मिथिला की विद्वत्-परंपरा पर्याप्त उर्वर रही है। धर्मशास्त्र के क्षेत्र में भी महर्षि याज्ञवल्क्य के काल से ही हमें पर्याप्त पुष्ट परंपरा का दर्शन होता है। इस बात के लिए अनेक प्रमाण है कि ईसा के आठवीं शती से लेकर 14वीं शती तक मीमांसा दर्शन पर मिथिला क्षेत्र के विद्वानों का सर्वाधिकार रहा है।
12वीं शती से मिथिला में अनेक धर्मशास्त्री हुए हैं, जिन्होंने धर्मशास्त्र के विषयों पर निबन्धों के माध्यम से समाज का पथ-प्रदर्शन किया है। इनमें महेश्वर मिश्र, गणेश्वर मिश्र, श्रीदत्तोपाध्याय, गणेश्वर ठक्कुर, चण्डेश्वर ठक्कुर, रामदत्त ठक्कुर, हरिनाथोपाध्याय, पद्मनाभ, श्रीदत्त मिश्र, विद्यापति, इन्द्रपति, प्रेमनिधि ठाकुर, लक्ष्मीपति उपाध्याय, शंकर मिश्र, वाचस्पति मिश्र, वर्धमानोपाध्याय, म.म. महेश ठाकुर, पशुपति उपाध्याय, रुद्रधर उपाध्याय, नरसिंह ठाकुर, आदि अनेक अति प्रसिद्ध धर्मशास्त्री हुए है।
आज भी अनेक ऐसे धर्मशास्त्रियों के ग्रन्थों के नाम उपलब्ध हैं, जिनकी पाण्डुलिपि भी उपलब्ध नहीं हैं। बाढ़ और अगलगी में अनेक ग्रन्थ विलुप्त हो गये, जो उपलब्ध भी हैं, उनमें से कई अप्रकाशित हैं और पाण्डुलिपि-ग्रन्थागारों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
ऐसे उर्वर क्षेत्र में वर्ष भर के व्रतों, त्योहारों और धार्मिक आयोजनों के सन्दर्भ में विद्वानों के बीच मतान्तर होना स्वाभाविक है।
कदाचित् इन्हीं मतान्तरों को दूर करने के लिए निबन्धकारों ने अतीत में भी अपने निबन्ध लिखे थे।
इस मतान्तर को दूर करने के लिए दरभंगा में 1932 ई. में तत्कालीन स्थापित पण्डितों का योगदान मिथिला की धर्मशास्त्र-परम्परा में अविस्मरणीय है। उस समय के प्रख्यात ज्योतिषी पं. कुशेश्वर शर्मा, जिन्होंने 1921 ई. से 1931 ई. तक मिथिलादेशीय पंचांग का भी निर्माण किया था, पर्वों के निर्णय के लिए उस समय के विख्यात धर्मशास्त्रियों का आह्वान किया और एक एक पर्व पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर प्रमाण के साथ अपना मन्तव्य देने का अनुरोध किया। इसके अन्तर्गत कुल 83 पर्वो पर निवन्ध आये, जिनमें कुछ विषयों पर दो दो विद्वानों ने पृथक् पृथक् अपना निर्णय लिखा। इन लेखों की समीक्षा के लिए दरभंगा में ज्योतिषियों और धर्मशास्त्रियों की एक स्थायी समिति बनायी गयी, जिसके संयोजक पं. कुशेश्वर (कुमर) शर्मा थे तथा तत्कालीन अन्य 15 विद्वान् सदस्य थे-
(1) पं. श्री श्रीकान्त मिश्र, सलमपुर निवासी वयोवृद्ध पण्डित
(2) महावैयाकरण पं. दीनबन्धु झा, प्राचार्य, लक्ष्मीवती संस्कृत विद्यालय, सरिसव
(3) म. म. पं. बालकृष्ण मिश्र, प्राचार्य, प्राच्यविद्या महाविद्यालय, वाराणसी
(4) पं. मार्कण्डेय मिश्र, प्राचार्य, महाराणा संस्कृत महाविद्यालय, उदयपुर
(5) पं. श्री निरसन मिश्र, प्राचार्य, चन्द्रधारी संस्कृत महाविद्यालय, मधुबनी
(6) पं. ब्रजविहारी झा, द्वारपण्डित, ड्योढ़ी, महारानी लक्ष्मीवती साहिबा, काशी
(7) पं. श्री त्रिलोकनाथ मिश्र, प्राचार्य, लोहना विद्यापीठ, (झंझारपुर) मधुवनी
(पं.) श्री मुक्तिनाथ मिश्र, प्राचार्य, संस्कृत विद्यालय, दरभंगा
(9) पं. श्री षष्ठीनाथ मिश्र,
(10 ) पं. श्रीबलदेव मिश्र, राजपण्डित, दरभंगा राज्य, दरभंगा
(11) पं. श्री गेनालाल चौधरी, प्राचार्य, टीकमणि संस्कृत विद्यालय, काशी
(12) पं. श्री गङ्गाधर मिश्र, प्राचार्य, श्रीबालानन्द संस्कृत विद्यालय, देवधर
(13) पं. श्री श्रीनन्दन मिश्र,
(14) पं. श्री हरिनन्दन मिश्र,
(15) पं. श्री दयानाथ झा, प्राचार्य, धर्मसमाज संस्कृत विद्यालय, मुजप्फरपुर
इस पण्डित-मण्डली ने 1938 ई. में सभी निबन्धों का अवलोकन कर उसे प्रकाशित करने की अनुमति दे दी, किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ हो जाने के कारण छपाई का खर्च बढ़ने लगा अतः उसका प्रकाशन स्थगित होता गया, लेकिन इसकी पाण्डुलिपि सुरक्षित रही।
अन्ततः 1985 ई. में नगेन्द्र कुमार शर्मा के द्वारा इस ‘पर्व निर्णय’ नामक ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ, जिसमें उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती ने पुरोवाक् लिखी और नगेन्द्र कुमार शर्मा ने सभी पर्वों के विषय में अंग्रेजी में सारांश लिखा।
इसकी पाण्डुलिपि के सभी आलेख मिथिलाक्षर में लिखे थे तथा संस्कृत भाषा में थे अतः इसके सम्पादन के लिए किसी पाण्डुलिपि-विज्ञानी तथा संस्कृत के विद्वान् की अपेक्षा थी। सर्वतोमुखी प्रतिभा से सम्पन्न पं. गोविन्द झा ने यह भार उठाया और यह प्रामाणिक ग्रन्थ प्रकाशित हो सका। यह ‘पर्वनिर्णय’ ग्रन्थ आज उपलब्ध है और विद्वानों के बीच अतिशय आदर है। चूँकि यह एक संकलन है और अनेक विद्वानों ने विचार कर इसका अनुमोदन किया है, अतः इसे किसी भी वैयक्तिक निबन्ध से अधिक प्रामाणिक मानना चाहिए।
परमावश्यक जनतब। मैथिलक प्रमाणिकताक ठोस आधार।
बहुत सुन्दर जानकारी