मिथिलामे प्रतिदिनक स्तोत्रपाठ- गोसाञिक नाओ

मिथिलाक संस्कृतिमे, प्रतिदिन, विशेष रूपसँ कार्तिक मासमे, सभठाम, विशेष रूपसँ सिमरियामे, कल्पवासक अवधिमे गोसाञिक नामक पाठ करबाक आ सुनबाक परम्परा रहलैक अछि। एहि गोसाञिक नामक अन्तर्गत तीन टा स्तोत्रक पाठ होइत छल-

  • सूर्यस्तवराज- ई मूलतः साम्ब पुराणसँ उद्धृत अछि। ओतए रोगसँ निवृत्तिक लेल कृष्णक पुत्र साम्ब कें भगवान् सूर्य स्वयं स्वप्नमे दर्शन दए अपन 12 नामक उपदेश केलनि, ओकर संकलन आ पाठ करबाक फल देल गेल अछि।
  • गङ्गास्तोत्र- ई वराहपुराणसँ उद्धृत मानल गेल अछि, किन्तु वर्तमान उपलब्ध वराहपुराणमे उपलब्ध नहि अछि। मिथिलाक श्रुति परम्परामे आइयो धरि एकर पाठ प्रतिदिन कएल जाइत अछि।
  • महादेवस्तव- एकर मूल हमरा ज्ञात नहि, किन्तु मिथिलाक श्रुति-परम्परामे महादेव पूजा काल आइयो धरि एकर पाठ कएल जाइत अछि। शब्दकल्पद्रुममे ई स्तोत्र महादेव शब्दक विवेचनमे उद्धृत कएल गेल अछि, जतए ओकरा स्कन्दपुराणसँ उद्धृत मानल गेल छैक।

मिथिलामे घरे-घरे एकर पाठ होइत छल। हमरा मोन अछि जे अपन गामक पोखरिमे जहिया बच्चामे नहएबाक लेल पिताक संग जाइत रही तँ गामक कतेको लोक नहा कए प्रतिदिन एहि तीनू स्तोत्रक पाठ खूब जोर-जोरसँ करैत रहथि। हुनकालोकनिक मुँहसँ सुनल ई तीनू स्तोत्र आइयो धरि हमरा कंठस्थ अछि।

अपन परम्पराकें जीवित रखबाक लेल लहेरियासरायक विद्यापति प्रेस सँ एकर प्रकाशन “गोसाउँनिक नाओं” नामसँ तिरहुतामे भेल छल।

अथ सूर्य्यस्तवराजः

ॐ नमः श्री सूर्य्याय

वसिष्ठ उवाच

स्तुवंस्तत्र ततः साम्बः कृशो धमनि सन्ततः।
राजन्नामसहस्रेण सहस्रांशुन्दिवाकरम्।।1।।
खिद्यमानं तु तं दृष्ट्वा सूर्यः कृष्णात्मजं तदा।
स्वप्नेन दर्शनं दत्वा पुनर्वचनमब्रवीत्।।2।।

सूर्य उवाच

साम्ब साम्ब महाबाहो शृणु जाम्ववतीसुत।
अलन्नाम सहस्रेण पठस्वेमं स्तवं शुभम्।।3।।
यानि नामानि गुह्यानि पवित्राणि शुभानि च।
तानि ते कीर्त्तयिष्यामि श्रुत्वा वत्सावधारय।।4।।
विकर्त्तनो विवस्वाँश्च मार्त्तण्डो भास्करो रविः।
लोकप्रकाशकः श्रीमाँल्लोकचक्षुर्ग्रहेश्वरः।।5।।
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्त्ता हर्त्ता तमिस्रहा।
तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः।।6।।
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः।
एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः मदा मम।।7।।
शरीरारोग्यदश्चैव धनवृद्धियशस्करः।
स्तवराज इति ख्यातस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।।8।।
य एतेन महाबाहो द्वे सन्ध्येऽस्तमनोदये।
स्तौति मां प्रणतो भूत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।।9।।
कायिकं वाचिकं चैव मानसं यच्च दुष्कृतम्।
तत् सर्वमेकजप्येन प्रणश्यति ममाग्रतः।।10।।
एष जप्यश्च होमश्च सन्ध्योपासनमेव च।
बलिमन्त्रोऽर्घमन्त्रश्च धूपमन्त्रस्तथैव च।।11।।
अन्नप्रदाने स्नाने च प्रणिपाते प्रदक्षिणे।
पूजितोऽयं महामन्त्रः सर्वव्याधिहरः शुभः।।12।।
एवमुक्त्वा तु भगवान् भास्करो जगदीश्वरः।
आमन्त्र्य कृष्णतनयं तत्रैवान्तरधीयत।।13।।
साम्बोऽपि स्तवराजेन स्तुत्वा सप्ताश्ववाहनम्।
पूतात्मा नीरुजः श्रीमाँस्तस्माद्रोगाद्विमुक्तवान्।।14।।

इत्यार्षे श्रीसाम्बपुराणे रोगापनयने भगवतः श्रीसूर्यस्य स्तवराजः।।

अंधराठाढीक सूर्यप्रतिमा
अंधराठाढीक सूर्य प्रतिमा

अथ गङ्गास्तवः

वराह उवाच
धर्मस्तु द्रवरूपेण ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।
तद्वै गङ्गेति विख्याता शृणु स्तोत्रं वसुन्धरे।।1।।
किं तैर्नामसहस्रैस्तु मुख्यामुख्यैः सुविस्तरैः।
यानि नामानि मुख्यानि तानि वक्ष्याम्यनुक्रमात्।।2।।
गङ्गा भागीरथी पुण्या जाह्नवी सुरनिम्नगा।
विष्णोः पादार्घसम्भूता शम्भोः सिरसि संस्थिता।।3।।
सुमेरुशृङ्गसंस्पृष्टा हिमाचलकृताश्रया।
शङ्खकुन्देन्दुधवला महापातकनाशिनी।।4।।
नदीश्वरी त्रिपथगा वैष्णवी सागरप्रिया।
धर्मद्रवी भोगवती विन्ध्यपाषाणदारिणी।।5।।
क्षमा शान्तिप्रदा शान्ता पुण्यदा पूतिका शिवा।
महानदी शतमुखी शुक्ला मकरवाहिनी।।6।।
ब्रह्महस्तात् परिभ्रष्टा सौम्यरूपातिशोभना।
मुनिभिः पूजिता सर्वैः सर्वदेवनमस्कृता।।7।।
महायक्षमयी देवी मर्त्यानामुपकारिणी।
सर्वत्र दुर्लभा गङ्गा त्रिषु स्थाने विशेषतः।।8।।
गङ्गाद्वारे प्रयागे च गङ्गासागरसंगमे।
इदं स्तोत्रं मयाऽऽख्यातं पूर्वमुक्तं स्वयंभुवा।।9।।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय तस्य नश्यति दुर्गतिः।
यत् पापं यौवने बाल्ये कौमारे वार्द्धके कृतम्।।
तत्सर्वं विलयं यान्ति तोयस्थं लवणं यथा।।10।।
प्रीतिं मतिं तथा लक्ष्मीमायुरारोग्यसन्ततिम्।
ददाति जाह्नवी तुष्टा सर्वभावेन माधवी।।11।।
इति वाराहपुराणे धरणीवराहसंवादे गङ्गादेव्याः स्तोत्रम्।।
Ganga Mata
हर हर गंगे

श्री महादेवस्तवः

ॐ नमः शिवाय
प्रथमस्तु महादेवो द्वितीयस्तु महेश्वरः।
तृतीयः शङ्करो ज्ञेयश्चतुर्थो वृषभध्वजः।।1।।
पञ्चमः कृत्तिवासाश्च  षष्ठः कामाङ्गनाशनः।
सप्तमो देवदेवेशः श्रीकण्ठश्चाष्टमः स्मृतः।।2।।
नवम ईश्वरो देवो दशमः पार्वतीपतिः।
रुद्र एकादशश्चैव द्वादशः शिव उच्यते।।3।।
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं चः पठेन्नरः।
कृतघ्नश्चैव गोघ्नश्च ब्रह्महा गुरुतल्पगः।।4।।
स्त्रीबालघातकश्चैव सुरापो वृषलीपतिः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो रुद्रलोकं स गच्छति।।5।।
इति श्रीमहादेवस्तवः समाप्तः।।

टिप्पणीः एतय चारिम श्लोकक तेसर चरणमे प्रकाशित प्रतिमे “कृतघ्नो गोघ्नश्चैव” पाठ अछि, जाहिमे अनुष्टुप् छन्दक एक अक्षर कम छैक। मुदा हमरा श्रुति-परम्परासँ कृतघ्नश्चैव गोघ्नश्च पाठ अभ्यास अछि, जाहिमे छन्दोभङ्ग सेहो नहि छैक आ अर्थमे कोनो अन्तर नहिं। तें हम एतय उपर्युक्त पाठ लेल अछि।

हाजीपुरक गौरीशङ्कर

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