मिथिलाक्षर के विकास के लिए सरकारी स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता

इतिहास-
मिथिलाक्षर अथवा तिरहुता बृहत्तर सांस्कृतिक मिथिला क्षेत्र की लिपि है। इसका प्राचीन नाम हम पूर्ववैदेह लिपि के रूप में ललितविस्तर में पाते हैं। ऊष्णीषविजयधारिणी नामक ग्रन्थ की 609 ई. की एक पाण्डुलिपि में जिस सिद्ध-मातृका लिपि की सम्पूर्ण वर्णमाला दी गयी है, उस लिपि से लिच्छिवि गणराज्य से पूर्व की ओर एक न्यूनकोणीय लिपि का विकास हुआ है, जिस परिवार में वर्तमान काल में मिथिलाक्षर, बंगला, असमिया, नेबारी, उड़िया, एवं तिब्बती लिपियाँ है। इस प्रकार यह अत्यन्त प्राचीन एवं पूर्वोत्तर भारतीय बृहत्तर परिवार की लिपि है।

भविष्य के लिए आवश्यकताएँ
ईसा की 10वीं शती में मिथिलाक्षर वर्तमान स्वरूप में आ चुका है। इसका प्राचीनतम स्वरूप हम अभी तक प्राप्त शिलालेखों में 950 ई. के आसपास के सहोदरा शिलालेख में पाते हैं। इसके बाद से चम्पारण से देवघर तक सम्पूर्ण मिथिला में इस लिपि का प्रयोग होता रहा है।
एक अनुमान के अनुसार मिथिलाक्षर में संस्कृत. मैथिली, हिन्दी एवं प्राकृत इत्यादि भाषाओं के तथा विभिन्न शास्त्रों की लगभग 50,000 पाण्डुलिपियाँ इस लिपि में ज्ञात हैं। ये मिथिला क्षेत्र के साथ साथ भारत के विभिन्न शहरों, जैसे जयपुर, कोलकाता, मुंबई में तथा एवं विदेशों में भी उपलब्ध हैं।
विगत 100 वर्षों से मिथिलाक्षर लिपि का प्रयोग घटता गया है। इसकेकारण हमारी संस्कृति नष्ट हो रही है। मैथिली भाषा की अपनी लिपि का प्रयोग न होने के कारण संविधान के द्वारा मान्यता प्राप्त होने के बावजूद मैथिली भाषा का सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है।
इसके अतिरिक्त, न्याय, मीमांसा, वैशेषिक आदि जिन शास्त्रों के कारण मिथिला के साथ साथ सम्पूर्ण बिहार एवं भारत देश विश्व भर में गर्वोन्नत हैं, उन शास्त्रों की मिथिलाक्षर में लिखित अप्रकाशित पाण्डुलिपियों को पढनेवाले गिने-चुने लोग ही रह गये हैं। फलस्वरूप ज्ञान का वह भण्डार अन्धकार में पडा हुआ है। अतः इस लिपि के संरक्षण एवं संवर्द्धन की नितान्त आवश्यकता है।
व्यक्तिगत संग्रह में मिथिलाक्षर की जो पाण्डुलिपियाँ