यह आलेख अहल्या-स्थान मन्दिर, अहियारी, दरभंगा से प्रकाशित अहल्या-संदेश (स्मारिका) में 2023ई. में प्रकाशित है।

महाकवि विद्यापति ने भी ‘भूपरिक्रमणम्’ नामक ग्रन्थ में जनक के देश का विवरण दिया है इसके अनुसार बलराम नरहरि नामक देश को छोड़कर पाटलि नामक देश पहुँचे जहाँ उन्होंने देवी की पूजा कर नगर की शोभा देखी और गंगा को पार कर गंगागण्डक के संगम पर पहुँचे। वहाँ स्नान एवं तर्पण कर तीरभुक्ति को छोडकर मुनि के साथ जनक देश गये, वहाँ आठ रात्रि रहे और अनेक तीर्थों का निर्माण किया। विद्यापति के अनुसार यह जनक देश का परिमाण 22 योजन है और वहाँ हजार गाँव हैं। यहाँ निम्न कुलवाले लोग उदार होते हैं। 

विद्यापति आगे लिखते हैं कि जनकपुर के दक्षिण में सात कोस की दूरी पर डिजगल नामक विशाल गाँव है, जहाँ जनक की वासभूमि है। वहाँ नदियों में श्रेष्ठ, सदा वेग वाली यमुना (जमुनी नदी) बहती है। डिजगल गाँव के दक्षिण भाग मे आधा योजन (दो कोस) की दूरी पर गिरिजा नामक गाँव है जो देशवासियों में विख्यात है। वहाँ दो तालाबों के बीच एक प्राचीन मन्दिर है। बलराम मुनि के साथ भैरवस्थान भी गये। वहाँ भैरव की पूजा कर सीता मण्डप भी गये, जहाँ प्राचीन काल में सीता का विवाह हुआ था और गाँठ बाँधी गयी थी। सीताकुण्ड के दक्षिण में तीन कोस की दूरी पर चण्डीस्थान है, जहाँ देवी हमेशा जागृत रहती है। 

वर्तमान स्थिति देखने पर यह अनुमान होता है कि उच्चैठ देवी स्थान को ही विद्यापति चण्डीस्थान कहते हैं।  सीताकुण्ड के दक्षिण में देवताओं के द्वारा शासन करने योग्य स्थान सुरस्थान है, जिसके दक्षिण में सात कोस की दूरी पर धनुषग्राम है। वन पार करने के बाद तुरंत ही एक विशाल गाँव में परशुराम कुण्ड है। इस गाँव में अहीर लोग रहते हैं। वहाँ गोरस बहुत मात्रा में मिलती है और गाँव में बहुत लोग रहते हैं। गिरिजा गाँव के दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर आहारी नामक विशाल गाँव गोतमकुण्ड के समीप है। यहाँ अहल्यावट पूजित है और ह्रस्वा नामक नदी भी प्रसिद्ध है। इस आहारी पत्तन से कमला नदी अधिक दूर नहीं है। 

यही आहारी नामक गाँव वर्तमान में अहियारी है, जिसमें अहल्यास्थान है।

विद्यापति इससे पूर्व दिशा के मार्गों और स्थलों का वर्णन करते कहते हैं कि जनकपुर से दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर विशोर नामक विशाल गाँव है, जहाँ बलराम गाँव के बाहर ठहरे।  वहाँ से पाँच कोस की दूरी पर अरगाजापु नामक कुण्ड है। वहीं पर दशरथ कुण्ड भी विख्यात है। वहाँ दशरथ कुण्ड एवं गंगासागरकुण्ड में जलेश्वर महादेव प्राचीन पद्धति से पूजित हैं जो एक कुण्ड के जल को छोडकर दूसरे कुण्ड के जल में प्रविष्ट हो गये। 

बलराम ने अपने समवयस्कों, वृद्धों एवं मुनियों के साथ इनकी पूजा की तथा मन्दिर में देवता को बन्द किया अर्थात् मन्दिर का निर्माण किया।  रात्रि में गौतम कुण्ड के पास त्रिकालदर्शी मुनि ने बलराम को अलस की कथा कही और परिश्रम को दूर करने के लिए दूसरी बातें भी की। 

मूल श्लोक के साथ उपर्युक्त विवरण विस्तार से “मिथिला एक खोज”, प्रथम खण्ड, इसमाद प्रकाशन, दरभंगा, 2020ई. में “विदेह की राजधानी मिथिला नगर की खोज”- पं. भवनाथ झा आलेख में प्रकाशित है।

इस विस्तृत विवरण में जनकपुर, सुरस्थान, आहारीग्राम, गौतमकुण्ड, इतने स्थान आज भी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन गिरिजास्थान का निर्धारण भी सुगम हो जाता है, क्योंकि उसी के समीप भैरवस्थान का उल्लेख है। वर्तमान में यह भैरव स्थान सीतामढी के पास कोदरिया गाँव में है, जिसका उल्लेख कनिंघम ने भी किया है। यदि विद्यापति के वर्णन को हम कनिंघम द्वारा दिये गये वर्णन के आलोक में देखते हैं तो स्पष्ट है कि भैरव मन्दिर गिरिजा नामक गाँव में है, जहाँ से दो कोस उत्तर डिगजल गाँव में जनक का राजमहल है। इसका अर्थ यह है कि विद्यापति के काल में सीतामढी का ही दूसरा नाम गिरिजा गाँव था। वर्तमान में फुलहर के पास जो गिरिजा स्थान है, वह मन्दिर का नाम है, गाँव का नहीं। वह स्थान पुष्पवाटिका से सम्बद्ध है, जन्मस्थान से नहीं। 

जनकपुर से सात कोस दक्षिण मे एवं गिरिजास्थान से दो कोस उत्तर जनक के राजमहल का उल्लेख है, जहाँ जमुनी नदी का प्रवाह कहा गया है। और इसी गिरिजास्थान से पाँच कोस दक्षिण में गोतम कुण्ड के समीप आहारी ग्राम है, जहाँ अहल्यावट है, ह्रस्वा नदी भी तथा कमला नदी भी अधिक दूर पर नहीं बहती है। इस प्रकार आहारी गाँव (अहियारी) से सात कोस उत्तर 12 कोस पर जनकपुर की अवस्थिति मानी गयी है, किन्तु डिजगल गाँव में राजा जनक का महल कहा गया है। 

यहाँ वर्णन के अनुसार आहारी पत्तन यानी अहियारी गाँव के उत्तर एक घना जंगल है, जिसके उत्तर धनुष ग्राम है। साथ ही इस धनुषग्राम से पाँच कोस उत्तर सुरस्थान माना गया है, जिसे वर्तमान सुरसंड कहा जा सकता है।  विद्यापति के द्वारा दिये गये विवरण के आधार पर मानचित्र इस प्रकार बनाया जा सकता है।

मिथिला सांस्कृतिक क्षेत्र में श्रीराम से जुड़े ये क्षेत्र 19वीं शती के अंत तक पर्याप्त प्रसिद्ध रहे। सीतामढ़ी जानकी जी की जन्मभूमि मानी जाती थी। साथ ही, सीताराम विवाह का प्रसंग भी इसी स्थान पर मानने की आस्था थी। रामभक्ति सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी आस्थाएँ सुरसंड से दक्षिण तथा अहल्यास्थान सहित इसके उत्तर में थी। विद्यापति के द्वारा वर्णित स्थलों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि कुछ स्थल वर्तमान में अपनी पहचान खो चुके हैं, जिन्हें पुनः खोजने की आवश्यकता है। चूँकि विद्यापति दिशा तथा दूरी दोनों दे रहे हैं तो अन्वेषण में हमें अवश्य सफलता मिलेगी।

19वीं शती के अंत में अयोध्या के रामानन्दी वैष्णवों के प्रभाव से जनकपुर का पर्याप्त विकास हुआ और उसी के साथ सीतामढ़ी, दभंगा तथा मधुबनी के राम-जानकीस्थल पतनोन्मुख हुआ। जो लोग पहले सीतामढ़ी में रामनवमी में सम्मिलित होते थे, वे जनकपुर की ओर बढ़ते चले गये। यह स्थानान्तरण सामान्य रूप में नहीं हुआ, बल्कि इसके लिए अपवाहें फैलाने का काम वैष्णव साधुओं ने अपने मन से किया या यह प्रायोजित था, कहना सम्भव नहीं है, लेकिन कुछ ऐसी असामान्य घटनाएँ घटित की गयीं। एक ऐसी प्रलेखित घटना का विवरण यहाँ दिया जा रहा है।

सीतामढ़ी से आरम्भ होकर एवं इसके आसपास के क्षेत्र में 1894 ई. में एक आश्चर्यजनक घटना घटी थी। आम की गाछी में पेड़ के मुख्य तना पर जमीन से लगभग दो से ढ़ाई फीट की ऊँचाई पर मिट्टी का एक विशेष प्रकार का लेप देखा गया। इस लेप के बीच में दो-चार काले रंग के बाल भी चिपका दिये गये थे। हजारों की संख्या में वृक्षों पर यह आलेपन दीखना एक रहस्यमय बात थी, जिसे लेकर जनता में तरह-तरह की अपवाहें फैल रही थीं। कुछ लोगों का कहना था कि हनुमानजी ने जनकपुर में एक तालाब की खुदाई की, जिसके कारण उनके हाथ में जो मिट्टी इन वृक्षों में उन्होंने लगा दी। बीच में लगे हुए बाल हनुमानजी के रोयें हैं। इस प्रकार लोग भावनात्मक रूप से इस आलेपन की घटना से जुड़ते गये। इस अपवाह की सच्चाई जानने के लिए अनेक लोग जनकपुर गये लेकिन उन्हें कुछ नया नहीं मिला।

कुछ लोगों की मान्यता थी कि हमें जनकपुर आने का न्योंता दिया गया है। लोग यह भी कहा करते थे कि यह कोई-जादू-टोना किया गया है। यह मामला प्रेस के द्वारा इतना उछाला गया कि भारत तथा इंगलैड तक पहुँच गया। हाउस ऑफ कॉमन्स में भी इस पर चर्चाएँ चलीं। बहुत सारे ब्रिटिश अधिकारियों तथा लेखकों ने इस विषय पर लिखा, किन्तु सबने खेद प्रकट किया कि वे बहुत दूर रहकर इस आश्चर्यजनक घटना के बारे में उचित विवरण नहीं दे पा रहे हैं। वे सभी इस बात की अपेक्षा करने लगे कि कोई अधिकारी इस मिट्टी के लेप वाली घटना का स्थल निरीक्षण कर विस्तार से लिखे।

इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बंगाल सिविल सर्विस के अधिकारी डब्ल्यू एजार्टन (W. Egerton) ने जुलाई 1894 ई. में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार किया जिसका प्रकाशन लन्दन से सैम्प्सन लॉ, मार्स्टन एण्ड कम्पनी से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय स्तर की मासिक पत्रिका ‘द नाइन्टीन्थ सेंचुरी’ पत्रिका के 36वें अंक में 1894ई. में ही हुआ।

इस रिपोर्ट में अंतिम निष्कर्ष वे पहुँचे कि जनकपुर के मेला में लोगों की भीड़ जमा करने के लिए, जनकपुर के प्रचार-प्रसार के लिए इस प्रकार का रहस्यमय कार्य साधुओं के द्वारा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है कि लोग अधिक से अधिक संख्या में जनकपुर आवें और चढ़ाबा दें; ताकि साधुओं के भोजन में कोई कठिनाई न रहे। इस प्रकार यह जनकपुर के प्रचार-प्रसार का एक तरीका था।

इससे मात्र 17 वर्ष पूर्व 1877ई. में Wilson Hunter द्वारा लिखित गजेटियर Statistical Account of Tirhut के भाग 13 की पृष्ठ संख्या 67-68 पर सीतामढ़ी के मेले का वर्णन इस प्रकार लिखा गया-

“A large fair takes place in the month of Chaitra the principal day being the 9th of the Sukal Pakhsh commonly called the Rámnámí the day on which Ráma is said to have been born in Oudh. The melá begins four or five days before and lasts for a fortnight being attended by people from very great distances. All kinds of goods are sold Sewán pottery being the most noteworthy. A few elephants and horses are sold but the fair is principally famous for the large number of bullocks which are bought Sítámarhí bullocks being supposed to be an especially good breed.

यानी “चैत्र के महीने में एक बड़ा मेला लगता है, मुख्य दिन शुक्ल पक्ष की 9वीं तिथि होती है, जिसे सामान्य रूप से ‘रामनौमी’ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन राम का जन्म अवध में हुआ था। मेला चार या पाँच दिन पहले शुरू होता है और एक पखवाड़े तक चलता है, जिसमें दूर-दूर से लोग शामिल होते हैं। सभी प्रकार के सामान बेचे जाते हैं सिवान में बने मिट्टी के बर्तन सबसे उल्लेखनीय हैं। कुछ हाथी और घोड़े बेचे जाते हैं, लेकिन मेला मुख्य रूप से बड़ी संख्या में बैलों के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें विशेष रूप से अच्छी नस्ल के सीतामढ़ी बैल खरीदे जाते हैं।” विल्सन हंटर के रिपोर्ट से स्पष्ट है कि सीतामढ़ी के प्रति लोगों की बहुत बड़ी आस्था थी, जिसके कारण सिवान से भी मिट्टी के वर्तन बिकने के लिए आते थे। बैलों के लिए सीतामढ़ी प्रसिद्ध था।

लेकिन 1894 में इस घटना के निष्कर्ष रूप में एगार्टन ने इसे विशुद्ध धार्मिक अपवाह माना है। उन्होंने इस घटना का विवरण देते हुए लिखा है कि इसके देखने से लगता है कि किसी ने तलहत्थी पर मिट्टी लेपकर इसे वृत्ताकार रूप में घुमाकर यह आकृति बनायी है और काले बाल चिपका दिये गये हैं। यह रातों-रात सैकड़ों वृक्षों में दिखाई पड़ने लगा, लेकिन किसी ने किसी को इसे लगाते हुए देखने का दावा भी नहीं किया, अतः यह घटना अत्यन्त रहस्यमयी बन गयी थी। सीतामढ़ी के बाजार में भी जो पेड़ थे, उस पर भी ये चिह्न देखे गये थे। यहाँ तक कि सीतामढ़ी के फैक्टरी के परिसर में भी ऐसा पाया गया। पटना के कमिश्नर ने इंगलिशमैन अखबार के सम्पादक को लिखे गये पत्र में स्वीकार किया है कि चौरौत के महन्थाना के पास के सभी गाछियों में ऐसा चिह्न पाया गया।

चूँकि इस घटना का आरम्भ सबसे पहले सीतामढ़ी के इलाके में हुआ था, अतः एगार्टन ने इसी स्थान पर व्यापक निरीक्षण कर इसके अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला।

वे इस आलेपन की घटना के बारे में लिखते हैं कि सीतामढ़ी के गाछियों में उन्होंने इसका अवलोकन किया। उन्होंने दो तथ्यों की जाँच की कि क्या यह आलेपन मनुष्य द्वारा बनाया गया है या किसी जानवर के द्वारा? यदि मनुष्य द्वारा किया गया है तो इसका उद्देश्य राजनीतिक है अथवा धार्मिक?

ये चिह्न तत्कालीन चम्पारण. मुजप्फरपुर तथा दरभंगा जिला के उन क्षेत्रों में पाये गये जो नेपाल के सटे थे। नेपाल से आने वाली सभी सड़कें इन क्षेत्रों से होकर गुजरती थीं। ये सभी मार्ग जनकपुर की ओर जाने वाले मार्ग से जुड़े हुए थे। एगार्टन ने इस रहस्यमय आलेपन की घटनावाले क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का एक नक्शा भी दिया है-

कुछ लेखकों ने संदेह व्यक्त किया कि कोई जानवर जो कीचड़ से सना हुआ हो और अपनी पीठ पेड़ के तना से लगाकर खुजलाए तो ऐसा निशान बन सकता है और बाल भी चिपक जा सकते हैं। कुछ लेखकों ने इसे कीचड़ में सने सूअर का कृत्य माना। इसके बारे अगार्टन का कहना है कि पशु के द्वारा इस प्रकार घटना तभी सम्भव हो सकती है, जब आसपास में कीचड़ भरा कोई गड्ढा हो, जानवर पहले उस गड्ढा में लोटे और तब आकर पेड़ के तना से पीठ खुजलाये। किन्तु उन्होंने पाया कि जहाँ दूर-दूर तक पानी का कोई स्रोत नहीं है, वहाँ की गाछियों में भी सैकड़ों की संख्या में इस प्रकार के चिह्न पाये गये हैं, अतः यह किसी जानवर का कृत्य नहीं हो सकता।

एजार्टन ने आगे लिखा है कि यह साधुओं का काम लगता है। उनके पास कमण्डलु में जल रहता है, वे आसानी से थोड़ी ही देर में अनेक वृक्षों पर इस प्रकार का चिह्न बना सकते हैं। इस अनुमान में भी एक संदेह उत्पन्न हुआ कि यदि वे अपना बाल नोंचकर लगावेंगे तो सामान्यतः उजला होना चाहिए, नहीं यदि यह सूअर का बाल चिपका रहे हैं तो भला साधु होकर सूअर का बाल कैसे नोंच सकते हैं। इस संदेह का निराकरण किया गया कि निम्न जाति वाले जो साधु हैं, उनके लिए ऐसा करने से परहेज नहीं है। फिर सम्भव है कि ये युवा साधु द्वारा अपनी दाढ़ी से बाल नोंच कर चिपकाए गये हों।

हर प्रकार से तहकीकात करने पर एगार्टन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस चिह्न के बारे में आम धारणा फैल गयी है कि यह जनकपुर आने का न्योंता है। साथ ही, ऐसा चिह्न जनकपुर में मेला आयोजित होने के आसपास के दिनों में दिखाई दे रहा है, अतः यही मानना ठीक होगा कि इन क्षेत्रों में जनकपुर के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करने के लिए साधुओं के द्वारा ये चिह्न रहस्यमय रूप में बनाये गये हैं ताकि इन क्षेत्रों से लोग अधिक से अधिक संख्या में जनकपुर की यात्रा करें।

“But it is asked why should the Sadhus do this? If we accept the statement that the mark is really the mark of Sadhus there is no further difficulty in finding a sufficient motive for their actions. A non-official of long experience and greatly respected by the people residing on the direct road to Janakpur questioned many Sadhus on their way to and from the shrine. They one and all said: The mud mark is nothing it is only an invitation to us Sadhus to go to the great Janakpur mela later on. There is no reason why the Sadhus should have vouchsafed this information if it was untrue. It would have been just as easy for them to feign complete ignorance or attribute the marking to a divine agency. On the other hand the mud smearing began close to Janakpur and spread south gradually just as one would expect if the Sadhus story was the true explanation. It is well known that native Sadhus have a kind of freemasonry among themselves whereby their movements are made known to other Sadhus. Especially dear to them is the shrine of Janakpur where there are no restraints and no sanitary arrangements made and no police to enforce the regulations whereby the British Government endeavours to prevent epidemics at these great gatherings at Hardwar and other places and it is natural that they should wish to advertise the great shrine by an unusual tutka or sign which would excite the common people who pay fees to the shrine in the shape of money offerings by which the Sadhus are fed gratis.

अर्थात् “लेकिन प्रश्न है कि साधुओं ने ऐसा क्यों किया? यदि हम इस कथन को स्वीकार कर लें कि यह निशान वास्तव में साधुओं का निशान है तो उनके कार्यों के लिए पर्याप्त उद्देश्य खोजने में कोई और कठिनाई नहीं है। जनकपुर की सीधी सड़क पर रहनेवाले और लंबे अनुभव वाले और लोगों द्वारा बहुत सम्मानित एक नागरिक ने मंदिर से आने-जाने वाले कई साधुओं से पूछताछ की। सभी ने कहा कि मिट्टी का निशान कुछ भी नहीं है, यह केवल हम साधुओं के लिए भविष्य में लगने वाले जनकपुर मेले में जाने का निमंत्रण है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि यदि यह जानकारी असत्य होती तो साधुओं को इसकी पुष्टि करनी चाहिए थी। उनके लिए पूर्ण अज्ञानता का दिखावा करना या किसी दैवीय शक्ति को अंकन का श्रेय देना उतना ही आसान होता। दूसरी ओर, आलेपन की यह घटना जनकपुर के आसपास से शुरू हुआ और धीरे-धीरे दक्षिण में फैल गया, जैसा कि साधुओं की कहानी की सच्ची व्याख्या होने पर कोई अनुमान लगा सकता था। यह सर्वविदित है कि स्थानीय साधुओं में आपस में एक प्रकार की स्वतंत्रता होती है, जिससे उनकी गतिविधियों से अन्य साधुओं को अवगत कराया जाता है। उन्हें जनकपुर का तीर्थ विशेष रूप से प्रिय है, जहाँ कोई रोक-टोक नहीं है, कोई स्वच्छता व्यवस्था भी नहीं की गई है और नियमों को लागू करने के लिए कोई पुलिस नहीं है, वे एक असामान्य टोटका  या संकेत द्वारा महान मंदिर का विज्ञापन करना चाहते हैं। इससे सामान्य लोग को उत्साहित होंगे जो मंदिर में चढ़ाबा चढ़ाते हैं, जिससे साधुओं को निःशुल्क भोजन कराया जाता है।

इस घटना के सम्बन्ध में मामला इस रिपोर्ट के साथ शान्त नहीं हुआ। चूँकि यह घटना अग्रिम वर्षों में बिहार में गंगा के दक्षिण तथा उत्तर प्रदेश में कानपुर तक फैलती गयी, इसलिए आगे भी तहकीकात जारी रहा। ब्रिटिश सरकार संदेह करती रही कि यह कोई राजनीतिक मामला है। इसलिए आगे भी इस पर व्याख्याएँ चलती रही लोग अनुमान लगाते रहे।

सन् 1898ई. में ‘कलकत्ता रिब्यू’ की पृष्ठ संख्या 135-43 पर एक अज्ञात नागरिक के नाम से  एक आलेख प्रकाशित हुआ। इसमें इसका घटना का विवरण दिया गया कि कानपुर में जब एक साधु ऐसा करते पकड़ा गया तो उसने स्वीकार किया कि यह उसने उत्तरी जिलों के अपने गुरु के ऐसा कहने पर किया है। छानबीन के बाद यह सिद्ध हुआ कि “अंततः स्पष्टीकरण के सिद्धांत को सबसे सामान्य स्वीकृति मिली, अर्थात् यह संकेत जनकपुर मंदिर के विज्ञापन के रूप में था, जो अनुमान का समर्थन करता है। इसमें मंदिर के विज्ञापन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों का हाथ है और उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार ये या तो जनकपुर के पुजारी होंगे या हरिद्वार मेले के हितैषी होंगे या गौवंश-हत्या विरोधी आंदोलन करने वाले, या दोनों होंगे।

(“Finally the theory of explanation which received the most general acceptance namely that the sign was intended as an advertisement of the Janakpore shrine supports the inference. It involves the existence of persons interested in advertising the shrine and on the evidence available these would either be the priests of Janakpore or those concerned in the welfare of the Hurdwar fair or in the anti kine-killing movement or both.” (पृ. 139)

इस प्रकार, हरिद्वार मेले का विज्ञापन एवं गो-हत्या के विरोध का भी सिद्धान्त इससे जुड़ गया। यहाँ प्रश्न उठता है कलकत्ता रिब्यू के लेखक ने अपना नाम क्यों छुपाया? सम्भावना यह है कि 1894ई. में प्रकाशित डब्ल्यू एजार्टन के रिपोर्ट को पढ़कर इसने इस घटना की नयी व्याख्या की और गो-हत्या को बंद कराने की दिशा में हिन्दुओं को संगठित करने के लिए इसका राजनीतिक लाभ लिया।

ध्यातव्य है कि 1897ई. में ब्रिटिश प्रशासन को यह अनुभव हुआ कि ‘गाय के महत्व से हम हाल के वर्षों में गौहत्या-विरोधी-आंदोलन के कारण परिचित हुए हैं। यह हमेशा अनुभव नहीं किया जाता है कि यह आंदोलन तथ्य से परे है, बल्कि पुराने समय के अन्य लोगों का पुनरुत्थान है। जब औरंगजेब की चहेती पत्नी को चित्तौड़ के राजपूत ने पकड़ लिया तो उसकी रिहाई की शर्त यह थी कि मुगल उनके धर्म के पवित्र पशु गाय की हत्या से बचें।’ (द इम्पीरियल एण्ड एशियाटिक क्वार्टर्ली रिब्यू, जुलाई, 1897, पृ. 261) इससे पता चलता है कि 1895-97 के बीच कभी गोहत्या-विरोधी आन्दोलन आरम्भ हुआ होगा और एक प्रबुद्ध नागरिक लेखक ने अपना नाम छुपाते हुए जनकपुर के प्रचार-प्रसार के लिए किये गये विशुद्ध धार्मिक कृत्य को इस आन्दोलन से जोड़ दिया।  

जो हो, 1893-94ई. में हुई यह घटना बाद के वर्षों में व्यापक क्षेत्रों में फैलती गयी फिर भी यह सामान्य तथ्य रहा कि जनकपुर के प्रचार-प्रसार के लिए ऐसा किया गया है। इसका परिणाम हुआ कि सीतामढ़ी का विशाल मेला धीरे-धीरे घटता गया और भीड़ जनकपुर की ओर केन्द्रित होने लगी।

सन्दर्भ ग्रंथ

  1. “मिथिला एक खोज”, प्रथम खण्ड, इसमाद प्रकाशन, दरभंगा, 2020ई.
  2. Art. X- “The Tree Daubing Of 1894 : A Study by CIVILIAN, The Calcutta Review, Volume, CVI, January 1898. Pp. 135-43.
  3. “Facts From Bihar About The Mud Daubing” By W. Egerton, Bengal Civil Service (written at Sitamadhi, N. Bihar, July 1891, Vol. Xxxvi- No 210), The Nineteenth Century, A Monthly Review, Edited By James Knowles, Vol XXXVI, July-December 1894, London, Sampson Low Marston & Company Limited, St Dunstan’s House, Fetter Lane Fleet Street Ec 1894 pp.279-85.
  4. Asiatic Quarterly Review and Oriental and Colonial Record,Third Series Volume Iv Nos 7 & 8 July October 1897, The Oriental University Institute, East India Association (London, England), Oriental Institute (Working, England)
  5. A Statistical Account of Bengal : Volume 13, William Wilson Hunter, Jan 1877, London, Trübner & Company, pp. 67-68.

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