शेखपुरा के पचना गाँव की पहाड़ी से मिली तारा की मूर्ति
अभिलेख युक्त तारा की मूर्ति

बिहार के शेखपुरा जिला में अवस्थित पचना गाँव में पहाड़ी पर सफाई करने के क्रम में बौद्धदेवी वज्रतारा की प्रतिमा मिली। इस प्रतिमा की खोज एवं पहचान हेरिटेज सोसायटी के पुरातत्व अन्वेषक एवं उत्खनन विभाग के निदेशक डा. अनंताशुतोष द्विवेदी ने की। उन्होंने बतलाया कि यह मूर्ति बौद्ध धर्म की तारा है तथा उन्होंने इसका कालक्रम बारहवीं शती बतलाते हुए प्रतिमा पर गहन शोध किये जाने की आवश्यकता बतलायी।

काले पत्थर की इस मूर्ति के पादपीठ पर एक पंक्ति का एक अभिलेख है। इस अभिलेख को महावीर मन्दिर पत्रिका “धर्मायण” के सम्पादक तथा लिपि एवं पाण्डुलिपि के ज्ञाता पं. भवनाथ झा ने पढा। उऩके अनुसार इस पर देवधर्म्मोयं दानयति कायस्थिनी जलपाकायाः यह लिखा है। इसका अर्थ है कि यह दवता को अर्पित है और यह अर्पण कायस्थ जाति की एक महिला जिसका नाम जलपाका है, उसने दिया है। इस प्रकार इस मूर्ति की स्थापना कराने वाली महिला का नाम जलपाका है, जो कायस्थ यानी लेखा विभाग के कर्मचारी की पत्नी है।

इस शिलालेख की लिपि में विशेषता है कि एकार की मात्रा, त, स ये वर्ण बंगला एवं मिथिलाक्षर के समान है। किन्तु पं. झा के अनुसार चूँकि यह लिपि वर्तुल आकार में है, इसमें कहीं भी न्यूनकोणिकता नहीं है, अतः इसे बंगला या मिथिलाक्षर परिवार का मानना उचित नहीं होगा। पीछे से एकार लगाने की प्रवृत्ति गहड़वाल राजाओं के नागरी अभिलेखों में प्रचुर रूप से हम देखते हैं। अतः इसे 12वीं शती का नागरी लिपि मानना अधिक उपयुक्त होगा।

प्रभात खबर, पटना संस्करण, 25-05-2020

अभिलेख की भाषा संस्कृत है। इसमें यजमान का नाम जलपाका है, जिसके षष्ठी एकवचन में जलपाकायाः का उल्लेख यहाँ है। इस जलपाका को कायस्थिनी कहा गया है, यानी वह लेखा विभाग के किसी कर्मचारी की पत्नी है।

साथ ही दानयति शब्द का भी व्यवहार हुआ है, जो विवेचना की दृष्ठि से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ दान् दातु से ऋजुता के अर्थ में सनन्न्त प्रयोग में दानयति शब्द की सिद्धि होती. इसका अर्थ है- व्रत की कठोरता को तोड़ना। व्रत के नियमों को शिथिल करना। इस प्रकार शब्द का अर्थ है कि कायस्थिनी जलपाका ने जो पहले संकल्प लिया था, उसे वह तोड़ रही है। “व्रत तोड़ना” शब्द प्रचलित है, जिसके लिए यहाँ “दानयति” शब्द का व्यवहार हुआ है। पंक्ति का भाव अक्षयनीवी के रूप में देवता को अर्पित करने का ही है।

इस “दानयति” के स्थान पर “दानपति” भी पढा जा सकता है। इस दानपति का सीधा अर्थ है, बहुत सारी वस्तुएँ दान करनेवाला। इस प्रकार वह कायस्थिनी यानी लेखा-विभाग के कर्मचारी की पत्नी ही यहाँ दान करनेवाली है।

प्राचीन काल में जब लोगों की मन्नतें पूरी होती थी, तो वे पत्थर की मूर्ति बनबाकर उस पर अपना नाम खुदबाकर मन्दिर में विधानपूर्वक पूजा करते थे तथा उस मन्दिर में ही उसे रख देते थे। प्रतिदिन उस मूर्ति की पूजा के नाम पर अक्षयनीवी सोना या भूमि के रूप में दान कर देते थे। मन्दिर के पुजारी जो दान ग्रह्ण करते थे, उनकी जिम्मेदारी होती थी कि वे विधानपूर्वक प्रतिदिन पूजा करें। इसी प्रकार के दान को “देयधर्म” या “देवधर्म” कहा गया है।

दैनिक जागरण, पटना संस्करण, 25-05-2020

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