19वीं शती में लिखा गया शब्दकल्पद्रुम सनातन धर्म से सम्बन्धित एक महाकोष है। यह राधाकांतदेव बहादुर द्वारा निर्मित है। इसका प्रकाशन 1828-1854 ई० में हुआ। यह पूर्णतः संस्कृत का एकभाषीय कोश है और सात खण्डों में विरचित है। इस कोश में यथासंभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाङ्मय का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट भी दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐतिहसिक दृष्टि से भारतीय-कोश-रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट कोश कहा जा सकता है। परवर्ती संस्कृत कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशों पर इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता रहा है।। इसके द्वितीय खण्ड, पृ. के पृष्ठ 531-32 पर जिताष्टमी शीर्षक से विवरण है जिसमें जीमूतवाहन-पूजा तथा लक्ष्मीव्रत का एक स्थल पर वर्णन आया है।
इसमें भी स्पष्टतः उल्लेख है कि यह अष्टमी प्रदोषव्यापिनी होती है। पहले दिन या दूसरे दिन जब अष्टमी हो तब यह व्रत होगा। यदि दोनों दिन हो तो पर दिन होगा और यदि किसी दिन न हो तो उदयगामिनी तिथि में यह व्रत होगा।
भ्रान्ति तब आरम्भ हुई जब इसी जिताष्टमी या जीमूताष्टमी के साथ राधाकान्त देव ने लक्ष्मीव्रत का उल्लेख कर दिया।
लक्ष्मीव्रत के लिए ‘निर्णयामृतसिन्धु’ से उद्धरण दिया कि अष्टमी के चन्द्रोदय का समय यानी अर्धराति में यदि अष्टमी हो तो लक्ष्मीव्रत होगा और यदि सूर्योदय के समय अष्टमी रहे तो वह लक्ष्मी जीवित्पुत्रिका हो जाती है।
जो पण्डित धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों की भाषा और शैली नहीं जानते थे उन्हें अब यहाँ भ्रान्ति उत्पन्न हुई। उन्होंने ‘जीवित्पुत्रिका’ शब्द देखकर इसे जीमूतवाहन-व्रत समझ लिया। नामसाम्य के कारण ऐसा भ्रम उत्पन्न हुआ होगा।
लेकिन उन्होंने यह नहीं देखा कि परस्पर विरोधी वचन एकत्र क्यों लिखे गये? ऊपर जीमूतवाहन व्रत में प्रदोषव्यापिनी लिख चुके हैं और यहाँ फिर निशीथव्यपिनी और उदयव्यापिनी लिख रहे हैं?
कारण स्पष्ट है कि दो व्रतों का विधान यहाँ एक स्थान पर किया गया और भ्रम उत्पन्न हो गया।
तथाकथित धर्मशास्त्रियों को देखना चाहिए कि ऊपर जीमूतवाहन व्रत में पूज्य देवता जीमूतवाहन हैं और यहाँ पूज्य देवता लक्ष्मी हैं।
इन दोनों व्रतों के घाल-मेल में सारा विवाद उत्पन्न हो गया है।
आश्विन में लक्ष्मी दुर्गा का रूप हैं तो विधान शुक्लपक्ष की अष्टमी के समान हुआ, जिसमें सप्तमी विद्धा का निषेध है। उस पर से ‘निर्णयामृतसिन्धुकार’ ने अपने वचन में लक्ष्मी के लिए ‘जीवित्पुत्रिका’ शब्द का भी प्रयोग कर दिया। लोग जीमूतवाहन की पूजा में लक्ष्मीपूजा का विधान जोड़ने लगे। जीमूतवाहन व्रत की ऐसी कोई कथा थी नहीं, तो कथा भी लिख दी गयी! लोगों ने जीमूतवाहन पूजा और लक्ष्मीव्रत को एक कह दिया।
जहाँ से यह भ्रान्ति उत्पन्न हुई वहाँ का उद्धरण पढ़ लेने के बाद अब शायद कोई भ्रान्ति न रहे, इसलिए मैं मूल भी दे रहे हूँ-
जिताष्टमी, स्त्री. (जिता पुत्त्रसौभाग्यदानेन सर्व्वोत्कर्षेण स्थिता या अष्टमी।) गौणाश्विनकृष्णाष्टमी । सैव जीमूताष्टमी। यथा, “आश्विन-कृष्णाष्टम्यां जीमूतवाहनपूजा । तत्राष्टमी प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या।
भविष्योत्तरे-
“इषे मास्यसिते पक्षे अष्टमी या तिथिर्भवेत् ।
पुत्त्रसौभाग्यदा स्त्रीणां ख्याता सा जीवपुत्त्रिका ॥
शालिवाहनराजस्य पुत्त्रो जीमूतवाहनः ।
तस्यां पूज्यः स नारीभिः पुत्त्रसौभाग्यलिप्सया॥
प्रदोषसमये स्त्रीभिः पूज्यो जीमूतवाहनः।
पुस्करिणीं विधायाथ प्राङ्गणे चतुरस्रिकाम्॥”
किञ्च विष्णुधर्म्मोत्तरे।
“पूर्व्वेद्युरपरेद्युर्व्वा प्रदोषे यत्र चाष्टमी।
तत्र पूज्यः सदा स्त्रीभी राजा जीमूतवाहनः ॥”
तथा च । यद्दिने प्रदोषव्यापिनी अष्टमी तत्रैव व्रतं, उभयदिने चेत् परदिने त्रिसन्ध्यव्यापित्वात्। उभयदिने प्रदोषाव्याप्तौ उदयगामिन्याम्।
तदुक्तं निर्णयामृतसिन्धौ।
“लक्ष्मीव्रतं चाभ्युदिते शशाङ्के यत्राष्टमी चाश्विनकृष्णपक्षे।
तत्रोदयं वै कुरुते दिनेशस्तदा भवेज्जीवितपुत्त्रिका सा॥” इति।
अस्यामष्टम्यां स्त्रीभिर्न भोक्तव्यम्।
“आश्विनस्यासिताष्ठम्यां याः स्त्रियोऽन्नं हि भुञ्जते ।
मृतवत्सा भवेयुस्ता वैधव्यञ्च भवेद्ध्रुवम्॥” इति वचनात् ।
इति वाचस्पतिमिश्रकृतचमत्कारचिन्तामणिः॥
बहुत सुन्दर भ्रमभञ्जक आलेख!
अर्वाचीन पण्डित सभक हेतु बेसी उपयोगी।