निर्लज्ज मीडिया

आज जब अखबारों में हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार आदि अपराध की खबरें पहले पृष्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपते हैं, तो अचरज होता है कि हमारी पत्रकारिता अपने समाज के प्रति यह कैसा दायित्व निभा रही है। क्या वे इस बात से अनजान हैं कि आखिर इसका प्रभाव क्या होगा? क्या वे नहीं जानते हैं कि इससे लोगों के मन में भय का वातावरण उपजेगा और अपने समाज के प्रति अविश्वास का भाव पैदा होगा!

प्रशासन और सरकार को असफल साबित करने का यह तरीका है। पर इसका परिणाम क्या होगा, इससे लोग अनजान नहीं हैं।

सरकार का समर्थन करना हो तो सकारात्मक खबरें छापो, बुराई करनी हो तो सारी नकारात्मकता को हवा दो, समाज में भी जहर घोलने का काम करो!!

अच्छाई पर बुराई की जीत

इससे और तो कुछ नहीं होगा बल्कि अच्छाई पर बुराई की जीत होगी। बुरे लोग चटकारे लेकर पढेंगे, बूढे, असमर्थ और चिन्तकगण लोग आहें भरेंगे, हमारी बच्चियाँ सहम जायेगी, अपनी बहन से प्यार करनेवाले नावालिग बच्चे रात को सिरहाने में चाकू लेकर सोयेंगे! सुधरे युवा भी अपनी पहली कमाई  से हथियार खरीदने की योजना बनायेंगे!! हर व्यक्ति के मन में कोई न कोई भाव अवश्य उपजेगा, शृंगार से लेकर शान्त तक सारे रस अपने अपने आलम्बन के मन को जागायेंगे। हर उम्र, हर तबके के लोगों के लिए यह एक विषय है, तभी तो इसे मुखपृष्ठ पर छापा जाता है!!

आज स्वतंत्रता के नाम पर, पारदर्शिता के नाम पर जब मीडिया अपराध समाचार को प्रमुखता देने लगी है, तो चिन्ता तो अवश्य होती है कि भला सकारात्मक समाचार के लिए कैसा स्थान हम भविष्य में दे पायेंगे!

और यह चिन्ता अन्त में निर्णय लेती है कि आज की वह मीडिया बेहया है, निर्लज्ज है, जो अपना नाम चमकाने के लिए व्यापार करने के लिए समाज को, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने परिवेश को आपराधिक प्रवृत्ति की अंधी गलियों की ओर ले जा रही है।

हमारी परम्परा

हम भारतीय हैं। हमारे कवियों ने अश्लीलता को साहित्य के लिए दोष माना है। हमारे शास्त्रकारों ने बतलाया है कि बीभत्स रस का स्थायीभाव होता है- जुगुप्सा यानी गोपनीय रखने की इच्छा। हर बात प्रकाश में नहीं की जाती है। वह भाव जिसे गुप्त रखने की इच्छा पनपे- चुप रहो, चुप रहो, यह दूसरे को बतलाने की चीज नहीं है, वही बीभत्स कहलाता है, इसी को अश्लील कहते हैं।

आज हम अपनी परम्परा को गाली देते हैं- पुराना भारत जाहिल था, वह पुरुषवादी था, बोलने पर भी प्रतिबन्ध था, बन्धन में था तभी अश्लील बातें नहीं बोल पाता था।

आज ब्लाउज के बटन को बन्धन मानने वाली नारियों की तस्वीरें पूरे पृष्ठ पर छापी जाती हैं। वे बन्धनमुक्त होना चाहतीं हैं। मीडिया भी उनका साथ देती है।

जिस किसी भी माध्यम से कोई वस्तु जन-जन तक पहुँचे वह मीडिया के बृहत्तर रूप के अन्तर्गत आते हैं।

इसी को प्राचीन काल में साहित्य कहा गया। साहित्य में भयानक, बीभत्स एवं अद्भुत ये तीनों  रस अंधी गलियों के रस हैं, जिन पर अनेक वर्जनाएँ हैं, अनेक पहरे लगाये गये हैं। काव्य-दोष वे ही पहरेदार हैं।

हमारी भारतीय परम्परा रही है कि अश्लील न बोलें, बीभत्स बातें प्रकाशित न करें। आइए, हम सब अपनी पुरानी परम्परा को मजबूत करें।

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