विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर को ही क्यों मनाया जाता है? हमारे सभी पर्व-त्योहार भारतीय पंचांगों के अनुसार मनाया जाता है; किन्तु विश्वकर्मा पूजा हम अंगरेजी कैलेंडर के अनुसार क्यों मनाते हैं?
19वीं शती में अंगरेज विद्वान् तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् भी यह सिद्ध करने में लगे रहे कि भारत में कोई तकनीक थी ही नहीं। अतः तकनीक के देवता विश्वकर्मा को भी उन दिनों इस्ट इंडिया कम्पनी के आने के बाद ही कल्पित देवता मानने का सिलसिला चलता रहा। अतः भारत में वास्तु शास्त्र तथा अन्य शिल्पशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों का प्रकाशन भी नहीं हो सका।
विश्वकर्मा प्राचीनतम वैदिक देवताओं में से एक हैं। वैदिक साहित्य में त्वष्टा तथा तक्षा के नाम से इनका उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार इन्द्र ने जिस वज्र से वृत्रासुर का वध किया था उसके निर्माता त्वष्टा थे।
इन्द्रसूक्त में कहा गया है कि त्वष्टास्मै स्वर्यं वज्रं ततक्ष; अर्थात् इनके लिए त्वष्टा ने आवाज करनेवाला वज्र को छीलकर नुकीला बनाया।
यहाँ पर त्वष्टा के साथ ततक्ष क्रियापद का प्रयोग हुआ है; जिसके कारण इनका एक नाम तक्षा (तक्षन्) भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के इस तक्षन् शब्द से भारोपीय भाषा परिवार में “तक्ने” शब्द बना है; जिससे अंग्रेजी में टेक्नो Techno शब्द आया है; जिसका अर्थ तकनीक होता है। इसी Techno शब्द से Technology शब्द प्रचलित है।
इस प्रकार वैदिक साहित्य में जिस तक्षा का उल्लेख हुआ है। उन्हें तकनीक का देवता माना गया है। इनकी स्तुति रुद्र के रूप में रुद्र सूक्त में हुआ है- नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः।
बाद में यह तक्षा शब्द बढई के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा; जो प्राचीन काल में यन्त्र बनाने का कार्य करते थे; और तकनीक के पर्याय माने जाते थे। इस प्रकार त्वष्टा, विश्वकर्मा एवं तक्षा का जहाँ भी किसी व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है, वहाँ तकनीक के देवता के रूप में अर्थ अभिप्रेत है।
त्वष्टा से सम्बद्ध एक अन्य कथा के अनुसार उनकी पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य से हुआ। जब संज्ञा सूर्य का तेज सहन नहीं कर सकी तो पिता के घर लौट गयी। इसके बाद त्वष्टा ने सूर्य के तेजोमण्डल को काट-छाँट कर सभी लोगों के लिए उपयोगी बनाया। उसी कटे हुए अंश से उन्होंने विष्णु के लिए चक्र एवं शिव के लिए त्रिशूल का निर्माण किया।
महाभारत के कर्ण पर्व के 26वें अध्याय की कथा के अनुसार विश्वकर्मा मे रुद्र के लिए रथ का निर्माण किया था-
दुर्योधन उवाच।
तेजसोऽर्धं सुरा दत्त्वा शङ्कराय महात्मने।
पशुत्वमपि चोपेत्य विश्वकर्माणमव्ययम्।।
ऊचुः सर्वे समाभाष्य रथः सङ्कल्प्यतामिति।
विश्वकर्माऽपि सञ्चिन्त्य रथं दिव्यमकल्पयत्।।
समेतां पृथिवीं देवी विशालां पुरमालिनीम्।
सपर्वतवनद्वीपां चक्रे भूतधरां रथम्।।
पुराण साहित्य में ये त्वष्टा विश्वकर्मा के नाम से अधिक प्रचलित हुए हैं। उन्हें देवताओं के लिए भवन-निर्माता माना गया है। विश्वकर्मा के समानान्तर दैत्यों के भवन-निर्माता मय दानव कहे गये हैं। वाराह-पुराण के अनुसार विश्वकर्मा ने द्वारकापुरी का निर्माण किया था। उन्होंने अनेक देव-मन्दिरों का निर्माण किया।
लोककथाओं और पुराण-कथाओं में अतिविशिष्ट निर्माण-कार्य का श्रेय विश्वकर्मा को दिया जाता रहा है। शिल्पशास्त्र सम्बन्धी एक प्राचीन ग्रन्थ भी विश्वकर्मा-शिल्प के नाम से उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों में विश्वकर्मवास्तु के नाम से अनेक अंश हैं।
इस प्रकार परम्परा में विश्वकर्मा तकनीक एवं निर्माण के देवता के रूप में सुप्रतिष्ठित रहे हैं।
उनकी पूजा का विधान भी प्राचीन काल से उपलब्ध होता है। विश्वकर्मा की मूर्ति बनाने की विधि बतलाते हुए हेमाद्रि (1260 ई.) ने चतुर्वर्गचिन्तामणि में लिखा है कि विश्वकर्मा के चार मुख एवं चार भुजाएँ होनी चाहिए। उनका वस्त्र श्वेत रंग का हो। दाहिने हाथ में माला तथा बायें में पुस्तक होनी चाहिए। शेष दो हाथों में कमल फूल होने चाहिए। बायीं ओर एक बैल की मूर्ति होनी चाहिए। इस मूर्ति के विवरण से पता चलता है कि उस काल में विश्वकर्मा एवं ब्रह्मा का स्वरूप में साम्यता दीखने लगी थी। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रह्मा की पूजा विश्वकर्मा के रूप में होने लगी।
आधुनिक काल में जहाँ अन्य पूजा हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार मास तिथि एवं पक्ष के आधार पर होती है, किन्तु विश्वकर्मापूजा अंग्रेजी तारीख के अनुसार होती रही है। इससे यह पता चलता है कि विश्वकर्मापूजा का वर्तमान स्वरूप बहुत पुराना नहीं है। सम्भवतः इसका प्रचलन इस्ट इंडिया कम्पनी के काल में हुआ हो। अतः इसका यह तिथि-निर्धारण गवेषणा का विषय है।
बंगाल में दुर्गापूजा के साथ नौवें दिन आयुध-पूजा के नाम पर सभी प्रकार के औजारों की भी पूजा की परम्परा 19वीं शती में भी रही है।
अनेक यूरोपियन यात्रियों ने सितम्बर माह में विश्वकर्मा पूजा का उल्लेख किया है।
किन्तु दुर्गापूजा से अलग हटकर विश्वकर्मापूजा के रूप में 1847 ई. में प्रकाशित पुस्तक में Charles Acland ने A Popular Account of the Manners and Customs of India में लिखा है कि 1842 ई. में दि. 15 सितम्बर को भारत में औजार से काम करनेवाले लोग उसे धोकर और लाल रंग से रंग कर, फूलों से सजा कर एवं सामने घुटना टेककर पूजा करते हैं और अगले साल काम करने के दौरान नहीं टूटने की प्रार्थना करते हैं। एक्लैंड ने इस पूजा आफ टूल्स कहा है।
September 15.
To-DAY is a rustic festival; the carpenters and all other workmen have a holiday, and, daubing all their tools with red paint, cover them with flowers, and then kneel down and worship them, and beg them to work well and not to break during the next year. This is called the “poujah of tools.” (p. 17)
इस विषय में और अधिक शोध आवश्यक है।