राजनगर काली मन्दिर के तीन शिलालेख
राजनगर के सुप्रसिद्ध कालीमन्दिर में चार फलकों में लिखे गये कुल तीन शिलालेख हैं।
इनमें से पहले शिलालेख में महाराज रमेश्वर सिंह ने महेश ठाकुर से लेकर सभी राजाओं का वर्णन करते हुए अपनी वंशपरम्परा का काव्यमय वर्णन किया है। कुल 44 श्लोकों में यह शिलालेख दो फलकों पर उत्कीर्ण है। प्रथम फलक में श्लोक संख्या 22 तक हैं तथा दूसरे में शेष श्लोक हैं। शिलालेख में मन्दिर के निर्माण काल का उल्लेख सन् 1322 साल दिया गया है।
दूसरे शिलालेख में पहले 23 श्लोकों में काली की अद्भुत स्तुति है। पाठ करते समय ही भक्ति की धारा बहने लगती है-
इच्छाद्याकारमेत्याऽसुपवनचलनैःशब्दतत्त्वाणुमात्रा
नीत्वा चाधारचक्रे किल भवसि परा योगिभिः श्रूयमाणा।
पश्यन्ती नाभिदेशे हृदयमुपता मध्यमात्मैकगम्या
मातः कण्ठाद्बहिस्त्वं व्यवहृतिजननी वैखरीनादसृष्टिः।।9।।
इसके बाद मन्दिर निर्माण के लिए संगमरमर की प्राप्तिस्थान माड़वार प्रदेश के मकराना का उल्लेख है। जयपुर के महाराज ने काली की मूर्ति बनवायी थी, इसका भी उल्लेख है। इसी में सूचना दी गयी है कि इस काली मन्दिर के निर्माण में 15 वर्षों का समय लगा तथा चांदी के 10 लाख ब्रिटिशकालीन सिक्का व्यय किया गया। इसी शिलालेख में आगे अन्य मन्दिरों के स्थापित मूर्तियों का विवरण भी है। यह सूचना दी गयी है कि महाकाल की प्रतिमा आगरा से मँगायी गयी थी। इस शिलालेख में कुल 37 श्लोक हैं।
तीसरे शिलालेख में महाराज रमेश्वर सिंह ने अपने दिवंगत गुरुओं का स्मरण किया है, जिनसे इन्होंने अध्यात्म-विद्या पायी थी। इनमें वैदिक रविशंकर त्रिपाठी, अयोध्यानाथ, नीलकण्ठ आदि गुरुओं का स्मरण करते हुए उन्हें प्रणाम किया गया है। इस शिलालेख में कुल 18 श्लोक हैं।
इस प्रकार राजनगर के कालीमन्दिर के अभिलेखों में राजनगर का प्रामाणिक इतिहास छुपा हुआ है। इन तीनों शिलालेखों में संबोधन करनेवाले स्वयं महाराज रमेश्वर सिंह हैं। सम्भव है कि उन्होंने स्वयं इन श्लोकों की रचना की हो। काव्य की दृष्टि से ये सभी श्लोक उत्कृष्ट हैं। एक श्लोक की बानगी यहाँ दी जी रही है। इसमें महाराज नरेन्द्र सिंह का वर्णन ओज के साथ किया गया है-
नरेन्द्रसिंहो मिथिलाधिराज्ये चक्रे प्रवृद्धिं करवालपाणिः।
प्रतापशाली विधुकीर्तिमाली रेजे प्रदातुश्च विमुक्तपाणिः।।14।।
क्रुध्यत्क्रुद्धविरुद्धरुद्धसुगलच्छेदोच्छलच्छोणिता-
च्छोणा कापि नदी तदीयललनानेत्राम्भसा चासिता।
सद्भूहेमगजप्रदानजलजाच्छोदा सुपुण्याप्यभू-
त्तासां सङ्गमनेन येन भुवनं सर्वं त्रिवेणीकृतम्।।15।।
हिन्दी अनुवाद के साथ इन तीनों शिलालेखों का सम्पादन कर लिया गया है। शीघ्र ही यह पाठकों के लिए उपलब्ध होगा।
Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.