मातृनवमी का महत्त्व क्या है? उस दिन माता आदि स्त्री-पितरों का किया जाता है विशेष सम्मान

पितृकर्म में जब हम पितरों को पिण्ड, जल, तिल आदि अर्पित करते हैं तो प्रश्न उठता है कि इसके देवता कौन-कौन हैं, यानी हमारा अर्पण किन्हें प्राप्त होगा? इस विषय पर  धर्मशास्त्रियों ने पर्याप्त विवेचन किया है। ‘वीरमित्रोदय’ के ‘श्राद्धप्रकाश’ में मित्रमिश्र[1] (वस्तुतः मैथिल धर्मशास्त्री सदानन्द) ने इसका विवेचन किया है कि जब हम पति के उद्देश्य से पिण्ड अर्पित करते हैं तो इसके साथ उनकी पत्नी का भी अंश होता है।

आगे उन्होंने शंका की है कि यदि एक पति की दो पत्नियाँ हों, तब या होगा?

उन्होंने उत्तर दिया है कि तब भी पति के पिण्ड में उनका अंश होगा, क्योंकि हम पति और पत्नी को अलग-अलग पिण्ड में कल्पित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे दोनों एकाकार हैं।

उन्होंने शातातप के वचन को उद्धृत किया है-

सपिण्डीकरणादूर्ध्वं यत्पितृभ्यः प्रदीयते।

सर्वत्रांशहरा माता इति धर्मेषु निश्चयः।।

अर्थात् माता का भी सपिण्डीकरण हो जाने के बाद पिता के निमित्त जो कुछ दिया जाता है उसमें माता का भी अंश होता है -यह धर्म में निश्चय है। अतः श्राद्ध में माता का भी देवत्व निर्धारित होता है।

19वीं शती में अवध क्षेत्र मेंं एक परम्परा थी कि सभी बहुएँ स्नान करते समय अपने लट जे जल चुआ कर पूरे पितृपक्ष स्त्री-पितरों को जल देती थीं।

19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।

इसी पुस्तक में स्त्रियों के द्वारा पूरे पितृपक्ष सास को जल देने का वर्णन आया है कि स्नान के बाद अपने लट से जल चुआकर स्त्रियाँ उसी प्रकार स्त्री-पितरों को जल दें, जिस प्रकार पुरुष अपने वस्त्र से जल चुआकर दिया करते हैं- “जिन लोगों का बाप मरा होता है वह लोग नदी वा तलाब में जाके पितरों के नाम तर्पण करते हैं इसी प्रकार स्त्रियां अपनी सास के नाम स्नान करके लट से चुआ के पानी देती हैं और नवमी की तिथि को सब लोग अपनी माता के नाम श्राद्ध करते हैं जब पितृपक्ष अमावस को उतर जाता है तो उस दिन सब लोग नदी के तट पर श्राद्ध करके पिंड को नदी में फेंक देते हैं फिर उस दिन से स्त्री पुरुष कपड़ा धुलाते हैं क्योंकि पंद्रह दिन तक बहुतसे काम बंद रहते हैं।”

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अतः श्राद्धादि में माता का पिण्ड अलग से नहीं दिया जाता है-

स्वेन भर्त्रा सह श्राद्धं माता भुङ्क्ते स्वधामयम्।

पितामही च स्वेनैव तथैव प्रपितामही।।

माता अपने पति के साथ ही ‘स्वधा’ उच्चारण के साथ अर्पित सामग्री का भोग करती हैं। पितामही तथा प्रपितामही भी इसी प्रकार क्रमशः पितामह तथा प्रपितामह के पिण्ड का भोग करती हैं।

यह सामान्य तथ्य है।

लेकिन ऐसे विशेष अवसर भी आते हैं जब माता, पितामही, प्रपितामही आदि के निमित्त पृथक् पिण्ड दिए जाते हैं।

शातातप का वचन है कि,

अन्वष्टकासु वृद्धौ च गयायां च क्षयेऽहनि।

मातुः श्राद्धं पृथक् कुर्यादन्यत्र पतिना सह।

अर्थात् अन्वष्टका श्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध अथवा आभ्युदयिक श्राद्ध, गया-श्राद्ध तथा क्षयतिथि पर किये जाने वाले एकोद्दिष्ट श्राद्ध में माता, पितामही, प्रपितामही आदि का श्राद्ध पृथक् होना चाहिए। इनके अतिरिक्त अवसर पर पति के साथ होना चाहिए।

इन चारों में अन्वष्टका श्राद्ध आश्विन कृष्ण नवमी को किए जाने वाला श्राद्धकर्म है। उपनयन, विवाह आदि शुभकर्म से पूर्व किया जाने वाला श्राद्ध वृद्धिश्राद्ध कहलाता है। इनके साथ ही, गया में किया गया पिण्डदान तथा क्षयतिथि पर होने वाले एकोद्दिष्ट श्राद्ध में माता आदि के निमित्त अलग पिण्डदान किया जाता है।

अन्वष्टका श्राद्ध में माताओं के लिए अलग से पिण्ड देने के विधान के साथ ही मातृनवमी की महत्ता आरम्भ होती है। अन्वष्टका श्राद्ध में सूर्य कन्या राशि में स्थित होते हैं। इसी कन्या राशि में सूर्य के रहने पर शुक्लपक्ष में महानवमी के दिन जगन्माता दुर्गा की उपासना होती है तो कृष्णपक्ष में स्त्री-पितरों को पृथक् पिण्ड, जल, तिल आदि दिया जाता है।

कुछ लोगों में भ्रान्ति है कि यदि माता की क्षयतिथि षष्ठी को है तो लोग कहते हैं कि इकट्ठे मातृनवमी के दिन खिला देंगे। यह उचित नहीं है। ऊपर हम देख चुके हैं कि क्षयेsहनि यानी क्षयतिथि के दिन का उल्लेख अलग हुआ है। हमें दोनों दिन माता के नाम से अर्पण कराना होगा। क्षयतिथि का अन्वष्टका श्राद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है।

पिण्डदान तो अब सामान्यतः लोग नहीं कर पाते हैं, किन्तु माताओं के उद्देश्य से तर्पण और ब्राह्मण भोजन अलग से कराते हैं।

यहाँ धर्मशास्त्रियों ने एक और प्रश्न उठाया है कि इस अन्वष्टका के अवसर पर यदि नौ पिण्डों से श्राद्ध करते हैं तो पहले माता को देना चाहिए या पिता को?

‘निर्णयसिन्धु’ में कमलाकर ने विभिन्न मतों का संकलन किया है। कात्यायन का मत है कि पहले पिता-पितामह-प्रपितामह ये तीन पिण्ड दें इसके बाद माता-पितामही-प्रपितामही को पिण्ड दें तब मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामह को पिण्ड दें। ये नौ पिण्ड दिये जाते हैं। ‘दीपिका’ ग्रन्थ में, हेमाद्रि कृत ‘चतुर्वर्गचिन्तामणि’ में तथा ‘ब्रह्माण्डपुराण’ में माता-पितामही-प्रपितामही को सबसे पहले पिण्ड देने का विधान किया गया है।

पृथ्वीचन्द्रोदयकार के मतानुसार दोनों पक्ष हैं। शाखाभेद से क्रम भेद होता है। ऋग्वेद के बह्वृचा शाखा वाले पिता आदि को पहले देंगे शेष सभी माता को पहले देंगे। इस प्रकार, सभी यजुर्वेदी तथा सामवेदी माता को ही पहले देंगे।

इस प्रकार, अन्वष्टका श्राद्ध में माताओं का स्थान प्रथम दिया गया है। यही मातृनवमी का शास्त्रीय पक्ष है।

वर्तमान में पिण्डदान जो नहीं भी करते हैं वे इन स्त्री-पितरों के नाम पर तिल और जल से तर्पण कर केवल ब्राह्मण भोजन कराकर संतोष कर लेते हैं।

कमलाकर ने विशेष रूप से लिखा है कि यदि अपनी माता जीवित हों, किन्तु सौतेली माँ का देहान्त हो गया हो तब भी वे सौतेली माता के नाम पर मातृनवमी मनायेंगे यानी ब्राह्मण भोजन आदि करायेंगे।

कमलाकर भट्ट ने एक और भ्रान्ति का उल्लेख किया है कि मान लीजिए किसी की दो पत्नियाँ हों, पहली निःसन्तान पत्नी की मत्यु हो चुकी हो, दूसरी पत्नी से सन्तान हो और वह पति स्वयं जीवित हो। उनका पुत्र अपनी मृत सौतेली माता के नाम पर मातृनवमी के दिन अर्पण करेगा लेकिन उसके पिता की भी मृत्यु हो जाने के बाद वह यदि सोचे कि अब पिता के साथ ही सौतेली माता का भी अंश मिल जायेगा औऱ वह मातृनवमी छोड़ दे तो उसे क्या कहेंगे?

कमलाकर ने स्पष्ट लिखा है कि ऐसा कहना मूर्खों के लिए प्रतारणा मात्र है। मातृनवमी के दिन माता हो चाहे विमाता सभी स्त्री-पितरों के निमित्त अर्पण कराना पुत्र आदि का कर्तव्य है।

इस मातृनवमी में इतना तक विधान है कि मान लीजिए किसी व्यक्ति के माता-पिता जीवित हों, लेकिन सास या कन्यादान करने वाले की पत्नी का देहान्त हो गया हो, तो उनके निमित्त भी पितराइन खिलाना चाहिए। इसमें पितृजीवी न खिलावें- यह नियम लागू नहीं होता है। क्योंकि शास्त्रकार विमाता आदि के नाम पर भी पितराइन खिलाने की व्यवस्था दे चुके हैं।

इस दिन जिस किसी भी स्त्री ने हमारा भरण-पोषण किया हो, उदाहरण के लिए बुआ आदि हों, अथवा जिस स्त्री-पितर का धन आदि अधिकार में मिला हो उनके नाम पर भी हमें ब्राह्मण भोजन गिनकर कराना चाहिए। ऐसी व्यवस्था में यदि कोई व्यक्ति अपने बचपन के धाय के नाम पर भी ब्राह्मण भोजन और तर्पण करते हैं तो वे प्रतिष्ठा पायेंगे।

लोकव्यवहार में कुछ स्थानों पर माताओं के निमित्त स्त्रियों को भोजन कराने का रिवाज है। यद्यपि श्राद्धकर्म में स्त्रियों के भोजन की शास्त्रीयता दिखायी नहीं देती है, किन्तु कुटुम्बान् भोजयेत् इस नियम के आधार पर परगोत्र की स्त्रियों को भोजन लोक में प्रसिद्ध है।

देवकर्म में कई स्थलों पर सुहागिनों को भोजन कराने का विधान मिलता है। सोमवती अमावस्याके व्रत में भी सुहागिनों को भोजन कराया जाता है। यन्त्रचिन्तामणि में विधान आया है कि ललिता यन्त्र की सिद्धि के लिए सात संख्या में सुहागिनों को भोजन करावें। इस प्रकार, देवकार्य में हमें स्त्री-भोजन का विधान मिलता है। अतः मातृनवमी में भी जो लोग परगोत्र की स्त्रियों को भोजन कराकर संतुष्ट होते हैं तो इसका निषेध भी कहीं नहीं किया गया है। इति।।


[1] मित्रमिश्र, वीरमित्रोदय, श्राद्धप्रकाश, पद्मप्रसाद उपाध्याय भट्टराइ, (सम्पादक), चौशम्भा संस्कृत सीरीज, बनारस, 1991ई. पृ. 9

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