होलाक पर्व का स्वरूप

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन और इसके अगले दिन एक दूसरे को रंग और अबीर लगाकर होली मनायी जाती है, जिसके सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रचलित कथा हिरण्यकशिपु के भक्त पुत्र प्रह्लाद को उसकी बुआ होलिका के द्वारा अग्नि में जलाने के प्रयास से सम्बन्धित है। लेकिन यदि हम वैदिक परम्परा को देखें तो हम वैदिक काल में भी होली का व्यापक स्वरूप पाते हैं। वेद की कठशाखा से सम्बन्धित काठक गृह्यसूत्र में इसे होलाक पर्व कहा गया है। “राकाहोलाके (73.1)” इस सूत्र की व्याख्या में टीकाकार देवपाल ने लिखा है कि स्त्रियाँ अपने सौभाग्य की वृद्धि के लिए प्रातःकाल में अपने घर के सामने अग्नि जलाती थी। उन्होंने लिखा  है कि इस पर्व के देवता चन्द्रमा हैं, इसलिए पूर्णिमा के दिन यह मनाया जाता था।

इसी होलाक पर्व का उल्लेख जैमिनि के मीमांसा सूत्र में भी मिलता है। वहाँ पहले अध्याय के तीसरे पाद के 15वें से 23वें सूत्र तक होलाकाधिकरण के नाम से एक खण्ड है, जिसमें होलाक पर्व को गृहस्थों के द्वारा मनाया जानेवाला एक अनुष्ठान माना गया है और इससे घर की स्त्रियों के सौभाग्य में वृद्धि की बात कही गयी है। यहाँ भी रंग, अबीर से खेलने की कोई चर्चा नहीं है। केवल घर के सामने अग्नि जलाकर अग्नि की पूजा का विधान किया गया है।

लेकिन वात्स्यायन कामसूत्र (1.4.42)  में इस होलाक पर्व का लौकिक रूप हमें देखने को मिलता है, जहाँ इसे सामाजिक स्तर पर मनाये जाने का उल्लेख हुआ है। इसे क्रीडा अर्थात् खेल कहा गया है। इसके जयमङ्गला नामक व्याख्या लिखनेवाले यशोधर इस होलाक क्रीडा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि “होलाका फाल्गुनपूर्णिमायां शृंगादिमुक्तेन किंशुकादिकुसुमरागाम्भसा परस्परोक्षणम्।“ यानी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन शृंगी आदि के समान यन्त्र से (पिचकारी की तरह ) पलाश आदि रंगीन फूल से बने रंग वाले जल को एक दूसरे पर फेंकने की क्रीडा होलाक पर्व में होती है। इस कामसूत्र की रचना ईसा की तीसरी शती मानी जाती है। इस समय भी लोग रंग से होली खेलते थे।

इस प्रकार लगभग 1700 वर्षों से होली का यही रूप आजतक चला आ रहा है। वैदिक काल से अग्नि जलाने की परम्परा होलिका दहन के रूप में सुरक्षित रही और उसी पूर्णिमा के दिन रंग से होली का खेल भी परम्परा में बना रहा।

पूर्णिमा के दिन ही होली का रंग

विगत साठ-सत्तर वर्ष पहले तक होली पूर्णिमा के दिन ही मनायी जाती थी और उसके अगले दिन होलिका दहन की राख और मिट्टी से खेल होता था। अब हेलिका दहन के अगले दिन यानी चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को रंग और अबीर की होली होने लगी है।

होलिका और प्रह्लाद की कथा बाद में चली है

ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में जब वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ तो होलिका दहन के समबन्ध में विष्णुभक्त प्रह्लाद की कथा जुड़ गयी, होलिका नामक एक महिला की कथा आयी और वैदिक काल से चले आ रहे होलाक पर्व को नृसिंहावतार से जोड़ दिया गया।

प्राचीन भारत में ऐसे बनते थे रंग

प्राचीन काल की होली में रंगों के निर्माण की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण है। पलाश या इसी के समान लाल रंगवाले के फूल को कूटकर यदि पानी में घोलकर छान लिया जाता है तो वह रंगीन हो जाता है। सूचना मिली है कि आसाम में आज भी जनजातियों में इसी रंग का प्रयोग होता है। यह विशुद्ध वानस्पतिक रंग है। इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा। हमें चाहिए कि हम रासायनिक रंगों का त्याग कर अपनी पुरानी परम्परा की ओर लौट चलें।

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