हनुमान चालीसा में ‘संकर सुवन केसरी नंदन’ पंक्ति में सुवन शब्द के अर्थ को लेकर भी भ्रान्तियाँ फैल रही है।
सुवन/सुअन शब्द का अर्थ होता है- पुत्र यानी बेटा।
तुलसीदासजी ने इस शब्द का प्रयोग कहाँ कहाँ किया है, यह देखना चाहिए
- संकर-सुवन भवानी नंदन (विनय-पत्रिका : पद संख्या 1)- यह गणेशजी के लिए कहा गया है। यहाँ शंकर के पुत्र के रूप में गणेशजी का उल्लेख हुआ है।
- केसरी-सुवन भुवनैक-भर्ता (विनय-पत्रिका : पद संख्या 9) यह हनुमानजी के लिए है, जहाँ उन्हें केसरी का पुत्र बहा गया है।
- जयति दासरथि समर समरथ सुमित्रा-सुवन सत्रुसूदन राम-भरत बन्धो (विनय-पत्रिका : पद संख्या 38)– यह पंक्ति शत्रुघ्न का वर्णन करता है, जिसमें उन्हें सुमित्रा का पुत्र कहा गया है।
- जयति सर्वांग सुंदर सुमित्रा-सुवन भुवन-विख्यात भरतानुगामी (विनय-पत्रिका : पद संख्या 40)– यहाँ भी शत्रुघ्न के लिए सुमित्रा का पुत्र अर्थ है।
- पवन-सुवन रिपुदवन भऱतलाल लखन दीन की (विनय-पत्रिका : पद संख्या 278) – यहाँ हनुमानजी को ‘पवन-सुवन’ कहा गया है, अतः स्पष्ट है तुलसीदासजी ने सुवन शब्द का प्रयोग पुत्र के अर्थ में किया है।
- सुमिरत दसरथ सुवन सब पूजहिं सब मन काम (दोहावली : दोहा संख्या 221) यहाँ ‘दसरथ सुवन’ से दशरथ के पुत्रों का उल्लेख अभीष्ट है।
- सीय सुमित्रा सुवन गति भऱत सनेह सुभाउ (दोहावली : दोहा संख्या 202)– यहाँ सुमित्रा सुवन से लक्ष्मणजी का उल्लेख है, जो सुमित्रा के पुत्र हैं।
- गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ (जानकीमंगल : दोहा संख्या 15) यहाँ विश्वामित्र के लिए गाधि सुवन शब्द व्यवहृत है। स्पष्ट है कि सुवन शब्द का अर्थ पुत्र है।
- भऱद्वाज आस्रम सब आये। देखन दसरथ सुअन सुहाए- (रामचरितमानस : अयोध्याकाण्ड, 108) यहाँ दसरथ-सुअन से राम तथा लक्ष्मण का अर्थ है।
- पुनि पुनि पूछति मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन संदेस सुनाऊ।। (रामचरितमानस : अयोध्याकाण्ड, 150) यहाँ दशरथ बार बार मंत्री सुमन्त्र से अपने प्रिय पुत्रों का संदेश सुनाने के लिए कहते हैं।
- कैकई सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।। (रामचरितमानस : अयोध्याकाण्ड, 181) यहाँ भी कैकई सुअन से भरत का अर्थ है।
- यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।। (रामचरितमानस : अयोध्याकाण्ड, 208)
इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसीदास ने सुवन/सुअन शब्द का प्रयोग केवल पुत्र के अर्थ में किया है।
संकर सुवन केसरी नंदन में स्पष्ट है कि हनुमानजी को भगवान् शंकर के स्वरूप वायु के पुत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवान् शंकर की अष्टमूर्तियों में उग्र के रूप में वे वायुमूर्ति हैं। अतः शिव तथा वायु में अभेद होने के कारण वायुपुत्र को शिवपुत्र कहा गया है।