जॉन मुइर की पुस्तक ‘मतपरीक्षा’ तथा दयानन्द के ‘सत्यार्थप्रकाश’ का ‘साइड इफैक्ट’

सन् 1868ई. की बात है। जॉन मुइर की पुस्तक ‘मतपरीक्षा’ का हिन्दी संस्करण प्रकाशित हुआ। फादर रुडॉल्फ ने इसे लुधियाना से प्रकाशित कराया। इसमें ‘मतपरीक्षा’ के दोनों भाग एक साथ प्रकाशित किये गये। इसका पहला भाग था, जिसमें भारतीय धार्मिक मतों के दोष निकाले गये थे तथा दूसरे भाग में ईसाई मत की स्थापना के लिए सारे यत्न किए गये। जॉन मुइर ने अपनी पूरी बुद्धि लगा दी थी।

इसमे जॉन मुइर ने एक सत्यार्थी नामक उपदेशक की कल्पना की है, जो अपने तर्कों से भारतीय मतों का खण्डन करता है, देवताओं की निन्दा करता है, पुराणों के वचनों में परस्पर विरोध दिखाकर उसकी हँसी उड़ाता है। विभिन्न प्रकार के मतों में परस्पर विरोध दिखाकर यीशु मत में एकरूपता सिद्ध करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य है।

इस सत्यार्थी के मुख से जो बातें जॉन मुइर ने कहलायी है, उसीकी विस्तृत व्याख्या हम ‘सत्यार्थप्रकाश’ में भी पाते हैं। अतः जॉन मुइर के इस ग्रंथ का प्रभाव दयानन्द के सत्यार्थ पर है।

यह पुस्तक A Sketch of the argument for Christianity and Against Hinduism, in Sanskrit Verse नाम से सबसे पहले अति संक्षिप्त रूप में 1839ई. में प्रकाशित की गयी। इस संस्करण में केवल 379 श्लोक हैं और पुस्तक के अंत में 13+19 श्लोक और छापे गये हैं। इसका पाँचवाँ अध्याय भारतीयशास्त्र विचार है। इसी में जॉन मुइर ने इस प्रकार लिखा है, जिससे भारत में प्रचलित धर्म का खण्डन किया जा सके।

इस संस्करण की भूमिका में भी उन्होंने जॉन मिल की पुस्तक ‘श्रीखृष्ठसंगीता’ की चर्चा की है। यह श्रीमद्भगवद्गीता के समानान्तर लिखा गया ग्रंथ है और ‘मतपरीक्षा’ ग्रन्थ के लेखन में इसी ‘श्रीखृष्टसंगीता’ ग्रंथ से प्रेरणा लेने की बात की है।

अतः यह स्पष्ट है कि जॉन मुइर ने भारतीय शास्त्रों के बारे में जो कुछ लिखा है, उनका एक ही उद्देश्य है- ईसाई धर्म का प्रचार। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जॉन मुइर की इसी नाम से पुस्तक 1840ई. में आयी, जिसमें श्लोकों का विस्तार किया गया। इसके पाँचवें अध्याय में उन्होंने भारतीय मतों का खण्डन कर ईसाई मत के प्रचार के लिए उपायों पर प्रकाश डाला है। 1840 ई. में लिखित यही वह स्थल है, जहाँसे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भारत की धार्मिक क्षति का इतिहास आरम्भ होता है। जॉन मुइर ने लिखा है-

गुरुरुवाच

आचारान् भारतीया याननुतिष्ठन्ति साम्प्रतम्।

न वेदार्थानुकूलास्ते बहुधा विकृतिस्त्वभूत्।। 349।।

गुरु ने आजकल भारत के लोग जिस आचार का पालन करते हैं वे वेद के अर्थ के अनुकूल नहीं हैं। वे अनेक रूपों में विकृत हो गये हैं।

न वेदतोऽर्चनां कोऽपि सम्यगाचरति द्विजः।

प्रायश्च नावगच्छन्ति तन्मतानि बुधा अपि ।।३५०।।

आजकल कोई ब्राह्मण वेद के अनुसार भलीभाँति अर्चना नहीं करते हैं। प्रायः विद्वान् भी वेद के मत को नहीं जानते हैं।

यथोक्तं प्राङ्मया शिष्य तथा धर्ममतादिषु।

विकारं क्रमशः प्राप्तान् विद्धि भारतवासिनः।। ३५१।

हे शिष्य, जैसा कि मैंने पहले कहा है कि धर्म और मतों में भारत के लोगों विकृत मानें।

तस्माच्चाधुनिका विप्राः पुराणोक्तमतानुगाः।

वेदत्यजः प्रतीयन्ते न तु वेदानुयायिनः।। ३५२।।

इसलिए आधुनिक ब्राह्मण पुराणों के मतों के अनुयायी हैं जो वेदों का परित्याग करनेवाले प्रतीत होते हैं; वे वेद के अनुयायी नहीं हैं।

धर्मस्याधुनिकस्यातः खण्डनं यश्चिकीर्षति।

किं खण्डनेन वेदानामस्ति तस्य प्रयोजनम्। ३५३।।

अतः वर्तमान में प्रचलित धर्म का खण्डन करने की इच्छा जो करते हैं, उन्हें वेद के मतों का खण्डन करने की आवश्यकता नहीं है।

सिद्धे पौराणिकानां हि मतानां खण्डने स्फुटे।

धर्मस्याधुनिकस्यापि खण्डनं सिध्यति ह्यलम् ।।३५4।।

पौराणिकों का मत यदि खण्डित हो जाता है तो आधुनिकों का मत भी खण्डित हो जायेगा जो कि पर्याप्त है।

भारत में ईसाई मत के प्रचार के लिए पौराणिक के मतों का खण्डन कर देना जॉन मुइर का अभीष्ट है। वे स्पष्ट कहते हैं कि यदि हम केवल पौराणिकों का मत खण्डित कर देते हैं तो वेद का खण्डन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, वह तो अपने आप खण्डित हो जायेगा; क्योंकि वह प्रचलित नहीं है। उसका ज्ञान विद्वानों को भी नहीं है।

जॉन मुइर के इस बात से स्पष्ट हो जाता है उसका उद्देश्य भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना था, जिसके लिए उसने पौराणिकों के मत का खण्डन कर देना ही पर्याप्त समझा।

सत्यार्थप्रकाश में भी जिस प्रकार पुराणों को धूर्तों तथा मूर्खों की रचना कही गयी है, उससे स्पष्ट होता है कि जॉन मुइर के द्वारा संकल्पित कार्यों के लिए दयानन्द भी सहायक बने। भलें वे इस बात को नहीं जानते हों, लेकिन पुराणों का खण्डन करने से एक प्रकार से उन्होंने जॉन मुइर की सहायता के लिए जमीन तैयार की थी।

आज भी, हम जब कभी वेद के नाम पर पुराणों और आगमों का खण्डन करते दिखाई देते हैं तो हमें उसके ‘साइट इफैक्ट’ को ध्यान रखना होगा।

मतपरीक्षा की इस मान्यता का खण्डन

  1. सन् 1839 में ही महाराष्ट्र के ज्योतिषी सुबाजी बापू ने सोमनाथ छद्म नाम से इस मतपरीक्षा का खण्डन किया था। उनका यह खण्डन ‘मतपरीक्षा शिक्षा’ के नाम से प्रकाशित हुआ।
  2. दूसरे खण्डन करने वाले भारतीय पण्डित थे बंगाल के हरचन्द्र तर्कपंचानन, जिन्होंने ‘मतपरीक्षोत्तर’ नाम से एक ग्रन्थ 1840 ई. में लिखा।
  3. इस मतपरीक्षोत्तर के प्रकाशन के बाद के.एम. बनर्जी K. M. Banerjea ने Strictures upon Hara Chandra Tarkapanchanan’s answer to Mr. Muir’s Matapariksha, and upon Baboo Kasinatha Bosu’s tract on Hinduism and Christianity Truth defended and error exposed [Kasinātha Basu], लिखा।
  4. खण्डन के बाद जॉन मुइर ने कलकत्ता से प्रकाशित क्रिस्चियन इंटेलिजेंसर में एक आलेख ‘On the Arguments by which the Alleged Eternity of the Vedas May be Refuted’ प्रकाशित किया, जिसमें उसने वेदों की अपौरुषेयता का खण्डन किया था। अपने इस मत को उसने मतपरीक्षा के 1840 के संस्करण में भी जोड़ा था।
  5. मतपरीक्षा के तीसरे खण्डन-कर्ता थे- बनारस के नीलकण्ठ गोरे। इन्होंने शास्त्रतत्त्वविनिर्णय के नाम से एक ग्रंथ की रचना की। यह 1844-45 में प्रकाशित हुआ।
  6. सन् 1852-54 के बीच ‘मतपरीक्षा’ के तीसरे संस्करण के प्रकाशन के बाद अज्ञात नाम से एक लेखक ने हिन्दी में इसका खण्डन किया जो धर्माधर्मपरीक्षापत्र में 1861 में प्रकाशित हुआ। इस पत्र में इसाई मिशनरी से जुड़े कतिपय अज्ञात नाम वाले अंग्रेजों तथा भारतीय पण्डितों के बीच पत्रोत्तर प्रकाशित होता रहा।
  7. बंगाल के एक वैष्णव ने जॉन मुइर को पाखण्डी कहा और बृहन्नारदीयपुराण का हवाला देते हुए कहा कि वैष्णवों का कर्तव्य है  इस प्रकार के विधर्मियों को प्राणदण्ड दिया जाये।

इस प्रकार स्पष्ट है कि ईसाइयों के इस षड्यंत्र का विरोध उन दिनों भी हुआ था। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब 1839-1861 तक इतनी बड़ी बात, इतना बड़ा शास्त्रार्थ हो गया तब भी दयानन्द सरस्वती ने पुराणों का न केवल खण्डन किया; बल्कि उन्हें धूर्तों तथा मूर्खों की रचना कहा।

19वीं शती में जब हम परतन्त्र थे, तब हमारी रीढ़ की हड्डी को तोड़ने के लिए यूरोपीयनों ने क्या क्या किया, कैसे हमारे शास्त्रों की खिल्ली उड़ायी गयी और हमें ईसाई बनाने का प्रयास किया गया इस विषय पर Richard Fox Young ने Resistant Hinduism Sankrit Sources Of Anti Christian Apolegetics In Early 19 Century India नामक पुस्तक लिखी है। यह वियना से 1981ई. में प्रकाशित हुई है। इसके अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि हमने परतंत्रता के काल में क्या-क्या खो दिया है और उसमें दयानन्द सरस्वती का क्या योगदान रहा है?

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