अनेक पाठकों के अनुरोध पर मैंने ‘धर्मायण’ के स्थायी-स्तम्भ के अन्तर्गत संस्कृत भाषा सीखने के लिए कुछ पाठों का क्रमशः प्रकाशन अंक संख्या 86 से किया था। उद्देश्य यह था कि ऐसे व्यक्ति जो हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के अच्छे जानकार हैं, संस्कृत सीखने की अभिरुचि रखते हैं, जिससे वे पुराणों तथा अन्य संस्कृत-ग्रन्थों की भाषा को समझ सके, विना अनुवाद के भी मूल पढ़कर उनका अर्थ लगा सकें।

ऐसे जिज्ञासुओं के लिए उन्हीं पाठों को यहाँ आरम्भ से पाठ प्रकाशित किये जा रहे हैं। इनमें तत्काल जो पाठ दिये जाते हैं, उन्हें कंठस्थ करते चलें। कुछ ही दिनों में स्वयं अपना रास्ता बना लेने में सक्षम होते जायंगे।

संस्कृत का वाक्य-विन्यास

संस्कृत में बनावट की दृष्टि से शब्द (पद) दो प्रकार के होते हैं- सुबन्त (सुप्+अन्त) एवं तिङन्त (तिङ्+अन्त)। तिङ्न्त शब्द क्रियापद होते हैं तथा उनसे भिन्न सभी शब्द सुबन्त कहलाते हैं। सर्वप्रथम हम सुबन्त शब्दों को जानने का यत्न करेंगे। सुबन्त शब्दों में दो भाग होते हैं प्रातिपदिक (मूलशब्द) एवं सुप् प्रत्यय। इन्हें विस्तार से जानने से पहले हमें कुछ शब्दों के रूप कण्ठस्थ करने पड़ेंगे।

शब्दरूप

शब्दरूपों को कण्ठस्थ करने के क्रम में पहली समस्या आती है कि कम से कम किन-किन शब्दों का रूप हमें अभ्यास कर लेना होगा, जिससे हम अधिक से अधिक शब्दों के रूप समानता के आधार पर जान सकें। हमें जानना चाहिए कि शब्दों के रूप निम्नलिखित बातों पर निर्भर करते हैं।

1. वह संज्ञा शब्द है या सर्वनाम।

2. शब्द का अन्तिम वर्ण क्या है।

3. शब्द किस लिङ्ग में है।

इस प्रकार, अकारान्त पुल्लिङ्ग संज्ञा शब्द जितने हैं, सबके रूप एक समान होंगे। अत: यदि हम एक ‘राम’ शब्द का रूप अभ्यास कर लेते हैं, तो बालक, देश, छात्र, हिमालय आदि एक प्रकार के सभी रूप स्वतः कण्ठस्थ हो जायेंगे। हम यह भी जाने लें कि अधिकतम शब्द पुल्लिंग हैं। अधिकांश नपुंसक शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति में रूप बदलते हैं, वही रूप द्वितीया में भी रहती है। शेष पुल्लिंग के समान हो जाते हैं। अतः हम आँख मूँदकर यहाँ दिये गये 10 शब्दों के रूप सर्वप्रथम कंठस्थ कर लें।

शब्दरूप कण्ठस्थ करने की प्रचलित विधि-

वर्तमान में हिंदी माध्यम से लिखी गयी संस्कृत व्याकरण की पुस्तकों में तालिका पद्धति प्रचलित है। अर्थात् प्रत्येक शब्द के रूप तीन कॉलम में तथा सात-आठ राॅ में दिए जाते हैं। इनमें प्रत्येक शब्दरूप के साथ प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि तथा एकवचन, द्विवचन, बहुवचन का संकेत तालिका देकर लिखे रहते हैं। छात्र अभ्यास करते समय उस तालिका पर अधिक ध्यान देते हैं और शब्दरूप कण्ठस्थ नहीं हो पाता है। एक-दो बार पढते ही उन्हें प्रतीत होता कि अभ्यास हो गया, किन्तु समय पड़ने पर वे तालिका में ही उलझे रह जाते है, शब्दरूप स्मरण नहीं हो पाता है।

मैंने कई छात्रों को संस्कृत पढाने के क्रम में देखा कि वे शब्द रूप अभ्यास नहीं कर पाते हैं। और जो राम और लता शब्द का रूप अभ्यास कर लेते हैं वे आगे बढते चले जाते हैं।

यह तालिका विधि अंगरेजी शिक्षा के विकास के साथ-साथ प्रचलित हुई है। अंगरेजों के द्वारा जब यहाँ विद्यालय खोले गये तो उसमें पढ़ाने के लिए इस शैली में व्याकरण की पुस्तकें अंगरेजी में लिखी गयीं। बाद में भारतीय लेखक जब हिंदी में भी लिखने लगे तो उन्होंने भी वही शैली अपना ली। इस आधुनिक शैली में हमें प्रतीत होता है कि सीख गया हूँ पर आवश्यकता पड़ने पर सारी विद्या विस्मृत हो जाती है।

प्राचीन विधि की खोज (1880 ई. पहले की विधि)

अतः आज आवश्यकता है कि अंगरेजों द्वारा आधुनिक शिक्षा-पद्धति के व्यापक प्रचार-प्रसार यानी लगभग 1880 ई. से पूर्व जिस विधि से संस्कृत का अध्यापन होता था, विशेष रूप से बच्चों को प्रारम्भिक कक्षाओं में जो ग्रन्थ, जिस विधि से पढाये जाते थे, उस विधि को प्रचलित करना होगा।

आरम्भिक कक्षाओं में पढ़ाने की कुछ पाठ्यपुस्तकें तथा विधि पर कुछ हस्तलेख भी प्राप्त हुए हैं। प्रकाशित पुस्तकें भी मिली हैं, जिनमें संस्कृत भाषा सीखने के लिए अत्यन्त सरल विधि दी गयी है। ये छोटी-छोटी पुस्तकें महाराष्ट्र के विद्यालयों में पढ़ायी जाती थी। उस विधि से हम यहाँ क्रमशः संस्कृत भाषा के ज्ञान पर शृंखला आरम्भ कर रहे हैं। आशा है कि इससे जिज्ञासु लाभान्वित होंगे।

शब्दरूप कंठस्थ करने की प्राचीन विधि

शब्दरूप कण्ठस्थ करने के लिए प्राचीन पद्धति में शब्दों का चयन अति महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक व्याकरण के ग्रन्थों में इसते अधिक शब्दों के रूप लिख दिये गये हैं कि छात्रों के लिए वह बोझ बन जाता है। प्राचीन काल में शब्दों को कोटियों में बाँटकर अभ्यास कराया जाता था। इनमें पहली कोटि थी- पुंल्लिंग शब्द। इसके अंतर्गत दस ही शब्दों का चयन किया जाता था।

रामो हरिः करी भूभृद् भानुः कर्ता च चन्द्रमाः।

तस्थिवान् भगवानात्मा दशैते पुंसि नायकाः।।

अर्थात् राम, हरिन् (विष्णु), करिन् (हाथी), भूभृत् (राजा), भानुः (सूर्य), कर्ता(करनेवाला), चन्द्रमस्(चन्द्रमा), तस्थिवस् (खड़ा रहनेवाला), भगवान् (ईश्वर) एवं आत्मा (स्वयं, आत्मा) – ये दश शब्द पुल्लिंग शब्दों के नायक हैं। यदि इनके रूप हम कण्ठस्थ कर लेते हैं तो किसी भी पुल्लिंग संज्ञा शब्द में हमें कठिनाई नहीं होगी।

राम-

रामः रामौ रामाः। रामं रामौ रामान्। रामेण रामाभ्यां रामैः। रामाय रामाभ्यां रामेभ्यः। रामात् रामाभ्यां रामेभ्यः। रामस्य रामयोः रामाणाम्। रामे रामयोः रामेषु। हे राम हे रामौ हे रामाः।।

हरिन्-

हरिः हरी हरयः। हरिम् हरी हरीन्। हरिणा हरिभ्याम् हरिभिः। हरये हरिभ्याम् हरिभ्यः। हरेः हरिभ्याम् हरिभ्यः। हरेः हर्योः हरीणाम्। हरौ हर्योः हरिषु। हे हरे। हे हरी। हे हरयः।

करिन्-

करी करिणौ करिणः। करिणं करिणौ करिणः। करिणा करिभ्याम् करिभिः। करिणे करिभ्याम् करिभ्यः। करिणः करिभ्याम् करिभ्यः। करिणः करिणोः करिणाम्। करिणि करिणोः करिषु। हे करिन् हे करिणौ हे करिणः।।

भूभृत्-

भूभृत् भूभृतौ भूभृतः। भूभृतम् भूभृतौ भूभृतः। भूभृता भूभृद्भ्याम् भूभृद्भिः। भूभृते भूभृद्भ्याम् भूभृद्भ्यः। भूभृतः भूभृद्भ्याम् भूभृद्भ्यः। भूभृतः भूभृतोः भूभृताम्। भूभृति भूभृतोः भूभृत्सु। हे भूभृत् हे भूभृतौ हे भूभृतः।।

भानु-

भानुः भानू भानवः। भानुम् भानू भानून्। भानुना भानुभ्यां भानुभिः। भानवे भानुभ्यां भानुभ्यः। भानुनः भानुभ्यां भानुभ्यः। भानो: भान्वोः भानूनाम्। भानौ भान्वोः भानुषु। हे भानो हे भानू हे भानवः।।

कर्तृ-

कर्ता कर्तारौ कर्तारः। कर्तारं कर्तारौ कर्तॄन्। कर्त्रा कर्तृभ्यां कर्तृभिः। कर्त्रे कर्तृभ्यां कर्तृभ्यः। कर्तुः कर्तृभ्यां कर्तृभ्यः। कर्तुः कर्त्रोः कर्तॄणाम्। कर्तरि कर्त्रोः कर्तृसु। हे कर्ता हे कर्तारौ हे कर्तारः।।

चन्द्रमस्-

चन्द्रमाः चन्द्रमसौ चन्द्रमसः। चन्द्रमसं चन्द्रमसौ चन्द्रमसः। चन्द्रमसा चन्द्रमोभ्यां चन्द्रमोभिः। चन्द्रमसे चन्द्रमोभ्यां चन्द्रमोभ्यः। चन्द्रमसः चन्द्रमोभ्यां चन्द्रमोभ्यः। चन्द्रमसः चन्द्रमसोः चन्द्रमसाम्। चन्द्रमसि चन्द्रमसोः चन्द्रमस्सु। हे चन्द्रमः हे चन्द्रमसौ हे चन्द्रमसः।।

तस्थिवत्-

तस्थिवान् तस्थिवांसौ तस्थिवांसः। तस्थिवांसम् तस्थिवांसौ तस्थुषः। तस्थुषा तस्थिवद्भ्याम् तस्थिवद्भिः। तस्थुषे तस्थिवद्भ्याम् तस्थिवद्भ्यः। तस्थुषः तस्थिवद्भ्याम् तस्थिवद्भ्यः। तस्थुषः तस्थुषोः तस्थुषाम्। तस्थुषि तस्थुषोः तस्थिवत्सु। हे तस्थिवन् हे तस्थिवांसौ हे तस्थिवांसः ।

भगवत्-

भगवान् भगवन्तौ भगवन्तः। भगवन्तम् भगवन्तौ भगवतः। भगवता भगवद्भ्याम् भगवद्भिः। भगवते भगवद्भ्याम् भगवद्भ्यः। भगवतः भगवद्भ्याम् भगवद्भ्यः। भगवतः भगवतोः भगवताम्। भगवति भगवतोः भगवत्सु। हे भगवन् हे भगवन्तौ हे भगवन्तः।।

आत्मन्-

आत्मा आत्मानौ आत्मानः। आत्मानम् आत्मानो आत्मनः। आत्मना आत्मभ्याम् आत्मभिः। आत्मने आत्मभ्याम् आत्मभ्यः। आत्मनः आत्मभ्याम् आत्मभ्यः। आत्मनः आत्मना: आत्मनाम्। आत्मनि आत्मनोः आत्मसु। हे आत्मन् हे आत्मानौ हे आत्मानः।

किसी प्रकार की जिज्ञासा हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में लिखें।

इन दशों शब्दों का रूप विना कुछ विचारे कण्ठस्थ करें। कण्ठस्थ करने से पहले विभक्ति एवं वचन के विचार में उलझना व्यावहारिक नहीं होगा।

कल अगले आलेख में 10 स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप दिये जायेंगे। हमसे जुड़े रहें>>>

3 Comments

  1. महाशय प्रणाम
    कृपा करके मुझे ये बताएं कि श्री सत्यनारायण जी की पूजन मे शालिग्राम का आह्वान विसर्जन नहीं होता तो फिर पुस्तक में उनका आह्वान विसर्जन का मंत्र किसलिए दिया होता है

  2. सरवन अस्ति तथापि केवलम् त्रिशब्दरूपाणिआवश्र्यका:
    बालकम्, लता,फलम् च‌।

    1. सरलम् अस्ति संस्कृतम्।

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