मिथिला की उपासना-पद्धति में खासियत क्या है?

इस प्रश्न पर हम विचार करते हैं तो पता चलता है कि मिथिला में पूजा-पाठ की परम्परा मध्यकाल के परिवर्तनों से प्रभावित नहीं हुआ है। यहाँ आज भी जो पूजा-विधि है वह आदिकाल की है। आपने देखा होगा कि मिथिला में सत्यनारायण की पूजा के बाद हवन नहीं होता है जबकि मगध और बनारसी विधि से करने वाले हवन करते हैं। क्या आपने सोचा है कि यह अंतर क्यों है?

सत्यनारायण की पूजा वैदिक-विधि की पूजा नहीं, आगम-विधि की पूजा है। हवन वैदिक-पूजा का अंग है इसलिए आगम पूजा में वैदिक पूजा-विधि अपनाना नहीं चाहिए।

आगम की पूजा सभी जातियों के लिए एक समान है।

वैदिक पूजा में वेद के मंत्रों का उच्चारण करने के लिए वेद का विधानपूर्वक अध्ययन होना चाहिए। उच्चारण की एक अशुद्धि से अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। इसका उदाहरण पतंजलि ने महाभाष्य के आरम्भ में ही दिया है कि विना व्याकरण का पूरा अध्ययन  किए वेद की रक्षा नहीं हो सकती है। यदि हम अनजाने में वेद के मन्त्रों काउच्चारण करते हैं तो वेद को दूषित करने का  पाप होगा।

अब सोचिए कि कितने लोग आज वैदिक हैं तो विधानपूर्वक गुरु के मुँह से वेद का सस्वर उच्चारण सीख चुके हैं? जो सीख चुके हैं, वे ही वैदिक कहलाने के अधिकारी हैं जिनकी संख्या नगण्य है।

जबकि आगम की पूजा-पद्धति मैं ऐसी कोई बाध्यता नहीं है, जो आगे विवेचन से स्पष्ट होगा।

वैदिक पूजा किसे कहते हैं?

आजकल लोग सभी प्रकार की पूजा विधि को दो भागों में बाँट देते हैं- वैदिक-पूजा और तांत्रिक-पूजा।

घर में लोग सत्यनारायण भगवान् की भी पूजा करते हैं तो कहा जाता है कि यह वैदिक पूजा है। यह चरम सीमा की मूर्खता है। वेद में सत्यनारायण भगवान् की चर्चा है ही नहीं तो यह वैदिक पूजा होगी कैसे?

इसी प्रकार रामनवमी के अवसर पर राम की पूजा, कृष्णाष्टमी के अवसर पर कृष्ण की पूजा, गणेश की पूजा, सरस्वती की पूजा, गौरी-पूजा आदि को वैदिक-पूजा कहना अब्बल दर्जे की मूर्खता है। वास्तव में यह हमारी संस्कृति को तबाह करने के लिए किया गया एक षड्यंत्र है।

सच्चाई है कि ये सभी पूजाएँ वैदिक पूजा नहीं, आगम विधि से पूजा है। पुराणों में, आगम के ग्रन्थों में श्रीराम, श्रीकृष्ण, माता दुर्गा, माता सरस्वती, भगवान् गणेश आदि की पूजा का पूरा विधान आया है। आज जब हम उनकी पूजा करते हैं तो वह वैदिक पूजा नहीं आगम-पद्धति की पूजा है। हमें इस सच्चाई से दूर ले जाने का षड्यंत्र किया गया है।

क्या है आगम-पद्धति?

प्राचीन काल में जब समाज का विकास हुआ तो अधिकांश लोग समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए आन्य कार्य घड़ा बनाना लोहे का हथियार बनाना, फर्नीचर बनाना, सफाई करना, आदि कार्यों में लग गये। वे वेद कब पढ़ेंगे? आज भी एक इंजीनियर को क्या मरीज के ऑपरेशन करने की विधि सिखायी जाती है?

तब समस्या हुई कि इन लोगों के धार्मिक कृत्य कैसे सम्पन्  हो? इसके लिए उपाय निकाला गया कि जो वेद नहीं पढ़ पाते हैं वे पुराण या आगम के मन्त्रों से पूजा करेंगे। यह विधि कोई नयी नहीं है कम से कम 2500 वर्षों से भारत में मान्यता प्राप्त है। यही आगम या तान्त्रिक विधि कहलायी। इससे वेदों का विस्तार लौकिक संस्कृत भाषा में हुआ। यह विधि अतिथि-सत्कार की शैली में थी, जिसमें सभी लोग अनुभवी थे। अतिथि के रूप में देवताओं की पूजा करना वह सरलतम विधि थी, जो समाज को जोड़ने के लिए अपनायी गयी। इसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य सब ने समान रूप से अपनाया।

जिस पद्धति में हम देवताओं का आवाहन करते हैं या आवाहन कर स्थापित किए गयी मूर्ति की पूजा करते हैं वह आगम-पद्धति है। इस पद्धति में अक्षत, चंदन, रोली, फूल, माला, नैवेद्य, वस्त्र आदि देवता को अर्पित करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं। यह विधि हजारों वर्षों से सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। इस प्रकार मन्दिरों में हम जो भी पूजा करते हैं, देवता से प्रार्थना करते हैं या मूर्ति स्थापित कर विशेष अवसरों पर पूजा करते हैं वे सभी आगम-विधि की पूजा है।

इसकी विशेषता क्या है?

आगम विधि से पूजा करने में विशेषता है कि सभी जाति और वर्ण के लोगों को इस विधि से पूजा करने का स्वयं अधिकार है। इसमें कोई भेद-भाव नहीं है। जो कोई व्यक्ति गृहस्थ है, उसे स्वयं इस विधि से पूजा करने का अधिकार शास्त्र से मिला हुआ है। इसमें यदि पुरोहित नहीं भी हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसमें आप अपने से पूजा कर लेते हैं तो यह अच्छी बात मानी जाएगी। पुरोहित की कोई आवश्यकता नहीं है।

जिस प्रकार कोई व्यक्ति कार खरीदता है तो खुद चला सकता है या खुद चलाने में डर लगता हो, किसी तरह की दिक्कत हो तो प्रशिक्षित ड्राइवर रखता है- दोनों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए।

इसी तरह आगम की पद्धति में आप स्वयं पूजा करने के अधिकारी होते हैं, यह इसकी विशेषता और उदारता है।

आगम पद्धति में सभी मंत्र पुराणों या आगम-ग्रंथों से लिए गये हैं, जो लौकिक संस्कृत भाषा में हैं। जैसे नैवेद्य देने का मन्त्र है-

नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्तिं मे ह्यचलां कुरु।

ईप्सितं च वरं देहि सर्वकामार्थ सिद्धये॥

ये मन्त्र आसान हैं, उच्चारण करने में भी कोई कठिनाई नहीं है। इनका विधान कम से कम 2500 वर्षों से तो जरूर है। आप पुराणों और आगम के ग्रन्थों को देखें, सीधे-सादे शब्दों में सारी बातें कह दी गयी हैं। संस्कृत भाषा भी एकदम सरल है।

आगम की शाखाएँ कितनी हैं?

वर्तमान में आगम की पाँच शाखाएँ हैं और इन्हीं को पंचदेवता कहते हैं। ये पाँच देवता हैं- सूर्य, गणेश, विष्णु, दुर्ग एवं शिव। मिथिला में अग्नि उपासना परम्परा भी जीवित है इसलिए मिथिला के लोग पंचदेवता में सूर्य, गणेश, अग्नि, दुर्गा एवं शिव को मानते हैं और विष्णु की पूजा अलग से स्वतंत्र रूप में होती है। दक्षिण भारत में इनके अतिरिक्त स्कन्द यानी कार्तिकेय की शाखा भी जीवित है। मगध में सूर्य की शाखा प्रधान है तो मिथिला में शिव एवं दुर्गा की शाखा है। दुर्गासप्तशती के दूसरे अध्याय के अनुसार दुर्गा को चूँकि सभी शक्तियों का सम्मिलित रूप माना गया है अतः शक्ति-उपासना की शाखा के लिए दुर्गा को प्रतिनिधि माना गया है।

क्या है मिथिला की विशेषता?

मिथिला में सभी देवताओं को एक समान मान्यता दी गयी है, वहाँ कोई भेद-भाव नहीं है। यहाँ के लोगों के एक इष्ट देवता होते हैं जिसका मन्त्र वे ग्रहण करते हैं, उनकी सांगोपांग पूजा करते हैं औऱ अन्य सभी देवताओं के प्रति समान आदर भाव रखते हैं। साथ ही उन सभी देवताओं को मानने वाले के प्रति भी समानता का भाव रखते हैं। यहाँ धार्मिक मान्यता के आधार पर ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है।

वर्तमान में षड्यंत्र क्या है?

आजकल अपवाह उड़ा दिया गया है कि आगम-पद्धति की पूजा तांत्रिक-विधि है। दोनों को एक मानकर     साथ ही तांत्रिक पूजा का नाम लेते समय भी नाक-भौंह सिकोड़ लेते हैं। उसे घृणा की दृष्टि से देखते हुए इसमें जादू-टोना, बलि आदि होने की बात कहकर पूरी आगम-विधि को आसामाजिक बना दिया गया है, और वास्तविक आगम-विधि को वैदिक-पद्धति का नाम दे दिया गया है।

आगम-पद्धति एवं तान्त्रिक-पद्धति

वास्तव में एक ही विधि के ये दोनों नाम हैं। चारों वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद हमारे सांसारिक ञषियों तथा मुनियों के द्वारा की गयी सभी रचनाएँ आगम हैं या वेदों का विस्तार होने के कारण तन्त्र है। तन्त्र शब्द का अर्थ है- प्रसारित यानी फैली हुई वस्तु तो हम तन्त्र कहते हैं। जो फैला हुआ है, सबके लिए पाना आसान है, वह है- तन्त्र। इसके पीछे भी वहीं तर्क है कि से पाने के लिए संस्कृत भाषा तथा वेद के मन्त्रों के विशेष अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। जब हम देवता को अपने उपभोग की सामग्री अर्पित करते हैं तो उसे तन्त्र की पद्धति कहते हैं। विष्णु की भी पूजा तन्त्र की पद्धति से होती है। अभीतक 32 ग्रन्थ मिले हैं जिनमें विष्णु की तांत्रिक पूजा होती है। पांचरात्र, वैखानस आदि शाखाएँ इनसे संबंधित हैं। ऊपर हमने आगम की जितनी शाखाओं की चर्चा की है सबकी पूजा आगम में या तन्त्र में वर्णित हैं।

क्या है वास्तविक वैदिक-विधि?

वास्तविक वैदिक पूजा है- हवन की विधि। हम देवताओं के नाम से अग्नि में आहुति देते हैं और उनतक पहुँचाते है। इस विधि में अग्नि, अग्निकुण्ड, स्रुवा, घृत, हविष्य-सामग्री, प्रोक्षिणी-पात्र, प्रणीतापात्र, ब्रह्मवरण, ब्रह्मा का पूर्णपात्र, आज्यस्थाली आदि सामग्रियों की आवश्यकता होती है। इस विधि में वेद के मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण करने वाले योग्य वैदिक आचार्य होते हैं, अध्वर्यु और होता रहते हैं। सीधे तौर पर वेदों में यज्ञ को छोड़कर और कोई दूसरी विधि नहीं है, अतः होम, हवन और यज्ञ के अतिरिक्त कुछ भी वैदिक-विधि नहीं है। यहाँ तक कि रुद्राभिषेक भलें हम वैदिक मन्त्रों से करते हैं पर उसका प्रयोग हमें आगम के ग्रन्थों या पुराणों में मिलता है। वैदिक ग्रन्थों में रुद्रयाग का उल्लेख हुआ है।

इस प्रकार, सच्चाई को जानने के बाद स्पष्ट है कि वर्तमान में आगम की पूजा विधि में जहाँ पुराणों के मन्त्र होने चाहिए वहाँ वेद के मन्त्र जबरन ठूँस दिए गये हैं और उसे वैदिक विधि के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है। यह अधिक से अधिक 200 साल पुरानी पद्धति है। उससे पहले मूर्ति पूजा या आवाहित पूजा में वैदिक मन्त्र नहीं थे।

इसका परिणाम हुआ कि वैदिक पुरोहितों का कब्जा आगम-पद्धति पर हो गया। जो समाज के सभी लोगों के लिए था वह सीमित लोगों के लिए हो गया। सत्यनारायण पूजा में भी ब्राह्मण आचार्य बनने लगे हैं। वामपंथियों ने इसी स्थिति का फायदा उठाया और ब्राह्मणवाद-जैसे शब्द बनाकर पूरी सनातन परम्परा पर इसका ठीकड़ा फोड़ दिया।

मिथिला ने इस षड्यंत्र को नहीं अपनाया। यहाँ आज भी आगम-विधि की पूजा में वैदिक मन्त्रों का व्यवहार नहीं होता है, हवन नहीं होता है। यानी वैदिक विधि और आगम की विधि में घालमेल मिथिला में नहीं हुआ है। यहाँ विवाह, उपनयन, श्राद्ध वैदिक विधि से होते हैं अतः एक दिन पहले बाल कटाकर, एकभुक्त कर विशुद्ध विधि से ये कार्य सम्पन्न होते हैं। इसलिए विवाह में वर को भी बाल कटाने की परम्परा यहाँ जीवित है। यहाँ आगम की पूजा उसकी अपनी विधि से होती है, उसमें वेद के मन्त्र ठूँसे नहीं गये हैं, सभी पौराणिक मन्त्र होते हैं। शूद्र भी यहाँ सत्यनारायण की पूजा में पुरोहित बन सकते हैं, कोई रोक-नहीं है।

आगम-विधि को कट्टर ब्राह्मणों ने बदनाम किया, वेद-वेद चिल्लाने वाले आर्यसमाजियों ने बदनाम किया। मिथिला के पण्डित कट्टर ब्राह्मणवाद के सामने नहीं झुके तो वे भी मिथिला से चिढ़ने लगे और इसे बलि देने वाली भूमि के रूप में बदनाम करने लगे। इधर आर्यसमाजियों ने देखा कि मिथिला के लोग सनातन की उदात्त धारा से झुकने वाले लोग नहीं हैं तो मांस-भक्षण के नाम पर गाली-गलौज पर उतर आये हैं। मिथिला झुक नहीं रही है इसलिए लोग आज भी बाहर के धर्मपरिवर्तित लोग मिथिला से चिढ़ रहे हैं।

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