प्रस्तावना

हम उस महान् देश के वासी हैं, जहाँ प्राचीन काल से ‘न्याय’ के लिए विभिन्न आचार्यों ने गहन चिन्तन किया है। ‘नि’ उपसर्ग-पूर्वक ‘इण्’ गतौ धातु से ‘घञ् प्रत्यय लगने पर ‘न्याय’ शब्द बनता है। न्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तुतत्त्व का ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं। निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्यायः। न्यायकुसुमांजलि में भी ‘न्याय’ शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा गया कि जिससे विवक्षित अर्थ का, सत्य का, ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं- नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्यायः। पारिभाषिक ‘न्याय’ की परिभाषा देते हुए न्यायभाष्य कहता है- प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः। अर्थात् प्रमाणों के द्वारा वास्तविक परिस्थिति का जब ज्ञान होता है, तब उसे न्याय कहते हैं।

यद्यपि यहाँ जो परिभाषा दी गयी है, वह दर्शन की एक शाखा से सम्बन्धित है, लेकिन इसी अर्थ में वर्तमान न्यायपालिका एवं न्याय-व्यवस्था में जो ‘न्याय’ (Justice) शब्द है, वह भी परिभाषित होता है। अपराध होने की स्थिति में अथवा किसी नियम के विरुद्ध कार्य होने की स्थित में विभिन्न प्रकार के प्रमाणों के द्वारा वास्तविकता का पता लगाना ही न्याय है।

न्याय का अभाव हमें असमंजस की स्थिति में पहुँचा देता है, भ्रम उत्पन्न करता है, हमें वास्तविकता से दूर ले जाता है। वास्तविकता का ज्ञान न होने की स्थिति जितने दिनों तक बनी रहेगी या वास्तविकता से हम जितनी दूरी पर होंगे, हम सत्य से उतना ही दूर भटकते चले जायेंगे। यह काल और दूरी दोनों ही एक रोग की तरह हमारे तन्त्र के अन्य अंगों को भी क्रमशः बीमार करता चला जायेगा।

इसीलिए भारतीय राजनीतिशास्त्रियों ने न्याय के द्वारा वास्तविकता का अन्वेषण कर दण्डविधान को इहलोक और परलोक दोनों स्थानों पर प्रतिष्ठा पाने के लिए आवश्यक माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व के 12वें अध्याय में अर्जुन की उक्तियों में दण्डविधान का विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ दण्डनीतियों के असफल हो जाने पर प्रजा की दुर्गति का विवेचन किया गया है। अर्जुन स्पष्ट शब्दों में युधिष्ठिर से कहते हैं-

दण्डे स्थिताः प्रजाः सर्वा भयं दण्डे विदुर्बुधाः।
दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं च प्रतिष्ठितः।।

अर्थात् दण्ड के कारण सारी प्रजा निवास करती है। दण्ड में ही भय का वास होता है। दण्ड में ही मनुष्यों का स्वर्ग है और यह लोक भी दण्ड में ही प्रतिष्ठित है।

भारतीय परम्परा कहती है कि कौन व्यक्ति दण्डनीय है कौन नहीं है, इसी का निर्धारण करना न्याय है। न्याय नहीं होने पर दण्ड का विभ्रम होता है, जिससे सभी लोग दूषित हो जाते हैं, सारी मर्यादाएँ टूट जाती हैं। सभी लोगों के बीच उपद्रव आरम्भ हो जाते हैं। मनुस्मृति का कथन है कि

दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः। 
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्।।7-24

भारतीय चिन्तन तो उस स्थिति की कल्पना करता है, जब न तो राज्य था, न ही राजा और न ही दण्ड विधान था, न कोई दण्ड देनेवाला। सारी प्रजा धर्म के प्रभाव से परस्पर एक दूसरे की रक्षा करती थी-

न राज्यं न च राजासीत् न दण्डो न च दाण्डिकः।
स्वयमेव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।।

लेकिन जब तामस मानसिकता उत्पन्न हुई तभी न्याय और दण्ड की आवश्यकता उन्हीं तामसी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हुई। अतः सभी शास्त्रकारों ने माना है कि न्याय के द्वारा अपराधी की पहचान तथा उसे मिलने वाले दण्ड में विलम्ब नहीं होना चाहिए।

इसके विपरीत स्थिति की निन्दा करते हुए वल्लभदेव ने सुभाषितावली में कहा है-

न्यायः खलैः परिहृतश्चलितश्च धर्मः कालः कलिः कलुष एव परं प्रवृत्तः ।
प्रायेण दुर्जनजनः प्रभविष्णुरेव निश्चक्रिकः परिभवास्पदमेव साधुः।।

यह कलियुग है, जहाँ दुष्ट लोगों ने न्याय का अपहरण कर लिया, धर्म विचलित हो गया, कालिमा ही चारों ओर फैली हुई है। लगभग दुर्जन ही प्रभावी लोग बन गये हैं, जिनपर कोई शासनचक्र नहीं है और सज्जन लोग पराभव पाते हैं।

भारतीय दर्शन की इसी पृष्ठभूमि में न्यायमूर्ति राजेन्द्र प्रसाद की यह पुस्तक लिखी गयी है। उन्होंने एक ओर प्राचीन काल के भारतीय सिद्धान्तों पर विमर्श प्रस्तुत किया है तो दूसरी और वर्तमान न्याय-व्यवस्था में फैली अव्यवस्था को रेखांकित किया है। यद्यपि लेखक प्रत्येक परिस्थिति में वर्तमान न्यायपालिका के प्रति आस्थावान् हैं और वे कहते हैं कि हमें भारतीय संविधान एवं न्यायपालिका के प्रति आस्थावान् होना ही चाहिए। फिर भी वे न्यायपालिका में और अधिक सुधार होने के पक्ष में खडे़ हैं, ताकि सबको न्याय मिले। लेखक की स्पष्ट मान्यता है कि सुधार की कोई सीमा नहीं होती है, वह निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है और हमें चलते ही रहना चाहिए, क्योंकि चलते रहना पहुँच जाने से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

लेखक स्वयं न्यायपालिका के अनुभवी अंग रह चुके हैं। नीचे से ऊपर तक के यथार्थ को उन्होंने देखा है, भोगा है। न्याय, कानून, न्यायपालिका, दण्ड-विधान इन सभी क्षेत्रें में अंदरुनी बातों से परिचित होते हुए उन्होंने इससे उबरने के उपायों का अन्वेषण किया है। सारे उपाय उनके चिन्तन के कारण प्रस्फुटित हुए हैं।

प्रस्तुत संग्रह में कुल मिलाकर 43 आलेख हैं। ये आलेख भिन्न भिन्न पत्रिकाओं में, समाचार पत्रें में प्रकाशित हो चुके हैं, या किसी न किसी सेमिनार में पढे गये हैं। इन प्रत्येक आलेखों में समस्याएँ उठायी गयीं हैं तथा उनके समाधान के लिए चिन्तन प्रस्तुत किया गया है।

लेखक आस्तिक विचारधारा के चिन्तक भी रहे हैं। उन्होंने भारतीय दर्शनों पर अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों का अध्ययन भी किया है। प्राचीन भारतीय परम्परा से भी वे चिर-परिचित हैं। फलतः उन्होंने एक आलेख में पाप एवं पुण्य की अवधारणा का विवेचन कर प्राकृतिक न्याय को प्राचीन काल में सुव्यवस्थित करने की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही, वर्तमान युग में आस्तिकता में क्षरण होने के कारण अपराध को पाप की श्रेणी से अलग कर दिये के कारण उत्पन्न समस्याओं पर भी उन्होंने चिन्तन कर उस स्थिति को पुनः लाने का समाधान भी किया है। ‘मेरा अपराध ईश्वर देख रहा है, वह मुझे अवश्य दण्डित करेगा’, यह अवधारणा प्राचीन काल में न्यायपालिका के कार्यों को बहुत हद तक आसान कर देता था। हम अपराध ही न करें, इससे अच्छी स्थिति और क्या हो सकती है?

लेखक की मान्यता है कि जब तक जिला, राज्य एवं देश स्तर के तीनों न्यायालयों को स्वतन्त्र नहीं किया जाता है, आम जनता न्याय पाने से वंचित रह जाती है, क्योंकि जिला स्तर पर जो दण्डनीय घोषित किया जाता है, वह राज्य स्तर के उच्च न्यायलय में अपील करता है, जहाँ सारी प्रक्रिया पुनः आरम्भ होती है, न्याय में विलम्ब होता है। वहाँ भी यदि वह दण्डनीय घोषित हो जाता तो अपने बचाव के लिए देश स्तर के उच्चतम न्यायालय में चला जाता है। फिर वहाँ न्याय में विलम्ब होता है। इस विलम्ब के कारण अपराध के साक्ष्य मिट जाते हैं, वह इतिहास मात्र बच जाता है। हो सकता है कि तब तक अपराधी या अपराध के कारण प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाए और न्याय व्यर्थ हो जाए। न्याय में विलम्ब के कारण होनेवाली क्षति के अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत कर लेखक ने इस सिद्धान्त को स्थापित किया है कि जिला स्तर के न्यायालय को स्वतन्त्रता मिले और उसका निर्णय अंतिम हो, जिससे प्रभावित व्यक्ति को त्वरित न्याय मिल सके। त्वरित न्याय से अपराध की प्रवृत्ति में अवश्य कमी आयेगी। इसके विपरीत वर्तमान में गरीब व्यक्ति को न्याय नहीं मिल पाता है। उसके लिए जिला न्यायालय में तो न्याय के लिए गुहार लगाना सम्भव हो सकता है, किन्तु जब उसीका वाद उच्च एवं उच्चतम न्यायालय तक चला जाता है, तब उसके लिए दिल्ली दूर हो जाती है। लेखक ने पंच-परमेश्वर की अवधारणा को दुहराते हुए आज के युग में भी उसे प्रासंगिक माना है।

लेखक का मत है कि उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों में न्यायाधाीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप, मनोनयन आदि भी न्यायप्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करते हैं और इससे हमें उबरना होगा। इस परिस्थिति के लिए लेखक ने मूल कारण का अन्वेषण करते हुए लिखा है कि “आज जो हमारी न्याय व्यवस्था है वह अंग्रेजों की दी हुई है। इस न्याय व्यवस्था का निर्माण अंग्रेजों ने उस समय के लोगों की मानसिकता एवं बौद्धिकता के आधार पर किया था। आज लोगों की मानसिकता एवं बौद्धिकता बदल चुकी है। ऐसी स्थिति में जब तक हम वर्तमान कानून एवं न्याय व्यवस्था के स्वरूप को आज के लोगों की मानसिकता एवं बौद्धिकता के आधार पर नहीं बदल सकेंगे तब तक हमें न्याय और अन्याय में अंतर समझना ही बंद कर देना होगा और स्वीकार कर लेना होगा कि जो हो रहा है वही ठीक है।”

इस प्रकार भारतीय न्यायपालिका में विद्यमान अनेक विसंगतियों पर ध्यान आकृष्ट करते हुए, दशा का निरूपण करते हुए, इस क्षेत्र के अनुभवी न्यायमूर्ति राजेन्द्र प्रसाद ने सबको न्याय, त्वरित न्याय एवं विसंगतियों को दूर करने के लिए दिशा के विषय में अपना मन्तव्य दिया है। लेखक की मान्यता है कि जबतक देश की प्रत्येक जनता को न्याय नहीं मिलेगा तबतक न्यायपालिका को हम पूर्ण नहीं मान सकते हैं। लेखक ने उस भयावह स्थिति का भी संकेत किया है कि देश की आम जनता अपनी न्यायपालिका के प्रति आस्थावान् रहती हुई, न्याय के लिए ‘दिल्ली दूर है’ वाली स्थिति को सहन करती हुई भी, अपनी न्यायपालिका से ‘सन्तुष्ट’ है और कुछ साधन-सम्पन्न प्रभावशाली लोग जिनके लिए ‘दिल्ली भी अपना ही घर है’ न्यायपालिका से ‘असन्तुष्ट’ हैं।

यह पुस्तक आम लोगों के साथ साथ विधिशास्त्र के वर्तमान छात्रों के लिए भी पठनीय है, जिससे वे प्राकृतिक एवं त्वरित न्याय को समझ सकें और सुनहरे भविष्य का निर्माण कर सकें।

भवनाथ झा, शोध एवं प्रकाशन प्रभारी, महावीर मन्दिर, पटना

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