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    • जानकीपूजाविधि, (जानकीसहस्रनाम सहित), लेखक- पण्डित श्री शशिनाथ झा

      May 3, 2022
      0
    • article by Radha kishore Jha

      वेद या वेदान्त प्रतिपाद्य धर्म क्या है?

      October 28, 2021
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    • धर्मायण के आश्विन अंक के डिजिटल संस्करण का हुआ लोकार्पण

      September 21, 2021
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    • Kadamon ke Nishan

      मानवीय संवेदनाओं को समेटती डा. धीरेन्द्र सिंह की मैथिली कविताएँ- "कदमों के ...

      September 6, 2021
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    • Krishna-janma cover

      मनबोधकवि कृत कृष्णजन्म (प्रबन्धकाव्य), डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
      0
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      विद्यापति कृत कीर्त्तिलता, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
      1
    • विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
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    • अपभ्रंश काव्य में सौन्दर्य वर्णन

      अपभ्रंशकाव्य में सौन्दर्य वर्णन -डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
      1
    • डाकवचन-संहिता

      डाकवचन संहिता (टिप्पणी-व्याख्या सहित विशुद्ध पाठ, सम्पूर्ण)- डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
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    • Dayananda's merits

      ‘पितर’ के अर्थ में ‘अग्निष्वात्ताः’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है?

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      Hinduism versus Sanatana Dharma : Which of the two words is correct?

      May 10, 2022
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      मिथिलाक लोक-परम्परामे सिरहड़-सलामी

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      April 30, 2021
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      मैथिली लोकगीतों में नारी

      August 15, 2020
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      March 15, 2023
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      August 31, 2022
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पोथी, जे पढल
Home›पोथी, जे पढल›अश्वघोष के बुद्धचरितम् का उद्धार- पं. भवनाथ झा कृत अनुवाद पर डा. उमाशंकर शर्मा ऋषि का मन्तव्य

अश्वघोष के बुद्धचरितम् का उद्धार- पं. भवनाथ झा कृत अनुवाद पर डा. उमाशंकर शर्मा ऋषि का मन्तव्य

By Bhavanath Jha
January 9, 2020
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Buddhacharitam by Bhavanath Jha
प्रो. उमाशङ्कर शर्मा ‘ऋषि’

एतस्य बुद्धचरितस्याश्वघोषस्यैव शैल्यां समुद्धारव्रती भवनाथझाः तदानीन्तनेन कामेश्वरसिंहदरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालयस्य कुलपतिनाऽऽचार्य किशोरकुणालेन भृशमुत्साहितः सम्पूर्णं तन्महाकाव्यस्य लुप्तं संस्कृतभागं स्वकाव्यप्रतिभया मूलप्रायेण रूपेणानीतवान्।

प्रो. उमाशङ्कर शर्मा “ऋषिः”

अत्रापि कथयितुं शक्येत यदश्वघोषकृतं बुद्धचरितं यदि साकल्येन प्राचीन-हस्तलेखरूपेण लभ्येत तथापि न तद् वर्तमानेन कविना भवनाथझा शर्मणा समुद्धारिताद् बुद्धचरितांशाद् बहुभिन्नं स्यात्।

प्रो. उमाशङ्कर शर्मा “ऋषिः”

रचनात्मक रूपान्तरं नातःपरं भवितुमर्हति। अनुशीलिताश्वघोषकृतयो जनाः न कथमपि प्रस्तुतरचनाश्वघोषरचनयोरन्तरं विलोकयितुं शक्ष्यन्तीति मदीयो विश्वासः।

प्रो. उमाशङ्कर शर्मा “ऋषिः”

अस्मिन्निबन्धे स्थालीपुलाकन्यायेन भवनाथझाकृतस्य बुद्धचरित-समुद्धारस्य वैशिष्ट्यानि प्रदर्शितानि सन्ति। वस्तुतो वर्तमानकालस्य समुत्कृष्टकार्येषु कार्यस्यास्य शिखरत्वं निश्चप्रचं घोषयितुं शक्यते यन्न केनापि प्रयतितचरमस्ति। महाकाव्यस्योपरि विशेषेण समुद्धृतभागस्योपरि महाप्रबन्धः कुन्तकोपदिष्टपद्धत्या श्लोके श्लोके वक्रताविचारणासहितोऽपेक्षितो वर्तते, येन कवेः श्रमः काव्यकौशलं च वैज्ञानिकेन विधिना विदुषां पुरस्तात् स्फुटीभवेतामिति शम्।

प्रो. उमाशङ्कर शर्मा “ऋषिः”

बुद्धचरितकाव्यस्य समुद्धारः

प्रो. उमाशङ्कर शर्मा ‘ऋषिः’, भी. 33, विद्यापुरी, पटना 800020

published in the journal- Samskrit-sanjivanam, Patna, 2019

पटना-रेलपथ-स्थानक-पार्श्ववर्ति श्रीमहावीरमन्दिरं स्वकीयेन नव्यभव्यस्वरूपेण निरन्तरानुष्ठापिते च सामाजिकसांस्कृतिक-क्रियाकलापेन सर्वजन-मनोमोदकरं वर्तते। तस्य कार्येषु श्रीमहावीर-प्रकाशनाख्यं सुतरां कीर्तिवर्धकमिति विविधैः प्रकाशनैः देशे विदेशेषु च विलक्षणं पदं धत्ते।

तस्मादेव प्रकाशनसंस्थानात् प्रकाशतामुपेतं श्रीमदश्वघोषरचितस्य महाकाव्यस्य बुद्धचरिताख्यस्याभिनवं संस्करणं तल्लुप्तांशसमुद्धारसमन्वितम्। तदर्थ तत्समुद्धारक: कारयित्री-भावयित्रीत्युभयप्रतिभामण्डितः पण्डितप्रवरो भवनाथझामहाभागो बहुष्वद्यतनविपश्चिदपश्चिमेषु शिरोमणित्वं धत्ते।

महाकविरश्वघोषो महान् धर्मप्रचारको दार्शनिकः शास्त्रज्ञश्चासीत्। कुषाणवंशीयस्य सम्राजः कनिष्कस्य समकालिकत्वात् तत्समयः प्रथमशतकमीशवीयं सुगमतया गृह्यते। तद्रचनानां पुष्पिकासु लभ्यमानाद् वाक्यादवगम्यते यत्स सुवर्णाक्षीपुत्रः साकेतनिवासी आचार्यः इति विशेषान् धारयति स्म तत्परिचयरूपान्। किञ्च बौद्धधर्माचार्यत्वेनासौ भिक्षुर्भदन्तो महावादीत्यपि कथ्यते। बौद्धधर्म-ग्रहणात्पूर्व मश्वघोषो वैदिक परम्परायां गृहीतजन्मा बहूनि शास्त्राण्यधीतवान् इति तदीयकृतिभ्योऽवगम्यते।

अश्वघोषस्य व्यक्तित्वस्य कृतीनां चानुशीलने ग्रन्थद्वयं साम्प्रतमपि समुत्कर्षं भजते। उभयमपि आङ्ग्लभाषायां वर्तते। प्रथमं तावत् 1946 ई. वर्षे एशियाटिक सोसायटीत: (कलकत्ता) प्रकाशितम् ‘अश्वघोष’ इति नाम पुस्तक डॉ० विमल चरण लाहाकृतम्। द्वितीयं तु सुतरां समालोचनात्मकम् 1976 ई. वर्षे शान्तिनिकेतनत: प्रकाशितम् – ‘अश्वधोष-अ क्रिटिकल स्टडी’ इति नामधेयं पुस्तकं डॉ. विश्वनाथ भट्टाचार्यकृतम्। भट्टाचार्य महोदयमतेन चत्वार एव ग्रन्थाः अश्वघोषेण कृताः सन्ति। अपरे वज्रसूची-प्रभृतयः तन्नाम्ना परवर्तिभिः कृताः। तेषु महायानश्रद्धोत्पादसूत्रमपि विशिष्टं मन्यते। चतुर्षु प्रामाणिकग्रन्थेषु त्रयः संस्कृतभाषायां पूर्णतोंऽशतो वा उपलब्धाः केऽपि न भारतभूमौ प्राप्ता इति विशेषः। एतेषु सौन्दरनन्दं नाम महाकाव्यमष्टादशसर्गात्मकं सम्पूर्णतः संस्कृतभाषायां नेपालराज्यपुस्तकालयाल्लब्धम्। भगवद्गीतानुप्राणितमिदम् इति नाना विद्वांसो मन्यन्ते। द्वितीयं महाकाव्यं बुद्धचरितम्। तच्चादौ अष्टाविंशति-सर्गात्मकमासीदिति तस्य चीनीभाषानुवादेन (414-421 ई. मध्ये कृतेन) तिब्बती भाषानुवादेन (सप्तमाष्टमशतकमध्ये महीन्द्रभद्र-मतिराजाभ्यां कृतेन) गम्यते। परन्तु संस्कृतभाषायां पूर्णतो नोपलभ्यते महाकाव्यमेतत्। अश्वघोषकृतस्तृतीयो ग्रन्थः शारिपुत्रप्रकरणं नाम नवाङ्कात्मक रूपकमस्ति यस्य कतिपयान्येव प्राचीनपत्राणि (200-300 ई. मध्ये अङ्कितानि) चीनस्थ-तुर्फानप्रदेशात् प्राप्तानि। राष्ट्रपालचरितं नाम गेयात्मकं नाटकं (केवले चीनीभाषानुवादे रक्षितम्) महाकवेश्चतुर्थो ग्रन्थः। एतस्य नाटकस्य प्रस्तावनाभागः डॉ. विश्वनाथभट्टाचार्येण संस्कृतभाषायां रूपान्तरितः आसीत् शान्तिनिकेतनपत्रिकायां प्रकाशितश्च।

साम्प्रतं बुद्धचरितमाश्रित्य वक्तव्यम्। बद्धचरितस्य प्रथमं संस्करणम् आङ्ग्ल-पण्डितेन ई.बी.कावेल महाभागेन 1893ई. वर्षे स्वसम्पादने प्रकाशितम्। संस्करणेऽस्मिन् सप्तदश सर्गाः आसन्। संस्करणमेतत्प्रमाणरूपेण यूरोपे भारते च बहुकालं यावत् स्वीकृतम्। संस्करणस्यास्याधारः इण्डिया आफिस ग्रन्थागारे संगृहीतो हस्तलेखः आसीत्। लेखस्तु नेपालवासिना पण्डितेन अमृतानन्देन 1830 ई. वर्षे प्रस्तुतोऽभूत्। कालान्तरेऽपरो विद्वान् डॉ. जॉन्स्टन महोदयः नेपालराजपुस्तकालयात् बुद्धचरितस्यापरं हस्तलेखमवाप्य बहुपरिश्रमेण तस्य महाकाव्यस्यापरं परिष्कृतं संस्करणं प्रकाशितवान्। तेन प्रतिपादितं यद् बुद्धचरितं प्रथमसर्गस्यादौ प्रायेण सप्तसु पद्येषु खण्डितम्, तदनु पञ्चविंशात्पद्यात् चत्वारिशं यावदपि नोपलब्धम्। अन्ततः चतुर्दशस्य सर्गस्य एकत्रिंशत्तमं पद्यं यावदेव संस्कृतभाषायामुपलब्धम्, नातः परं कुत्रापि लभ्यते। जान्स्टनमहोदयेन तिब्बती (भोट)- भाषानुवादं प्रमाणीकृत्य सम्पूर्ण स्याष्टाविंशतिसर्गात्मक स्य बुद्ध चरितस्या

ङ्ग्लभाषारूपान्तरमपि प्रस्तुतम्। तेन प्रतिपादित यच्चीन-भाषायां कृतोऽनुवादो वस्तुतो बुद्धचरितस्य भावानुवादो वर्तते। तमाधारीकृत्य सैमुअल बील महोदयेन योऽनुवादोऽस्य काव्यस्य कृत आसीत्स न विश्वासपात्रतां वहति। भोटभाषानुवादस्तु पद्यसंख्यामपि प्रतिपद्यं निर्वहन् पद्यपदानि यत्र-तत्र प्रामाणिकरूपेण व्याचष्टे इति तस्य महत्त्वं वर्तते।

            जॉन्स्टन एव प्रतिपादितवान् यद् ईस्ट इंडिया कम्पनी कर्मचारी पण्डितः अमृतानन्दः आसीत्। स स्वकल्पनया बुद्धचरितस्य प्रारम्भिकमंशं रचितवान्। बुद्धस्य जीवनस्य विषये स्वज्ञानमाश्रित्य चतुर्दशसर्गस्यावशिष्टान् भागान् (एकनवतितम-श्लोकं यावत्) तथा पञ्चदशं षोडशं सप्तदशं च सर्ग प्रणीतवान्। एवमेव कावेल-संस्करणे सर्गाणां सप्तदशत्वं बभूव। अमृतानन्दः स्वयं महाकाव्यान्ते स्वकीयं योगदानं निरूपयति-

सर्वत्रान्विष्य नो लब्ध्वा चतु:सर्गं च निर्मितम्।
चतुर्दशं पञ्चदशं षोडशं सप्तदशं तथा।।

प्रथमसर्गादौ च पद्यानि तत्कृतान्येव। ईस्ट इंडिया कम्पनी इत्यस्याधिकारिणः अमृतानन्दं सम्भवतः नेपालराजपुस्तकालयाद् अन्यस्माद् वा स्थानाद् ग्रन्थलेखानां प्रतिलिपिकरणाय आदिशन्। स च स्वकवित्वशक्तिं प्रकटय्य स्वमनसा सम्पूर्णं बुद्धचरितं चकार। इदमेव महाकाव्यस्यास्य विकृतिकरण-कारणं बभूव। कावेलमहोदयश्च ग्रन्थस्य प्रकाशने प्रथमत्वमवाप। जान्स्टनमहाभागोऽस्याः विकृतेः संशोधक: बुद्धचरितस्योद्धारकत्वेन पण्डितसमाजे समुदघोषितः। तेन चीन-भोटोभयानुवादसमीक्षापरं रूपान्तरं काव्यस्यास्यानुष्ठापितम्। सम्प्रत्येकस्मिन्नेव पुस्तके बुद्धचरितस्य प्राप्तांश: बृहद्भूमिकासहितः, आंग्लभाषारूपान्तरं च समीक्षात्मकं जॉन्स्टनकृतं मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशितं समुपभ्यते। पूर्व तु खण्डद्वयात्मकं संस्करणं प्रकाशितमासीत्। जान्स्टनसंस्करणमेव बुद्धचरितस्य भारतीयभाषासु कृतानां रूपान्तराणाम् उपजीव्यमभूत्। हिन्दीभाषायां पूर्णियावास्तव्यः सूर्यनारायण चौधरी बुद्धचरितस्य संस्कृते लब्धांशेन सह सम्पूर्णस्य ग्रन्थस्य रूपान्तरमपि प्रकाशितवान्। तच्च मोतीलालबनारसीदास प्रकाशनेन पुनर्मुद्रितं सत्सुलभमस्ति। तद्रूपान्तरमेवावलम्ब्य जबलपुराभिजनः स्वामी रामचन्द्र दासः संस्कृतभाषायां बुद्धचरितस्य लुप्तांशस्य रूपान्तरं कृतवान्। न तद्रूपान्तरं महाकविशैलीमनगाहते, न च विषयवस्तुविस्तरं स्पृशति। येन केन प्रकारेण संस्कृतभाषायां सर्वसुलभेन अनुष्टुप्छन्दसैव तद्रूपान्तरमास्ते। चौखम्बाप्रकाशनेन विज्ञापितं सन्मूलं बुद्धचरितमिति कृत्वा बहु प्रचारितमस्ति।

एतस्य बुद्धचरितस्याश्वघोषस्यैव शैल्यां समुद्धारव्रती भवनाथझाः तदानीन्तनेन कामेश्वरसिंहदरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालयस्य कुलपतिनाऽऽचार्य किशोरकुणालेन भृशमुत्साहितः सम्पूर्णं तन्महाकाव्यस्य लुप्तं संस्कृतभागं स्वकाव्यप्रतिभया मूलप्रायेण रूपेणानीतवान्। एतेन स्मार्यते महाभारतसंस्करणकर्तुः वी.एस. सुकथणकरस्य कथनम्। यदा सुकथणकर महोदयः स्वकीयसम्पादकदलसहितो महाभारतस्य मूलमन्वेष्टुकामः विविधानां महाभारतसंस्करणानां सहायतया मूलपाठोद्धारं चकार भाण्डारकर प्राच्यविद्या संस्थानतश्च प्राकाश्यं नीतवान्, तदा कश्चित्प्राच्यविद्यामनीषी तं पृष्टवान्- “यदि दैवात् क्वचित् महाभारतस्य मूलपाठः गिलगितादि प्रदेशे तालपत्रादौ लभ्येत तदा भवतोऽयं पाठोद्धार-प्रयासो व्यर्थतामियात।” तदा सकथणकरोऽवादीत्- नासौ पाठो मत्प्रयासेन निर्धारितात्पाठात्स्वल्पमपि भिन्नो भवेत्।

अत्रापि कथयितुं शक्येत यदश्वघोषकृतं बुद्धचरितं यदि साकल्येन प्राचीन-हस्तलेखरूपेण लभ्येत तथापि न तद् वर्तमानेन कविना भवनाथझा शर्मणा समुद्धारिताद् बुद्धचरितांशाद् बहुभिन्नं स्यात्। वस्तुतोऽश्वघोषस्य कवित्वोपादानानि वस्तुप्रस्तुति-छन्द:प्रयोग-व्याकरणिक प्रयोग- सौन्दर्यानयनप्रवृत्ति (उपमानुप्रासाद्यलंकाराणां बाहुल्येन निवेश:)-काव्यात्मकदर्शन-विन्यास-प्रभृतीनि भवनाथेन कविना निपुणं मनसि संस्थाप्य मूलकवेः मानसे प्रविश्यैव तत्समयं चावगायैव बुद्धचरितस्य लुप्तसंस्कृतभागः समुद्धृतः। तत्र ये ये भागाः संस्कृतभाषायामनुपलब्धाः पूर्वाचार्यैरंशतः प्रस्ताविता वा, तेषां सर्वेषां स्वसंस्कृतकाव्येषु प्रकृतेन कविना निपुणं कृतोऽस्ति समुद्धारः। प्रारम्भिकः श्लोकस्तु विशेषेण महत्त्वं धारयति। वस्तुनिर्देशरूपो मङ्गलश्लोकोऽसौ। जान्स्टन महोदयेन तस्यावतारणां स्वकल्पना-बलेनेत्थं कृतमासीत्-

ऐक्ष्वाक इक्ष्वाकुसमप्रभावः शाक्येष्वशक्येषु विशुद्धवृत्तः।
प्रियः शरच्चन्द्र इव प्रजानां शुद्धोदनो नाम बभूव राजा।। (1.1)

अत्र पूर्वयोः पादयोः समव्यञ्जनश्रुत्यापि न वक्रतां न च रुचिचमत्कारं तनोति पद्यं किन्तु प्रस्तुतेन भवनाथकविना तस्यानुप्रासस्य सुतरां निवेशेन रम्यरम्यया कवितारीत्या वक्रोक्तिसम्मतं संशोधनं परिमार्जनं च कृतं येन श्लोकः पवित्रीकृत इव प्रतीयते

इक्ष्वाकुकुल्यो धृततुल्यतेजः शाक्येष्वशक्येषु बभूव।
शुद्धोदनः शुद्धकलः प्रजानां प्रियः शरच्चन्द्र इवातिरम्यः ।। (1.1.)

अश्वघोषस्य कवितारीतिरियमेव वर्तते यत् अलंकाराणां संयतप्रयोगेण वस्तुवर्णने सौन्दर्य-निधानं स्यात्। दर्शनस्य सिद्धान्तेषु नीरसेषु सत्स्वपि काव्यधर्मपरित्यागं न करोति कविः। सिद्धान्तानपि उपमानबलेन सरली कुर्वन सौन्दरनन्द-बुद्धचरितयोरुभयोः काव्ययोः समा तया कवयत्यश्वघोषः। बुद्धचरितस्य तु संस्कृतभाषायां सुरक्षिते भागे नास्ति दर्शन-सिद्धान्तावकाशस्तावान्, किन्तु लुप्तभाग एव दर्शनजटिलतापन्नः इति समुद्धारककवेः कृते नूनं तत्र कवित्वनिकषसाक्षात्कारो जातस्तथापि भेषजस्य मधुरीकरणन्यायेन प्रवर्तमानो वर्तमानः कविर्भवनाथो न कुत्रापि भीतिमनुभूतवानिति पश्यामश्चतुर्दशात् सर्गादुत्तरवर्तिषु

सर्गेषु तत्कवितारं अष्टाङ्गमार्ग-विवरणे प्रकृतः कविः पञ्चदशे सर्गे द्वयोर्दीर्घकायवृत्तयोः शार्दूलविक्रीडित-स्रग्धरयो: (15. 35-6) प्रयोगेण मार्ग सरलतया निरूपयति। तत्र प्रथमे पद्ये (35 संख्यके) उभयोवृत्तयोर्मिश्रणं कृतम्-

सम्यग्दृष्टि-रविप्रकाश-विमलो मार्गः प्रशस्तः सदा। (शार्दूल.)
सम्यक्संकल्पयानं विहरति रमणेऽ कण्टके सुप्रसन्ने। (स्रग्धरा) सम्यग्भाषितविश्रमस्थलशतै रम्यः सुगम्यो जनैः। (शार्दूल.)
सम्यक्कर्मान्तकुजैः कुसुमितललितैरुज्ज्वलोऽयं शतैश्च।। (स्रग्धरा)

उत्तरवर्ति पद्यं तु सम्पूर्णतया स्रग्धरावृत्ते एव वर्तते-

शुद्धामाजीविकाख्यां चरति पथि चरन् भैक्ष्यरूपामहीनां
सम्यग्व्यायामसैन्यैः प्रकटितमहिमा रक्षितोऽयं सुपन्थाः।
सम्यग्ध्यानेन गुप्तो दृढतरनगरे सर्वतः कोटगुप्ते
शय्याभिश्चासनैश्चाकलयति बहुधा यत्र सम्यक् समाधिः।।(15.36)

निष्कर्षात्मकं पद्यमनुष्टुभि वृत्त एव वर्तते –

अयमष्टाङ्गिको मार्गः संसारे परमोत्तमः।
जरामरणरोगेभ्यो मुच्यन्ते येन मानवाः।। (15.37)

रचनात्मक रूपान्तरं नातःपरं भवितुमर्हति। अनुशीलिताश्वघोषकृतयो जनाः न कथमपि प्रस्तुतरचनाश्वघोषरचनयोरन्तरं विलोकयितुं शक्ष्यन्तीति मदीयो विश्वासः। दार्शनिकसिद्धान्तवर्णनस्य तादृश्येवाश्वघोषरीतिः सौन्दरनन्देऽपि दरीदृश्यते। क्वचित्तु प्रस्तुतकविरश्वघोष-कवितापेक्षयापि अतिशयतां दधानः कालिदासकवितां गुप्तकालिककवितां वानुकरोति यथा त्रयोविंशसर्गस्यान्तिमे पद्ये यत्र भगवान् बुद्धः परिनिर्वाणं गन्तुकामः प्रकृतौ महान्तमुपद्रवादिक निर्दिश्य कथयति-

शक्त्यात्मनो रथमिवाद्य विखण्डिताक्षं
क्षीणायुषं बत शरीरमिदं नयामि।
मुक्तोऽस्मि सम्प्रति भवप्रतिबन्धजाला
दण्डप्रखण्डसमयेऽण्डजबद्धतायुः।।(23.74)

वस्तुवृत्ते वर्णनात्मके सति भवनाथकविरपि सरलमनुष्टुप्छन्द आश्रयते। अन्यथा तु काव्य-प्रवणे सत्यश्वघोषस्य प्रियमुपजातिवृत्तमेव। क्वचिदन्यवृत्तान्यपि रमणीयतया प्रयुक्तानि। बुद्धस्य महापरिनिर्वाणनाम्नः षड्विंशस्य सर्गस्यान्तिमं पद्यं मधुरेण द्रुतविलम्बितच्छन्दसा प्रस्तुतं यत्रोपमानत्रयेण बुद्ध निर्वाणं गते सति जगतोऽशोभनत्वं निरूपितम् –

जगदिदं जगदन्तकलोपिते
गगनवन्न बभौ शशिनं विना।
हिमहताब्जसरोवरसम्मितं
वितथविद्यमिव द्रविणं विना।। (26.106)

इह पदानां चयनं सुतरां हदयावर्जकं वर्तते।

अश्वघोषकाव्ये लकारेषु लिटो लुङश्च भूतवर्णने वैपुल्यमस्ति। प्रस्तुतकविनापि रचनात्मकरूपान्तरेऽस्मिंस्तदवहितम्। बभ्राम, विनिनाय, चक्रे, जहौ, विनिन्ये संस्थापयामास इति रूपाणि एकविंशे सर्गे प्रारम्भिकेषु पद्येषु दृश्यन्ते। ‘अकारि’ (21.14) इति चिण्प्रयोगश्च तत्रैव वर्तते। ‘विचुक्रुशू राजगृहे निभाल्य’ (21.44) इत्यत्र पूर्वस्य अणो दीर्घत्वं च रकारलोपे सति कृतं तत्र कवेर्वेयाकरणत्वं प्रत्यक्षं जायते। तस्मिन् सर्गे प्रव्रज्याप्रवाहाख्ये विभिन्नानां हिंसकजीवानां भगवता बुद्धेन वशीकरणस्य प्रसङ्गाः काव्यप्रणाल्यामतीव शोभन्ते शैलीप्रवाहस्तत्रापि हदयमावर्जयति।

अस्मिन्निबन्धे स्थालीपुलाकन्यायेन भवनाथझाकृतस्य बुद्धचरित-समुद्धारस्य वैशिष्ट्यानि प्रदर्शितानि सन्ति। वस्तुतो वर्तमानकालस्य समुत्कृष्टकार्येषु कार्यस्यास्य शिखरत्वं निश्चप्रचं घोषयितुं शक्यते यन्न केनापि प्रयतितचरमस्ति। महाकाव्यस्योपरि विशेषेण समुद्धृतभागस्योपरि महाप्रबन्धः कुन्तकोपदिष्टपद्धत्या श्लोके श्लोके वक्रताविचारणासहितोऽपेक्षितो वर्तते, येन कवेः श्रमः काव्यकौशलं च वैज्ञानिकेन विधिना विदुषां पुरस्तात् स्फुटीभवेतामिति शम्।

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