पूरा अंक पढने के लिए>>>>>

1.  आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तम्…- सम्पादकीय

प्रगति की अंधी दौड़ में आज हम अकेले होते जा रहे हैं। सौ साल पहले तक हम मनुष्य एक सामाजिक प्राणी थे। समाज टूटा तो संयुक्त परिवार बचा रहा। पचास साल पहले तक हम संयुक्त परिवार में रहे, फिर वह भी टूट गया। वृद्ध माता-पिता परिवार से बाहर के लोग प्रतीत होने लगे; न्यूक्लियर परिवारवाद आया। आज उससे भी बदतर स्थिति में पहुँच चुके हैं। बेटा अपने कमरे में मोबाइल  पर व्यस्त है, बेटी अपने कमरे में। उन्हें साथ भोजन करना भी गवारा नहीं। यह किसी एक घर की बात नहीं, सामान्य स्थिति है। हर आदमी अकेला होता जा रहा है!

आखिर इस स्थिति का समाधान क्या है? एक विकल्प है- सनातन धर्म की अवधारणाएँ। वे अवधारणाएँ, जो वसुधैव कुटुम्बकम्, का उद्घोष करती हैं क्या वे क्या हमें फिर हमारे अकेलेपन को दूर नहीं कर सकती हैं! सनातन धर्म में कोई अकेला नहीं होता- निर्जन रेगिस्तान में भी उसके साथ देवता होते हैं, पितर होते हैं। देवता-पितर के बल पर वह हमेशा सदल-बल होता है, उसमें हिम्मत होती है, अकेले में भी वह भीड़ में होता है, ऐसी भीड़ में जहाँ उसके सारे के सारे रक्षक होते हैं।

2.  चार दिनों के प्रस्तावित श्राद्ध की  सैद्धान्तिक पृष्ठभूमिआचार्य किशोर कुणाल

लेखक ने प्रमाण के साथ सिद्ध किया है कि प्राचीन उपनिषदों में वर्णित आत्मतत्त्व एवं पुनर्जन्म की अवधारणा के आलोक में श्राद्ध की कोई अनिवार्यता नहीं है, फिर भी श्राद्धकर्म अवश्य होना चाहिए। लेखक ने प्रचलित पद्धति और प्रेतत्वविमुक्ति की अवधारणा को नकारते हुए चार दिनों की एक श्राद्ध-पद्धति ऐसे लोगों के लिए बनायी है, जो लोग समय के अभाव की बात कहकर आर्यसमाज की पद्धति से शान्ति-मन्त्रों से हवन कराकर उसे ही वैदिक-श्राद्ध समझ लेते हैं। लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि जो लोग प्रचलित पद्धति से 12 दिनों का श्राद्ध करते हैं, “उनकी आस्था एवं विश्वास पर हम आघात नहीं करना चाहते; किन्तु आज अधिकतर लोगों के पास या तो समयाभाव है या गाय की पूँछ पकड़ कर कल्पित वैतरणी पार करने में अनास्था। अतः ये आर्य-समाजी पद्धति से तीन दिनों में श्राद्ध कर लेते हैं और तीसरे दिन कुछ वैदिक मन्त्रों का पाठ कराके और कुछ हवन कर श्राद्ध की इतिश्री कर लेते हैं।” ऐसे लोगों के लिए लिखी गयी यह पद्धति महावीर मन्दिर प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य है। इसी पुस्तक की सैद्धान्तिक भूमिका यहाँ विमर्श हेतु प्रस्तुत है।  

3. श्राद्ध की वैदिक अवधारणा एवं उसका विकास- श्री राधा किशोर झा

इस आलेख में लेखक ने सिद्ध किया है कि वर्तमान में प्रचलित श्राद्ध-पद्धति के मूल में वैदिक पितृयज्ञ है, जो मरणोपरान्त किया जाता था। वेद में यह हवन प्रधान था, ब्राह्मण भाग में पिण्डदान भी जुड़ गया तथा धर्मसूत्र में ब्राह्मण भोजन को विकल्प के रूप में प्रमुख माना गया। गृह्यसूत्रों में हवन, पिण्डदान एवं ब्राह्मणभोजन इन तीनों का समन्वय कर दिया गया। फलस्वरूप अग्नौकरण, पिण्डदान और ब्राह्मण भोजन ये श्राद्ध के तीन अंग हो गये।” वस्तुतः परवर्ती काल में जब आगम परम्परा प्रधान हुई तो हवन के स्थान पर भी ब्राह्मण भोजन आ गया तथा पद्धतियों में दान को भी सम्मिलित कर लिया गया। लेकिन सैद्धान्तिक रूप से ऋग्वेद में संकेतित पितर, पितृलोक, यमलोक तथा पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव वर्तमान तक जीवित है। ब्राह्मणग्रन्थों में वर्णित पितृपिण्डयज्ञ वर्तमान में एकोद्दिष्ट के रूप में है, इसीकी 16 आवृत्ति कर षोडश-श्राद्ध का ताना-बाना बुना गया है।

4.  त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य

पुत्र के कर्तव्यों का यहाँ उल्लेख किया गया है कि जीवित रहते उनका कहना माने मरणोपरान्त क्षयतिथियों पर ब्राह्मण-भोजन करावे तथा गया जाकर पिण्डदान करे। लेखक ने स्पष्ट किया है कि जबतक पुत्री का भी विवाह नहीं हो जाता है, तब तक सारे पुत्री के भी सारे कर्तव्य पुत्र के समान हैं, किन्तु विवाह होने के बाद जब वह बहू बन जाती है तो गोत्र एवं शाखा में परिवर्तन के कारण उसके सारे आध्यात्मिक कर्तव्य श्वसुर के प्रति हो जाती है। इसी क्रम में लेखक ने पितर, पितृलोक, प्रेत तथा श्राद्ध की अवधारणा की व्याख्या की है। उन्होंने श्राद्धकर्म तथा गया में पिण्डदान को अनिवार्य कर्म माना है। लेखक ने न्यायशास्त्र की पद्धति अपनाते हुए लिखा है कि जीवित माता-पिता के रूप में पितर भिन्न हैं तथा मरणोपरान्त अर्यमाप्रमुख पितर भिन्न हैं। अतीत में मृत पितरों से व्यावर्तन के लिए सपिण्डीकरण से पूर्व सद्योमृत व्यक्ति के लिए ‘प्रेत’ शब्द का व्यवहार है, ‘प्रेतयोनि’ से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

5.  अंकपल्लवी (अंक के माध्यम से शब्दों की सूचना)- डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ

पाण्डुलिपि की पुष्पिकाओं में लेखनकाल का उल्लेख करने के लिए अथवा ज्यौतिष के ग्रन्थो में शब्द से संख्या का बोध कराने की पद्धतियाँ प्रचलित हैं। यह बोध अर्थानुसार होता है जैसे 0 के लिए आकाश एवं उसके पर्याय, 1 के लिए पृथ्वी, चन्द्र आदि, 2 के लिए नेत्र, बाहु, पक्ष आदि। इसी प्रकार 16 के लिए भूप तथा 32 के लिए दन्त शब्द का प्रयोग प्रचलित है। यहाँ ऐसी पद्धति दी जा रही है, जिसमें संख्या के लेखन से शब्द का बोध होता है। यह जैन पाण्डुलिपियों में मिलती है। इसे ‘अंकपल्लवी’ कहा गया है। इस अंकपल्लवी की विशेषता है कि ६५।६५।५१२ अंक लिख देने पर ‘ममता’ शब्द का बोध होता है। इस शोध आलेख में संख्या के लिए शब्दों के प्रयोग के चार नियमों का वर्णन करते हुए इस अंकपल्लवी का विवरण दिया गया है। विशेष रूप से पाण्डुलिपि विज्ञान के जिज्ञासु इससे लाभ उठायेंगे।

6.  भारतीय जनजातियों में पितर की अवधारणा- डॉ कैलाश कुमार मिश्र 

‘पितर’ तथा ‘पूर्वजों’ के प्रति हमारी अवधारणा, श्रद्धा, श्राद्ध के विधि-विधान केवल शास्त्रीय ग्रन्थों का मुहताज नहीं है। जो लोग श्राद्ध-कर्म तथा पितर की अवधारणा को ब्राह्मण-पुरोहितवाद का ढकोसला मानते विष-वमन करते अघाते नहीं हैं उनके लिए यह आलेख आँखें खोल देने वाला है। जो भारतीय जनजातियाँ शास्त्रीय ग्रन्थों से दूर रही हैं वे भी पारम्परिक रूप से पूर्वजों के प्रति अपने-अपने ढंगे से श्रद्धा व्यक्त करती रही है। लेखक स्वयं एक जाने-माने नृविज्ञानी हैं। इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के पूर्व शोध-पदाधिकारी रहे हैं। लेखक ने स्वयं भ्रमण कर इन तथ्यों को जुटाया है। इन जनजातीय परम्पराओं के अवलोकन से स्पष्ट है कि मरणोपरान्त पितर की अवधारणा की जड़ें पहुत गहरी है। यहाँ ‘पिता-पितरौ-पितरः’ रटाकर केवल जीवित माता-पिता को ही पितर मानने का सिद्धान्त टिकने वाला नहीं है। अण्डमान निकोबार की जारवा जनजाति में समुद्र में जाने से पहले वे देवता मानकर पितरों की स्तुति करते हैं। गोंड आदिवासियों के डूमा देव पितर हैं, जिनके घर में केवल बहू जा सकती है, बेटी नहीं। आइए, इस लेख को पढ़ें

7. पूर्वजों की पूजा और प्रतिष्ठा चिह्न- डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू”

मनुस्मृति स्पष्ट शब्दों में श्रुति, स्मृति, सदाचार और सदाचार के अविरुद्ध आत्मप्रिय- इन चारों को धर्म का लक्षण बतलाया है। यहाँ सदाचार लोकाचार है, जिसे लोक निर्धारित करती है। अविच्छिन्न रूप से चलती आ रही लोक-परम्पराएँ हमारे कर्तव्यों को निर्धारित करती हैं। इससे पूर्व आलेख में हम भारतीय जनजातियों की पितर सम्बन्धी अवधारणा की लोक-परम्पराओं का अवलोकन कर चुके हैं। यहाँ राजस्थान के क्षेत्र की सार्वजनीन लोक-परम्परा का प्रलेखन किया गया है। यहाँ न केवल भील जनजाति में अपितु सबमें ‘पाहन’ गाड़ने की परम्परा है। पितृपक्ष में सांझा भित्ति-चित्र बनाकर पूर्वजों की स्मृति में आरती उतारी जाती है। वीरता के साथ मृत पूर्वज की स्मृति में पाहन गाड़ते हैं। इनके अतिरिक्त खेतला, पालिया, तालिया, मालिया, मसानिया आदि पूर्वजों के स्मृति-चिह्न हैं, जिनका प्रलेखन यहाँ चित्रों के साथ किया गया है। लेखक उसी क्षेत्र के जाने माने विद्वान् हैं इन्होंने इन पाहनों पर लगे अनेक शिलालेखों का वाचन भी किया है। अतः यह आलेख प्राथमिक स्रोत है, जो लेखक का प्रत्यक्ष भोगा हुआ यथार्थ है।

8.  वैश्विक स्तर पर मृत्यु के पश्चात् श्राद्ध की अवधारणा- डा. काशीनाथ मिश्र

भारतीय परम्परा में वेद, स्मृति तथा लोकाचार- इन तीनों में पितर की अवधारणा पर विमर्श के बाद अब हम विश्व-सभ्यता की ओर बढ़ें। यूनान, इटली, मैक्सिको, मिस्र, चीन एवं तिब्बत की बौद्ध संस्कृति, ईसाई परम्परा, यहूदियों की परम्परा, अफ्रीकी परम्परा, मुस्लिम समाज में भी जब हम मृत्यु, पितर तथा पूर्वजों के प्रति अवधारणा एवं उनकी स्मृति में किए गये कर्मकाण्ड को देखते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘भस्मान्तं शरीरम्’ की दुहाई देकर पूर्वज पितरों की अवधारणा का ही उच्छेदन कर देने वाले आर्यसमाजियों के सिद्धान्त सभ्यताओं के विकास के समय से चले आ रही वैश्विक मान्यताओं के विपरीत हैं। जीवित माता-पिता पितर नहीं हैं, बल्कि पितर वे हैं, जिनकी मृत्यु हो चुकी है। पितर वे हैं जो ईश्वर से लेकर हमारे बीच तक एक शृंखला बनाते हैं। उसी शृंखला को तैत्तिरीय उपनिषद् ने ‘प्रजातन्तु’ कहा है। पितृपक्ष में जब हम आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त (ब्रह्मा से लेकर अपने दिवंगत पिता तक -तृण पर्यन्त) को हम सनातन धर्मानुसार जल अर्पित करते हैं तो पृथ्वी के समस्त मानव हमारे बन्धु-बान्धव स्वतः बन जाते हैं। यहीं है सनातन धर्म में “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा।

9. तीर्थरूप पितृभक्ति- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक

भलें हम जीवित माता-पिता को पितर न मानें, पर इससे इनके प्रति हमारे कर्तव्य कम नहीं होते हैं। पुराणों ने माता-पिता को देवता मान लिया है, सम्पूर्ण पृथ्वी का प्रतिनिधि मान लिया है, तभी तो गणेजी की वह कथा प्रचलित है, जिसमें उन्होंने माता-पिता की परिक्रमा कर पृथ्वी की परिक्रमा का फल प्राप्त किया था। पौराणिक कथाओं की यही शैली है। वह मित्र की भाँति रोचकता के साथ हमें कर्तव्यों का उपदेश देती है। लेखक ने यहाँ माता-पिता के महत्त्व का निरूपण शास्त्रीय तथा पौराणिक शैली में किया है। पितृभक्ति का विवेचन करते हुए लेखक ने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, नचिकेता तथा भगवान् गणेशजी का उदाहरण देकर लौकिक तथा पारलौकिक महत्त्व की व्याख्या की है। इनमें भी कतिपय प्रमाणों के आधार पर माता को पिता से भी गौरवमयी सिद्ध किया है।

10. प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में विज्ञान- श्री संजय गोस्वामी

इस पूरे अंक में पितर औऱ श्राद्ध की अवधारणा पर लेख संकलित हैं। स्वर्गलोक, मोक्ष, पितृलोक हैं या नहीं, इस विषय पर अनेक मतवाद भारत में उपस्थापित किए गये हैं। किस कार्य के लिए क्या समय सीमा निर्धारित है यह भी विमर्श का एक विषय है। अक्सर हम आधुनिक चकाचौंध में अपनी परम्परा पर ही  उँगली उठाने लगते हैं और पुरोहितवाद ब्राह्मणवाद का नारा देकर उन्हें नकारना सबसे सुलभ हो जाता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में वैदिक साहित्य में जो कुछ है या उसी परम्परा में आगे भी जो खोज की गयी है, उनमें वैज्ञानिकता है। हम प्राचीन काल में समृद्ध थे औऱ उसी समृद्धता की स्थिति में हमने परम्परा चलायी, जो आज तक है। इसलिए तो मनु ने श्रुति, स्मृति, सदाचार तथा आत्मप्रिय- इन चारों को धर्म का लक्षण माना। हमें किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व एकबार परम्पराओं का दर्शन करना होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *