सरस्वती का वर्णन वेदों में भी विद्या की देवी के रूप में

वैदिक साहित्य में सरस्वती
अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि वैदिक साहित्य में सरस्वती का उल्लेख केवल नदी के रूप में है; ज्ञान की देवी के रूप में नहीं।
इसका खण्डन करते हुए यहाँ दिखाया गया है कि सरस्वती वाणी की देवी के रूप में वैदिक साहित्य में भी वर्णित हैं। वहाँ उनकी उपासना करने का विधान किया गया है। साथ ही, सरस्वती की उपासना बौद्ध एवं जैन मैं भी प्राचीन काल से होती रही है।)
सनातन धर्म में विद्या की देवी के रूप में सरस्वती की पूजा प्राचीन काल से प्रचलित है।
यद्यपि वैदिक वाङ्मय में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह एक नदी है। वह जल-देवता के रूप में प्रसिद्ध है। ऋग्वैदिक ऋषि कवष ऐलूष की कथा के प्रसंग में सरस्वती की चर्चा है, किन्तु वहाँ उसे जल-देवता का एक रूप माना गया है।
अलबत्ता, ऋग्वेद के वाक्-विषयक मन्त्रों में वाक् को देवी माना गया है, किन्तु वहाँ उन्हें पुस्तक और वीणा धारण करनेवाली नहीं माना कहा है।
निरुक्त सरस्वती शब्द का निर्वचन
वैदिक शब्द-कोष निरुक्त में यास्क ने सरस्वती शब्द को नदी-वाचक और वाग्देवता वाचक दोनों माना है। ‘वाक् के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का निर्वचन आरम्भ करते हुए यास्क कहते हैं वाक् शब्द का निर्वचन ‘वच् धातु से बोलने के अर्थ में होता है। यहाँ ‘सरस्वती शब्द नदी के रूप में और देवता के रूप में दोनों प्रकार से वैदिक मन्त्रों में प्रयुक्त है। (-निरुक्त: 2.7) इस प्रकार, यास्क ने भी सरस्वती को वाक् से सम्बद्ध वैदिक देवी माना है।
तैत्तिरीय-संहिता में सरस्वती की कथा
वाक् के साथ वीणा के सम्बन्ध की एक सुन्दर कथा तैत्तिरीय-संहिता में है। एक बार वाक् देवताओं से दूर होकर वनस्पतियों में प्रविष्ट हो गयी। वही वाक् वनस्पतियों में बोलती है, दुन्दुभि, तुणव और वीणा में भी बोलती है। अतः दीक्षित यजमान को वाणी पर नियन्त्रण रखने के लिए दण्ड (लाठी) थमाया जाता है (6.1.4)।
इसी संहिता में राजसूय-प्रकरण में सरस्वत् और सत्यवाक् को समानाधिकरण के द्वारा अभिन्न मानते हुए उन्हें चरु समर्पित करने का निधान किया गया है (1.8.18)। इस प्रकार, हम देखते हैं कि वैदिक काल में भी वाणी, जिह्वा, संगीत आदि से सम्बद्ध देवता के रूप में वाग्देवी सरस्वती स्थापित हो चुकी थी।
पंचविंश ब्राह्मण में सरस्वती
पंचविंश ब्राह्मण में मन्त्र को सरस्वती के रूप में प्रतिष्ठा दी गयी है। साथ ही, यज्ञ में इस वाक् को भी आहुति देने का विधान किया गया है। कथा इस प्रकार है- एक बार वाग्देवी देवताओं से दूर चली गयी। देवताओं ने जब उन्हें पुकारा तब वाग्देवी ने कहा कि मुझे तो यज्ञ में भाग नहीं मिलता। तब मैं क्यों आपके साथ रहूँगी। देवों ने वाक् से पूछा कि आपको हममें से कौन भाग देंगे। वाक् ने कहा कि उद्गाता हमें भाग देंगे। अतः उद्गाता वाग्देवी को उद्दिष्ट कर हवन करते हैं (6.7.7)। यहाँ स्पष्ट रूप से वाग्देवी सरस्वती का उल्लेख हुआ है। इसी ब्राह्मण में वाग्वै सरस्वती (16.5.16) भी कहा गया है।
शतपथब्राह्मण में सरस्वती
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ से पुरुष की उत्पत्ति के सन्दर्भ में उस पुरुष के अवयवों का वर्णन करते हुए वाक् को सरस्वती कहा गया है- मन एवेन्द्रो वाक् सरस्वती श्रोत्रे अश्विनौ (13.9.1.13)। इसी स्थल पर चिह्वा को सरस्वती माना गया है- प्राण एवेन्द्रः जिह्वा सरस्वती नासिके अश्विनौ (12.9.1.1)
बौधायन-गृह्यसूत्र में सरस्वती
बौधायन-गृह्यसूत्र में भी देवी सरस्वती की पूजा का विधान किया गया है। यहाँ विद्यारम्भ के पहले सरस्वती-पूजा करने का उपदेश किया गया है। यहाँ उन्हें वाग्देवी, गीर्देवी, सरस्वती तथा ब्राह्मी कहा गया है। प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि को उपासना का दिन माना गया। प्रत्येक मास में विद्याकांक्षी लोगों के द्वारा इनकी अर्चना करने का विधान किया गया है। (बौधायन गृह्यसूत्र- 3.6)
सरस्वती-रहस्योपनिषत्
108 उपनिषदों में सरस्वती से सम्बद्ध उपनिषद् भी उपलब्ध है। इसका उल्लेख मुक्तिकोपनिषद् में कृष्ण-यजुर्वेद से सम्बद्ध 32 उपनिषदों के साथ किया गया है। इस सरस्वतीरहस्योपनिषद् में देवी सरस्वती को ब्रह्म की शक्ति तथा चारों वेदों का एक मात्र प्रतिपाद्य माना गया है। (मन्त्र सं. 2)
इस प्रकार वैदिक काल में भी विद्या की प्राप्ति के लिए सरस्वती की उपासना की जाती रही है।
बौद्ध-परम्परा में सरस्वती
बौद्धधर्म की महायान शाखा में सरस्वती, आर्यतारा एवं भारती को अभिन्न मानते हुए उनकी उपासना की जाती रही है।
श्रावस्ती के सहेत-महेत से प्राप्त 1219-20 ई. का एक बौद्ध शिलालेख में एक ही श्लोक में तारा और भारती (सरस्वती) की स्तुति की गयी है-
संसाराम्भोधिताराय तारामुत्तरलोचनाम्।
वन्दे गीर्वाणवाणीनां भारतीमधिदेवताम्।।
जैन-परम्परा में सरस्वती
जैन धर्म में भी सरस्वती को भगवान् महावीर की वाणी से तुलना की गयी है।जैन सरस्वती के चार हाथों में कमल, माला, पुस्तक एवं कमण्डलु हैं। जैन विद्वानों ने शास्त्रों की रचना करते समय आरम्भ में सरस्वती, शारदा, वाग्देवी एवं ब्राह्मी आदि नामों से सरस्वती की स्तुति की है।
इस प्रकार वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों धर्मशाखाओं में सरस्वती की उपासना मुखर है।
कालिदास द्वारा सरस्वती की उपासना
महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध नाटक मालविकाग्निमित्रम् में सरस्वती को संगीत एवं नृत्यकला की देवी के रूप में प्रतिष्ठा मिली है। नृत्यकला के आचार्य अपनी नाटकमण्डली के साथ देवी सरस्वती की उपासना करते थे; उन्हें लड्डू प्रसाद के रूप में चढाते थे। इस नाटक के पहले अंक में विदूषक उपहास करता हुए आचार्य गणदास से कहता है कि; जब आप सरस्वती को चढाया हुआ लड्डू प्रसाद के रूप में पा ही रहे हैं तो फिर लड़ाई-झगड़ा क्यों करते हैं।
यहाँ व्यंग्य के द्वारा सरस्वती की कृपा से वेतन पाने का उल्लेख हुआ है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ सरस्वती एक नदी के रूप में नहीं; बल्कि विद्या और कला की देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
इसी सन्दर्भ में अभिज्ञानशाकुन्तलम् के भरत-वाक्य की पंक्ति- “सरस्वती श्रुतिमहती महीयताम्” का भी अर्थ लगाया जाना चाहिए। यहाँ कालिदास का कथन है कि जिस सरस्वती की महिमा वेद में गायी गयी है, वह विद्या की देवी पूरे राष्ट्र में महत्ता को प्राप्त करें।