राजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर जिस मन्दिर का निर्माण किया, उसमें भगवान् की मूर्ति कैसी थी?
विध्वंसकों ने मन्दिर तोड़ डाला, मूर्तियाँ खण्डित कर दीं। पर कैसी थी यह मूर्ति इसका यदि कोई प्रमाण मिल जाये, तो निश्चित रूप से उसी मुद्रा में मूर्ति की स्थापना करना सबसे महान् कार्य होगा।
इस विषय पर हमें दो प्रकार के प्रमाण मिलते हैं। पहला तो रामनवमी के दिन भगवान् का जो ध्यान किया जाता है, उसमें सभी स्थानों पर माता कौशल्या की गोद में बैठे श्रीराम का ध्यान होता है। अगस्त्य संहिता भी यहीं कहती है कि प्रभु श्रीराम नीलम पत्थर के समान आभा लिये हुए हैं तथा माता कौशल्या की गोद में बैठे हैं। रामनवमी के दिन इसी रूप का ध्यान किया जाता है।
इतना ही नहीं, रुद्रयामलसारोद्धार में भी वर्णन आया है कि जब एकबार मिथिला के एक राजा अयोध्या तीर्थाटन के लिए गये तो उन्होंने नीलकमल के समान आभा वाले श्रीराम को माता की गोद में बैठे हुए देखा। वहाँ जन्मभूमि पर विधानपूर्वक प्रणाम कर सोने की छोटी घंटियाँ चढायीं। यहाँ सोने की छोटी घंटी जन्मभूमि मन्दिर में चढाने का माहात्म्य दिया गया है कि उस व्यक्ति के कुल का कभी विनाशष नहीं होता। उसके घर की स्त्रियाँ विधवा नहीं होतीं हैं और बहुएँ उसी प्रकार शोभा पातीं हैं, जिस प्रकार श्रीराम को गोद में लेकर बैठी हुई माता कौशल्या शोभित हो रहीं हैं। राजा ने उस मन्दिर में अखण्डदीप जलाये।
अयोध्यायां सरित्तीरे स्वर्गद्वारे नराधिपः।।45।।
विप्रेभ्यो दक्षिणां दत्वा गत्वा रामालयं प्रति।
निलीनं जननीक्रोडे नीलाम्बुजसमप्रभम्।।46।।
प्रणम्य राघवन्तत्र जन्मभूमौ विधानतः।
कृत्वा प्रदक्षिणं सम्यक् स्थापयामास मन्दिरे।।47।।
किङ्किणीं हाटकमयीं शिंजितां चपलां शुभाम्।
यदि रामालये कश्चिद् दद्यात् स्वर्णघण्टिकाम्।।48।।
न तत्कुलविनाशः स्यात् सर्वे स्युः पुत्रपौत्रिणः।
न काचिद्विधवा नारी तस्य वंशे भविष्यति।।49।।
स्वाङ्के निधाय तनयं कौशल्येव राघवम्।
मोदते तद्गृहे नारी सर्वाभरणभूषिता।।50।।
घृतदीपं प्रतिष्ठाप्य राजा तत्र प्रणम्य च।
यह एक प्रामाणिक उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि जन्मभूमि पर प्राचीन काल में माता कौसल्या की गोद में बैठे श्रीराम की मूर्ति वहाँ थी। आज भी यदि वैसी ही मूर्तियाँ लगे तो श्रीराम जन्मभूमि अपनी खोयी हुई गरिमा को पा जाये।