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Home›लोक-वेद›तन्त्र की कूटभाषा- भ्रम एवं आवश्यकता

तन्त्र की कूटभाषा- भ्रम एवं आवश्यकता

By Bhavanath Jha
December 6, 2019
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तन्त्रों की कूट-भाषा उसका कवच है। भारत में शास्त्र के संरक्षण का पहला सिद्धान्त रहा है कि वह केवल अधिकारी व्यक्ति को ही दिया जाये। वैदिक काल में ही यह अवधारणा रही कि अनधिकारी व्यक्ति विद्या का दुरुपयोग करेंगे अथवा आधे-अधूरे ज्ञान के कारण उसे हानि पहुँचावेंगे। अतः स्पष्ट शब्दों में कहा गया-

विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम - गोपाय मा शेवधिष्ठेऽ हमस्सि ।
असूयकायानृजवे शठाय मा मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ॥

वर्तमान में भारतीय विद्याओं पर गोपनीयता का आरोप लगाकर उसे नष्ट करने और अन्य लोगों को वंचित करने का आरोप लगाया जाता रहा है। यह गोपनीयता भारत के सभी शास्त्रों में है। यहाँ तक कि निरुक्त, जो कि शब्द निर्वचन विज्ञान है, उसके लिए भी यास्क ने कहा है –

नावैयाकरणाय नानुपसन्नाय अनिदंविदे वा । नित्यं ह्यविज्ञातुर्विज्ञानेऽसूया । उपसन्नाय तु निर्ब्रूयाद्यो वा अलं विज्ञातुं स्यान्मेधाविने तपस्विने वा ॥ २.३ ॥

 अर्थात जिसने व्याकरण शास्त्र का अध्ययन न किया हो, जो सीखने के लिए नहीं आया हो, अथवा जो इसे न जोनता हो, उसे निरुक्त का उपदेश न करें। 

शास्त्र पढने का अधिकार

वस्तुतः गोपनीयता शास्त्र की रक्षा के लिए एक कवच के समान है। जो जिस शास्त्र के लिए अधिकारी हैं वे ही उस शास्त्र का अध्ययन करें, अन्यथा वह शास्त्र नष्ट हो जायेगा। वे सर्वांगीण ज्ञान के अभाव में मनमाने ढंग से  व्याख्या करेंगे, जिससे दुष्प्रचार होगा। इसलिए तन्त्र की भाषा कूटात्मक है। यदि हम कहीं से एक-आध पंक्ति सुन लेते है, तो उस पंक्ति की पृष्ठभूमि के अभाव में हम गलत व्याख्या कर लेते हैं। इसलिए अधिकारी को ही उपदेश करना चाहिए, यह भारत का सार्वजनीन सिद्धान्त है। आज भी हम विशिष्ट परीक्षा के द्वारा ही चिकित्सा-विज्ञान, अभियंत्रण आदि के क्षेत्र में उचित व्यक्ति को शिक्षा दे रहे हैं।

अनधिकारी व्यक्ति ने किस प्रकार तन्त्र के सिद्धान्त को भ्रष्ट किया है इसका एक रोचक उदाहरण यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। तन्त्र में एक श्लोक बहुधा प्रचलित है-

पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा पतितत्वा च महीतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा वचनं सत्य-सम्मतम्।

इसका सामान्य अर्थ है- बार बार पीकर, फिर पीकर, गिरकर भी फिर से उठकर पीना चाहिए। सामान्य जन इसका अर्थ मदिरा-पान के सन्दर्भ में लेते हैं। यहाँ तक कि एक यूरोपियन अधिकारी ने नेपाल के क्षेत्र में अफीम और गाँजा के व्यापार को बढावा देने के लिए इस पंक्ति का उपयोग कर इसे वहाँ की संस्कृति बताने का भी काम किया है।

लेकिन, कालीविलासतन्त्र के षष्ठ पटल के अंतिम की इस पंक्ति की पृष्ठभूमि देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इस पंक्ति के ठीक ऊपर कहा गया है कि मद्यं न रचयेद् भद्रे कलिकाले वरानने। जब इसके ठीक ऊपर मद्यपान का निषेध है तो फिर कैसे इस पंक्ति को नशा का प्रतिपादक माना जायेगा। वस्तुतः वहाँ खेचरी मुद्रा का वर्णन है और कहा गया है कि जिह्वा के अग्रभाग को कण्ठविवर में डाल देने पर ब्रह्मरन्ध्र से एक रस टपकता हुआ प्रतीत होता है। वह रस अमृत है, उसे बार बार पीना चाहिए। गिरने के बाद भी पीना चाहिए। स्पष्ट है कि यहाँ मदिरा नहीं, ब्रह्मरन्ध्र से निःसृत अमृत को पीने की बात कही गयी है और यहाँ खेचरी मुद्रा का विधान किया गया है।

कौलोपनिषद् भी सिद्धान्तों की गोपनीयता पर बल देती है। इसका स्पष्ट आदेश है कि अपने मत की स्थापना भी न करें। यदि कोई कौल मत का विरोध करता है तो वहाँ से उठ जायें किन्तु उनकी बातों का प्रतिवाद कदापि न करें। इससे सिद्धान्तों की गोपनीयता समाप्त हो जायेगी।

शास्त्र की गोपनीयता

शास्त्र की गोपनीयता के लिए तन्त्र में दो प्रकार की कूट भाषा का प्रयोग हुआ है। एक तो बीज-मन्त्रों की गोपनीयता के लिए प्रत्येक वर्ष को प्रकट करनेवाले सार्थक शब्दों की सूची दी गयी है। इसके आधार पर एकाक्षरी कोष, मातृका-कोष, तन्त्र-कोष आदि का निर्माण किया गया है जिसमें अ से क्ष तक प्रत्येक अक्षर के द्योतन के लिए अनेक शब्द रखे गये हैं। इस कोष का ज्ञान होने पर ही कोई व्यक्ति बीज-मन्त्रोद्धार कर सकेगें। इससे मन्त्रों की रक्षा होगी। इसका एक उदाहरण देना यहाँ पर्याप्त होगा। प्रसिद्ध तन्त्राचार्य अभिनवगुप्त के गुरु आचार्य पृथ्वीधर कृत चण्डीस्तोत्र में कहा गया है-

यद् वारुणात्परमिदं जगदम्ब यत्ते बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम्।
मायाङ्कितं तिलकितं तरुणेन्दुबिन्दुनादैरमन्दमिह राज्यमसौ भुनक्ति।।

यहाँ शक्ति बीज ह्रीँ का प्रतिपादन किया गया है। अरुण अर्थात् ह वर्ण के बाद दहन अर्थात् र, इसके बाद माया अर्थात् ई, और उसके बाद तिलक एवं अर्द्धचन्द्र इनसे युक्त जो बीज है उसके स्मरण करने से विशिष्ट साम्राज्य को पाने की बाद कही गयी है।

दूसरे प्रकार से गोपन के लिए, सिद्धान्तों को सुरक्षित रखने के लिए हास्यास्पद कथनों के द्वारा, सामाजिक शिष्टाचार के विपरीत कथनों के द्वारा भी सिद्धान्तों का गोपन किया गया है। यह भी तन्त्रों की एक कूट भाषा है। लोग तान्त्रिकों को भ्रष्ट समझें, उनकी हँसी उडावें लेकिन उनकी वास्तविकता को अनधिकारी व्यक्ति न जान सकें इसके लिए ये सारे प्रयास किये गये हैं। यही कारण है कि तन्त्र के विरुद्ध लोगों के मन में अवधारणा फैली।

तन्त्र की परम्परा में हम तीसरी प्रकार की भाषा पाते हैं, जो जनसामान्य की दृष्टि में बहुत ही लुभावने हैं। लेकिन उनकी वास्तविकता अलग है। इसी सन्दर्भ में हम पंचमकार के लौकिक रूपों को देखते हैं। मदिरा, मत्स्य, मांस, मैथुन, योनि, लिंग आदि ये शब्द हैं, जो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति को उभारते हैं, ये लुभावने हैं, लेकिन शास्त्र की दृष्टि से वास्तविक नहीं हैं।

तन्त्र में उत्कृष्ट कोटि का इन्द्रिय-निग्रह है। तान्त्रिकों का पहला लक्षण कहा गया है- यम का पालन होना चाहिए। यम रहित साधक कभी सिद्धि नहीं पा सकता है।  अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह ये पाँच तो मूल कर्तव्य हैं, जिनके विना साधना हो ही नहीं सकती। तब कैसे रण्डा चण्डा भिक्खिया, धम्मदारा की बात राजशेखर ने कर्पूरमंजरी में की? इन सबका एक ही उत्तर है- शास्त्र की रक्षा के लिए। ये तन्त्र की कूटभाषा के शब्द हैं, जो अनधिकारी को दूर भगाने के लिए गढे गये।

कौलोपनिषद् में ही अनेक ऐसी पंक्तियाँ हैं,  जो हमें अटपटी लगेंगीः जैसे- धर्म्मविरुद्धाः कार्य्याः । धर्म्मविहिता न कार्य्याः । अन्यायो न्यायः। व्रतं न चरेत्। न तिष्ठेन्नियमेन । नियमान्न मोक्षः । इन पंक्तियों का सामान्य अर्थ है- धर्म के विरुद्ध आचरण करना चाहिए, धर्म के विधान पालन न करना चाहिए। अन्याय ही न्याय है, व्रत पालन नहीं करना चाहिए, नियम में नहीं रहना चाहिए। नियम से मोक्ष नहीं मिलता है। ये बाते एकदम विरुद्ध लगती है, किन्तु यदि हम इसकी व्याख्या करें तो सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा- निर्गतो यमः नियमः जहाँ योगशास्त्र में कथित यम अर्थात् संयम न हो उसे नियम कहते हैं। नियम अर्थात असंयम का यहाँ विरोध किया गया है।

इस प्रकार तन्त्र की अपनी अलग भाषा है, उसे यदि हम नहीं जानते हैं तो हमें तान्त्रिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। इसलिए अनधिकारी व्यक्ति से दूर रखऩे की बात कही गयी है।

 किन्तु केवल शिष्य को अपनी परम्परा का उपदेश करें। एक ही गुरु से सीखें, यह भी आवश्यक माना गया है। यद्यपि सभी गुरुओं की बातें एक ही हैं, किन्तु यह बोध तो हमें अन्त में जाकर होगा। आरम्भ में अनेक गुरुओं से सीखने पर हम भटक जायेंगे।

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