्मिक-विधिक निर्णय आदि एखनो प्रासंगिक अछि, प्रचलनमे अछि आ समय-समय पर विवादक कारण बनैत अछि।

एही साल 2022ई. मे हमरालोकनि मकर संक्रान्तिक अवसर पर मतभेद देखल। ई मतभेद आर किछु नै छल- ‘बनारस स्कूल’ आ ‘मिथिला स्कूल’क बीच मतभिन्नता छल। मिथिलाक निबन्धकार कहलनि जे आधा रातिसँ पहिने संक्रमण होएत तँ पूर्वे दिन मध्याह्नक बाद पुण्यकाल मानी। बनारसक परम्परा अछि जे सन्ध्याकालक बाद संक्रमण हो तँ अगिला दिन पुण्यकाल मानी। दूनू परम्परा आदरणीय अछि। मैथिल अपन मानथु, बनारस वला अपन मानथु। विवाद किएक?

एक दिस कहैत छिऐक जे आइ धार्मिक स्वतन्त्रता भेटबा चाही आ दोसर दिस सम्पूर्ण भारतक लेल एक पर्व-निर्णय आग्रह किएक? की एहन आग्रह आ प्रस्ताव ‘इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टःʼ के स्थिति नै आनि देत? की एहिसँ भारतक सभटा पर्व दुष्प्रभावित नै भए जाएत?

मिथिलाक अस्मिताक रक्षा लेल ई हमरालोकनिक कर्तव्य थीक जे मिथिलाक प्राचीन निबन्धकारलोकनि- याज्ञवल्क्य, चण्डेश्वर, वर्धमान, हलायुध, रुद्रधर, श्रीकर, रामसिंह, श्रीदत्तोपाध्याय, वीरेश्वर, गणेश्वर, भवशर्मप्रतिहस्तक, रामदत्त, चण्डेश्वर ठाकुर, विद्यापति, वाचस्पति, आदि जे परम्परा बनाए गेल छथि, तकरा नहि छोड़ी। म.म. अमृतनाथक ग्रन्थ ‘कृत्यसारसमुच्चय’ मिथिलाक प्रामाणिक ग्रन्थ थीक। तकर बाद 1931-35 धरि दरभंगामे विद्वानलोकनि पं. बलदेव मिश्रक अध्यक्षतामे सभा कए ‘पर्वनिर्णय’ नामक जाहि आकर ग्रन्थक निर्माण कएलनि, तकर निर्णयक पालन करी।

टी.वी. पर जे कहैत अछि से अहाँक वस्तु नै थीक। ओ कि तँ महाराष्ट्री परम्परा थीक अथवा बनारसी परम्परा। अथवा ओ कोनो परम्परा नै थीक, एकटा ‘खिच्चड़िʼ मात्र थीक, जे व्यापारी समुदाय अपन फायदाक लेल प्रचारित करबामे लागल अछि। समाचार पत्र सेहो ओहीसँ प्रेरित भए छपैत अछि। तें आई हमरालोकनि मिथिलाक अस्मिताक रक्षा लेल अपन लोक द्वारा प्रकाशित पंचाग देखी।

आइ मिथिलामे सर्वत्र म.म. वाचस्पतिक द्वारा निर्धारित पोथीसँ श्राद्ध होइत अछि। बनारस आ महाराष्ट्रक परम्परामे दाह-संस्कारसँ पूर्व पिण्डदानक परम्परा अछि। घरमे, श्मशान जएबाक बाटमे, चौराहा पर शवयात्रा रोकि पिण्ड देल जाइत अछि, मुदा मिथिलाक परम्परामे ई नहि अछि। सीमान्त प्रदेशमे जा कए लोक व्यवहारमे देखल जाए, जे लोक की करैत छथि, सीमाक निर्धारण भए जाएत।

आर्ष-ग्रन्थक परम्परा

ऋषि द्वारा उक्त ग्रन्थ भेल- आर्ष-ग्रन्थ, जेना- पुराण, संहिता आदि। दुर्गासप्तशती एकर सर्वाधिक प्रचलित पोथी थीक। मिथिलामे घरे-घरे एकर पाठ होइत अछि। एकर स्वरूप मिथिलामे पृथक् अछि। मैथिल परम्पराक पचीसो टा दुर्गासप्तशती प्रकाशित अछि। म.म. परमेश्वर झा, पं. शशिनाथ झा, पं. जीवनाथ राय आदिक द्वारा अतीतमे प्रकाशित कएल गेल। चौखम्भा प्रकाशन वाराणसी सेहो पं. कनकलाल ठाकुरक  सम्पादनमे मिथिला-ग्रन्थमालाक अंतर्गत प्रकाशित कएने अछि, जे सर्वत्र सुलभ अछि। मिथिलाक परम्परामे सभसँ पहिने अर्गलाक पाठ अछि, तखनि कील आ तखनि कवच। अन्यदेशीय पाठमे पहिने कवच अछि, तखनि अर्गला आ अंतमे कील। गीताप्रेससँ प्रकाशित पोथी अन्यदेशीय पाठ थीक। संगहि, पाठान्तर तँ अनेक ठाम छैक। दूनू परम्परा आदरणीय छैक, शुद्ध छैक, मुदा अपन परम्परा हमरालोकनिक लेल अनुकरणीय थीक, से बूझए पड़त।

एहिना सत्यनारायण पूजा सभठाम प्रचलित अछि, मुदा मिथिलाक परम्परा आ ओकर पद्धति भिन्न अछि। एहिमे हवन नै होइत अछि, कथाक बीचमे विराम नै अछि, पाठान्तर सेहो कतहु-कतहु भेटैत अछि। सत्यनारायण पूजाक पद्धति मिथिलामे बहुत छपल छल। एखनहुँ तरौनी गामक पं. रामचन्द्र झाक पोथी चौखम्भा प्रकाशनसँ सर्वाधिक सुलभ अछि। मिथिलामे एकरे पालन होइत अछि। इहो मिथिलाक अस्मिताक एकटा तत्त्व थीक। हमरालोकनि एकर अनुपालन करैत रही। कतहु रही, एकरा धेने रहब तँ मैथिल कहबैत रहब, अपन अस्मिता बनल रहत।

‘वाल्मीकि-रामायण’क मैथिल पाठ

मैथिली साहित्यमे सीता-विमर्शक बहानासँ नारी-विमर्श जोर पकड़ने अछि। सीता पर विमर्श होइत तँ अछि, मुदा एकर आधार की? ‘अद्भुत-रामायण’क कथा एहन विमर्शक आधार बनि बहुत रास मतभेद उत्पन्न कएने अछि। ‘वाल्मीकि-रामायण’क प्रसंग अबैत अछि, तँ हमरालोकनि सोझे पश्चिमी-दक्षिणी पाठ लए अनैत छी। कारण, गीता प्रेस आ अन्य प्रकाशनक द्वारा प्रचलित पाठ ओएह थीक। यूरोपीयन विद्वानसभ 19म शतीमे एकरे उद्धृत कए सभटा विमर्श कएलनि, तें मानि लेने छी जे वाल्मीकि रामायण एके टा अछि, जे गीता प्रेससँ प्रकाशित अछि।

विद्यापतिक सीता पर विमर्श तँ करैत छी, मुदा ई कहियो नै सोचल जे विद्यापति जे वाल्मीकि-रामायण पढ़ने रहथि, से पाठ कतए अछि। सिद्धान्ततः वाल्मीकि रामायणक चारि टा पाठ अछि- पूर्वोत्तर भारत, पश्चिमोत्तर भारत, पश्चिम भारत आ दक्षिण भारत। एहिमे पूर्वोत्तर भारतक पाठ उड़ीसा, बंगाल, आसाम, मिथिला आ नेपालक अपन पाठ थीक। एकर सभसँ पुरान पाण्डुलिपि 1020ई.क लिखल काठमाण्डूमे सुरक्षित अछि, जे मिथिलामे लिखल गेल छल। दरभंगाक राज पुस्तकालयमे सेहो 14म शतीक एकटा वाल्मीकि-रामायणक हस्तलेख अछि। एही पाठक बालकाण्ड आ अयोध्याकाण्डक प्रकाशन कलकत्तासँ 1806ई.मे विलियम कैरीक सम्पादनमे सेहो भेल आ सम्पूर्ण वाल्मीकि-रामायणक सम्पादन कए गैस्पेयर गोरैशियो पेरिससँ प्रकाशित करौलनि। एही पाठ पर लोकनाथ (1500-1520ई.) कृत संस्कृत टीका सेहो उपलब्ध अछि। वर्तमानमे कोलकातासँ लोकनाथक टीकाक संग सम्पूर्ण वाल्मीकि-रामायण बंगला लिपिमे विश्ववाणी प्रकाशन 79/1 महात्मा गाँधी रोड, कलकत्ता 9 सँ 2015ई. मे प्रकाशित भेल अछि।

ई मिथिलाक पाठक प्रतिनिधित्व करैत अछि। एहि पाठमे प्रत्येक काण्डक सर्ग संख्या आ श्लोक संख्या निर्धारित अछि जकरा जोड़लापर कुल 24000 श्लोक होइत अछि। तेँ हमरालोकनिकेँ ई मानबाक चाही जे वाल्मीकि-रामायणक जे पाठ गीता प्रेस सँ प्रकाशित अछि ओहिमे बहुत रास सर्ग आ श्लोक मध्यकालमे जोड़ल गेल छैक आ तेँ ओ प्राचीन आ प्रामाणिक नहि अछि।

सीता-विमर्शक क्रममे हमरालोकनिकेँ ई बुझबाक चाही जे अयोध्यामे पसरल लोकापवाद वला पूरा सर्ग एहि पाठमे नहि अछि। सीताक जन्मक कथा जे एकर अयोध्याकाण्डक सीता-अनसूया संवादमे आएल अछि। ओहिठाम जनक अपन रानीक संग यज्ञवेदीक भूमि-शोधन करबाक लेल जाइत छथि। ओतए मेनकाकेँ देखि हुनका लोभ होइत छनि जे हमरहु एहने सुन्दरी बेटी होइत! ओही काल आकाशवाणी होइत अछि जे अहाँक मनोरथ पूर्ण हो। जनक धूलि-धूसरित कन्याकेँ वेदी पर देखैत छथि आ उठाए स्वीकार कए लैत छथि। ई कथा आर कतहु नहि अछि।

माँटिक कोहासँ जनमैत सीताक कथा हमरालोकनिक नै थीक। हमरालोकनिक पूर्वज जे प्रेसक तकनीकक आरम्भसँ पहिने भेलाह ओ अन्यदेशीय पाठसँ परिचित रहबे नै करथि, तँ विमर्श केना करताह। हमरालोकनिक सीता दिव्य छथि, यज्ञवेदीसँ उत्पन्न छथि, तखनि विचार करू जे आन कोनो कथा स्वीकार्य केना होएत।

कहबाक तात्पर्य ई जे जखनि हमरालोकनि जखन एहन कोनो विमर्श करए लगैत छी, तखनि आर्षग्रन्थ आ अन्य ग्रन्थक मिथिलाक स्थानीय पाठ-भेद देखए पड़त। एकटा बात आर कहए चाहब जे गीताप्रेस जे किछु प्रकाशित कएने अछि ओ मुख्यतः महाराष्ट्रक स्थानीय पाठ थीक। दरभंगासँ ‘कालिका-पुराण’ सम्पादित भए प्रकाशित भेल अछि। आन ग्रन्थसभक सम्पादन कोलकातासँ बंगला लिपिमे भेल अछि। विद्वानलोकनिकेँ चाही जे जा धरि मिथिलाक स्वतंत्र प्रकाशन नहि होइत अछि ता धरि विमर्शक लेल बंगला पाठक उपयोग करथि, कारण जे ओहो पाठ अपने क्षेत्रक थीक। सांस्कृतिक दृष्टिसँ मिथिला, बंगाल, आसाम, उड़ीसा आ नेपाल एक अछि। मुदा एकर सटले पश्चिम सांस्कृतिक भिन्नता भेटैत अछि।

कर्मकाण्डक स्वतंत्र स्वरूप

मिथिलाक कर्मकाण्ड स्वतंत्र अछि। एतए वैदिक आ आगमक कर्मकाण्डक परम्परामे मिज्झर करबाक प्रवृत्ति कहियो नै भेल। दूनू पृथक् रहल। वैदिक परम्पराक कर्मकाण्ड हवन थीक आ जाहि कोनो कर्मकाण्डमे अक्षत, चानन, फूल, जल, नैवेद्य आदिक व्यवहार होइत अछि से आगमक परम्परा थीक।

आगम परम्परा सार्वजनीन अछि। एहिमे मात्र पौराणिक मन्त्रक व्यवहार होइत अछि आ समाजक सभ व्यक्ति, सभ जातिक लोक एकर अधिकारी छथि।

मध्यकालमे बनारस, महाराष्ट्र आदिक पुरोहितलोकनि एहि आगमक परम्परामे वैदिक मन्त्र घुसाए एकर अधिकार-क्षेत्रकेँ संकुचित कए केवल ब्राह्मण धरि सीमित कए देलनि। वर्तमानमे अन्यदेशीय पद्धतिमे एहन वैदिक मन्त्र भेटि जाएत।

एही प्रवृत्तिक कारणें आगमक कर्मकाण्डमे हवन जुड़ि गेल आ वैदिक कर्मकाण्डक नाम पर एकरा पुरोहित वर्ग स्वत्वाधिकारमे लए लेलनि।

मिथिलाक विद्वान् एकरा नै मानलनि तेँ आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य आदिक लेल मन्त्र पौरणिक अछि। हवन नै होइत अछि, बीजमन्त्रक प्रधानता अछि, जतए जाति-भेद नहि छैक। प्रत्येक दीक्षित एकर व्यवहार कए सकैत छथि।

कर्मकाण्डमे नारीक अधिकार मिथिले टा मे सुरक्षित रहल। एतए माता दीक्षागुरु होइत छथि। सासु अपन पुतोहुकेँ दीक्षा दैत छथिन्ह। नारीक गरिमा एतए संरक्षित अछि। केवल मिथिले टामे नै समस्त पूर्वोत्तर भारतमे ई विधान अछि। एहन स्थितिमे विचार करी जे बनारसक परम्पराकेँ वैदिक परम्पराक नाम पर अपनाएब कतेक उचित?

भारतीयताक अवधारणा का क्षेत्रवाद

एही संग एकटा संदेह होइत अछि जे की एहिसँ भारतीयताक अवधारणा खण्डित होएत? ई एकटा महत्त्वपूर्ण प्रश्न अछि। एकर उत्तर पएबाक लेल हमरालोकनि विचार करी जे बाधमे खेतक आरि देलासँ की लाभ आ की हानि? की शहरक कालोनीमे अपन आलयकेँ घेरैत छहरदेवाली देनाइ गलत सोच अछि? की एहिसँ कॉलोनीक एकता भंग होइत अछि? की कोनो गाछक जड़िमे थाला बनाएब ओहि फुलवारीक अस्तित्वकेँ खण्डित करैत अछि? विमर्श होएबाक चाही।

मानि लियऽ राष्ट्रवादक नाम पर हमरालोकनि “विवाहमे जूता चोरएबाक” विधि करए लागी आ ‘परिछनिʼ छोड़ि दी, ‘ठक-बक-चान डालाʼ बिसरि जाइ तँ एकरा की कहबै? की पश्चिमोत्तर भारतक एक स्थानीय परम्परा राष्ट्रवाद थीक? की ‘भाँगड़ाʼ राष्ट्रवाद थीक आ ‘जटा-जटिनʼ क्षेत्रवाद भेल? विमर्श होएबाक चाही।

एहिप्रकारें भाषा, लिपि, धर्मशास्त्रक परम्परा, कर्मकाण्डक परम्परा आर्ष ओ अनार्ष ग्रन्थक परम्परा सभ किछु मिथिलाक भूगोलक निर्णायक तत्त्व अछि। जतेक दृढ़तासँ आइ हमरालोकनि भाषा आ लिपि पर विमर्श करैत छी ओतबे दृढताक पालन एहू तथ्य सभ पर करए पड़त तखनहिँ मिथिलाक स्वतंत्र अस्मिता बाँचत। आइ ‘ग्लोबलाइजेशनʼक बाढ़ि जँ पाँक आनि सभटाकेँ भथन कए देत तँ किछु नै रहत तेँ ऊँच कए आरि बाँधए पड़त।

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