यदि आपसे कोई कहे कि अपने धार्मिक मत को छोड़कर ईसाई बन जाओ, मुस्लिम बन जाओ, तो पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा कि मेरे पिता, दादा, परदादा, नाना, परनाना जिस धर्म-मत-सम्प्रदाय को मानते थे, उसे मैं कैसे छोड़ दूँ? अपने पूर्वजों की परम्परा का स्मरण कर आप परिवर्तित होने से बचेंगे। आपको गौरव रहेगा कि मेरे पूर्वज जिस रास्ते से गये हैं, उसी रास्ते पर चलना हमारा धर्म है।

पितर हमें स्वर्ग से देखते हैं

भारतीय अवधारणा है कि हमारे पूर्वज हमारी सभी क्रिया-कलापों को देखते हैं। वे समय-समय पर हमें आशीर्वाद देते हैं, हमारी गलतियों पर कुपित भी होते हैं। उन्हें प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद पाने के लिए हम प्रतिदिन उन्हें जल अर्पित करते हैं अथवा कम से कम पितृपक्ष में जल देते हैं। उनकी कृपा से हमारी उन्नति होती है।

इस अवधारणा के कारण भारतीय कभी अकेलापन का अनुभव नहीं करता है। हमारे पितर हमारे साथ हैं, इस अवधारणा से उन्हें आत्मिक बल मिलता है, जिसके कारण वह मजबूत होकर दुनियाँ की चुनौतियों का मुकाबला करता है।

लेकिन यदि सबसे पहले आपके मन में यह घुसा दिया जाये कि आपके पूर्वजों का कोई अस्तित्व है ही नहीं; वे जो थे मर गये और वे न तो हमारे अच्छे-बुरे कार्य को देखते हैं; और न ही आशीर्वाद और शाप देने की उनमें क्षमता है, तो हम अकेलापन का अनुभव करने लगेंगे। साथ ही यह सोचने लगेंगे कि हम जो करेंगे वही अंतिम सत्य है। इससे हमारे अंदर धर्मान्तरण के लिए भटकाव आ जायेगा।

आज ‘मृत्युभोज’ का विरोध किया जा रहा है। इसके लिए तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ी जा रही हैं। सुनाया जाता है कि इस मृत्युभोज के कारण फलाने की सारी जमीन बिक गयी; वह भिखारी हो गया; समाज ने उसके साथ ज्यादती की।

समाज के टूटने से उपजी बुराइयाँ

मृत्युभोज के मामले में समाज को एक ‘विलेन’ की तरह दिखाया जाता है। सामान्य कथन होता है कि समाज के लोगों के दबाब में आकर उसने मृत्युभोज के लिए अपनी जमीन बेच दी! ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि समाज के लोगों के प्रति आपके मन में घृणा और विद्रोह की भावना उत्पन्न हो जाये। यह भी आपको अकेला बनाने की साजिश है।

समाज टूटेगा, तो परिवार अकेला पड़ जायेगा। समाज का टूटना बहुत खेद का विषय है। यह न्यूक्लियर परिवार (हम दो हमारे दो) को जन्म दे रहा है, जिसके कारण परिवार के बूढ़े व्यक्तियों की उपेक्षा हो रही है। उन्हें परिवार का सदस्य मानने से लोग कतरा रहे हैं। नतीजा होता है कि वृद्धाश्रम फल-फूल रहे हैं। गनीमत है कि मिथिला के लोग अभीतक इससे बचे हुए हैं। यहाँ अभी भी माता-पिता को अपने परिवार में ही रखना श्रेयस्कर माना जाता है। एक-आध परिवार में मामले सामने आते हैं तो हमें प्रतिशतता का विचार तो करना ही चाहिए।

समाज टूटने से शादी में दहेज की समस्या पनप रही है। आज कई बुराईयाँ हमारे सामने हैं। लड़की के पिता अपनी लड़की की शादी ऐसी जगह कराना चाहते हैं जो अपने समाज से दूर किसी शहर में अकेले रहता हो।

गाँव में रहने वाले आर्थिक स्तर से सम्पन्न, हर तरह से अच्छे लड़के कुँवारे रह रहे हैं, जबकि किसी शहर में एक खोली में गुजारा कर लेनेवाला लड़का, जो भले किसी स्टेशन पर कुली का ही क्यों न काम करता हो, दहेज लेकर शादी रचा रहा है। ये कुरीतियाँ बहुत हद तक समाज के टूटने के परिणाम हैं।

मानव अंततः सामाजिक प्राणी है। वह समाज के साथ ही सुरक्षित है। समाज के अंदर ही उसकी उन्नति होती है। हमें अपने माता-पिता को परिवार मानना चाहिए। इतना ही नहीं, हमारे जो पूर्वज गुजर चुके हैं, वे भी हमारे परिवार के अंतर्गत आते हैं। हमारे मृत पूर्वज हमेशा हमारे साथ होते हैं। वे हमारे अच्छे बुरे कार्यों को देखते हैं; हमें आशीर्वाद देते हैं।

सपिण्डता क्या है?

सात पीढ़ी ऊपर तक के हमारे पूर्वज की संतान हमारे सपिण्ड कहलाते हैं। मृत तीन पीढ़ी त्रिक् होते हैं और उसके ऊपर चार पीढ़ी के पूर्वज विश्वेदेव कहलाते हैं। इन सात पीढ़ियों की संतान हमारा बृहत्तर परिवार है। इनके अतिरिक्त गाँव में एकसाथ रहनेवाले सभी गोत्रों अथवा जातियों के लोग भी हमारे हैं।

गाँव में किसी की मृत्यु होने पर दाह संस्कार से पहले गाँव से यात्रा करना निषिद्ध

आज से 30 वर्ष पहले तक मैं स्वयं देख चुका हूँ कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु यदि गाँव में हो जाती थी तो लोग गाँव से बाहर तबतक नहीं जाते थे, जबतक कि उसकी अंत्येष्टि नहीं हो जाती थी। कारण स्पष्ट है कि यदि अंत्येष्टि में किसी प्रकार की बाधा होती है तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था कि वह उसका समाधान करे। यह परम्परा अब बिखर रही है। यदि किसी गाँव में आज भी ऐसी बात है तो उस गाँव के लोग धन्यवाद के पात्र हैं।

हमें समाज से, परिवार से तोड़ने के लिए प्रयास चल रहा है। इन प्रयासों का एक भयंकर उद्देश्य है- धर्मान्तरण।

श्राद्धकर्म में दो प्रकार के व्यक्ति भोजन करते हैं

किसी की मृत्यु पर जब श्राद्ध होता है तो दो प्रकार के लोगों को आमन्त्रित किया जाता है-

1.    ब्रह्मभोज खानेवाले-

ये श्राद्धकर्म करानेवाले ब्राह्मण होते हैं। इनका कर्तव्य होता है कि यजमान के घर जाकर श्राद्धकर्म सम्पन्न करायें और वहाँ भोजन करें। इनकी संख्या के बारे में शास्त्र कहता है कि इनकी संख्या 1 अथवा अधिकतम 3 होने चाहिए। अतः एकादशाह के दिन प्रतिदिन के हिसाब से 1-1 ब्राह्मण मिलाकर अधिकतम 11 ब्राह्मण होते हैं। वास्तविकता है कि एकादशाह के दिन 11 व्यक्ति जमा करना बहुत कठिन हो गया है। यदि किसी बच्चे की मृत्यु होती है तो उसमें भी ये लोग अपना कर्तव्य समझकर किसी प्रकार बिना कुछ विचार किए हुए, जो मिल गया, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं।

2.    कुटुम्ब भोजन

श्राद्ध में कुटुम्बों का भोजन भी आवश्यक माना गया है। इनमें सबसे प्रमुख स्थान नाती, भांजा, दामाद का होता है। कहा जाता है कि यदि एक नाती श्राद्ध में भोजन कर ले तो 11 व्यक्तियों को खिलाने का फल मिलता है। नाती पराये गोत्र का होता है अतः वह खाने का महत्त्वपूर्ण अधिकारी है। “श्राद्धे त्रीणि पवित्राणि दौहित्रः कुतुपस्तिलाः”- श्राद्ध में तीन वस्तुएँ पवित्र होती हैं- दौहित्र यानी नाती, कुतुप काल ( 11:38 बजे दोपहर से 12:22 बजे का समय) तथा काला तिल।

कुटुम्ब भोजन में व्यक्तियों की संख्या का नियम नहीं है। जितने लोग सम्भव होते हैं खिलाये जाते हैं। लेकिन खानेवाले स्वयं ध्यान रखते हैं कि यदि मृत व्यक्ति उनसे उम्र में छोटा है तो वे ऐसे श्राद्ध में भोजन नहीं करते हैं। समाज स्वयं निर्धारित कर लेता है कि किसी बच्चे या युवक की मृत्यु हो, तो कौन-कौन लोग उसमें सम्मिलित होते हैं। यह सामाजिक नियम है।

मृत्युभोज के विरोध में कहानियाँ गढ़नेवालों ने शायद कभी समाज में जाकर देखा नहीं होगा औऱ अपनी रोटी सेंकने के लिए रुलाई दिलानेवाली कहानियाँ गढ़ लीं। ऐसी कहानियों पर वे ही विश्वास करते हैं, जो समाज से कटे हुए हैं। हमें सनातन धर्म, समाज और परिवार को विखण्डित करनेवाले लोगों को चिह्नित करना होगा।

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