दीपावली सम्पूर्ण भारतवर्ष में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मनाया जानेवाला प्रमुख पर्व है। इस दिन के साथ कई कथाएँ एवं ऐतिहासिक घटनाएं जुडी हुई है।

रामोपासना से सम्बन्ध

कहा गया है कि इसी दिन श्रीराम चौदह वर्षों के बाद अयोध्या लौटे थे।

जैन परम्परा में दीपावली

जैन परम्परा के अनुसार इसी दिन भगवान महावीर का निर्वाण पावापुरी में हुआ था। इसकी स्मृति में इस दिन नव-वर्षारम्भ माना गया है। गुजरात में भी सांस्कृतिक रूप से यह दिन वर्षारम्भ के रुप में मनाया जाता है।

नये वर्ष का आरम्भ

व्यवसाय-जगत् में भी दीपावली के दिन से नवीन वित्तीय वर्ष प्रारम्भ करने की परम्परा आज भी विद्यमान है। 19वीं शती के आरम्भमे गुजरात में इस प्रकार की परम्परा देखी गयी है कि वहाँ के व्यापारी दीपावली से दो दिन पहले यानी धनतेरस के दिन अपनी तिजोरी की पूजा करते थे तथा वर्षभर धन की कमी न होने के लिए प्रार्थना करते थे। इसे धनतेरस कहा जाता था।

सिख परम्परा में 

सिख परम्परा में भी दीपावली पूरी श्रद्धा के साथ धूम-धाम से मनायी जाती है। परम्परानुसार गुरु हरिगोबिन्द सिंह को मुगल बादशाह जहागीर ने ग्वालियर के दुर्ग में नजरबंद कर लिया था, किन्तु सूफी सन्त मियां मीर के उपदेश के प्रभाव से जहाँगीर ने गुरु हरिगोबिद सिह के साथ बंदी बनाये गये सभी अन्य राजाओं का भी छोड़ देने पर सहमत हो गया। इसके लिए बादशाह ने एक प्रक्रिया अपनायी कि जो राजा गुरुजी के अंगरखे का कोई भी भाग पकड़ लेंगे, इन्हें मुक्त कर दिया जायेगा। इस दिन गुरु ने 52 कलगियों वाला अंगरखा पहना। इतने बंदी गुरु का अंगरखा पकड़कर मुक्त होकर किले से बाहर आ गये और दीपावली के दिन अमृतसर पहुँचे। लोगों के हर्षोल्लास की सीमा नहीं रही। दोगुने उत्साह से हरिमन्दिर में दीपावली का पर्व मनाया गया। इस घटना के बात सिख परम्परा में दीपावली के इस प्रकाश-पर्व में सोने में भी सुगन्धि आ गयी।

पुराणों की परम्परा में

पुराणों की परम्परा में भी दीपावली के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। यहाँ पुराणों के उपलब्ध मुम्बईं संस्करण में प्राप्त कुछ कथाएँ तथा माहात्म्य संकलित हैं। इन कथाओं के अतिरिक्त भी दीपावली के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री मिलने की सम्भावना है।

पितरों की प्रसन्नता के लिए दीपावली

इसके माहात्म्य का वर्णन पद्मपुराण के उत्तर खण्ड के 121 एवं 122 में विस्तार से किया गया है। 121वें अध्याय के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी ने अमावास्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके माहात्म्य में इसे पितृकर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पिता इस दीप-दान ने प्रसन्न होते हैं –

पितरश्चैव वाञ्च्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः।
भविष्यति कुलेस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः।।27।।
कार्तिके दीपदानेन यस्तोष्यति केशवम्।
घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः।।28।।

अपने पितरों के साथ घिरे हुए हमारे पितर भी चाहते हैं कि हमारे कुल में कोई पितरों का भक्त तथा पुत्रवान् व्यक्ति जन्म लेगा जो कार्तिक मास में घी अथवा तिल के तेल का दीप जलाकर भगवान् विष्णु को प्रसन्न करेगा।

ज्वलते यस्य सेनानीरश्वमेधेन तस्य किम्।
तेनेष्टं क्रतुभिः सार्द्धं कृतं तीर्थावगाहनम्।।29।।

जिनके द्वारा जलाये गये दीपों की पंक्ति सेना की तरह जल रहे हों, उन्हें अश्वमेध यज्ञ का क्या प्रयोजन! उसने तो अनेक यज्ञों के साथ जैसे तीर्थों में स्नान कर लिया हो।

भगवान् विष्णु एवं शिव की प्रसन्नता के लिए

यहाँ आगे कहा गया है कि एकादशी की रात किसी व्यक्ति ने भगवान विष्णु के आगे दीप जला दिया था। रात में वह दीप जब बुझने लगा तो एक चूहा उसकी बाती रातभर उकसाता रहा। इस पुण्य से वह चूहा अगले जन्म में मनुष्य का शरीर धारण कर परम पद पा गया।

एक व्याध भी चतुर्दशी की रात भगवान शिव की पूजा कर परम-पद प्राप्त कर लिया।

एक अन्य माहात्म्य के अनुसार एक वैश्य कुल की स्त्री थी, जो एक चाण्डाल के घर काम करती थी। उस चाण्डाल द्वारा जलाये दीप को वह रातभर उसकाती रही, जिसके कारण अगले जन्म में वह लीलावती बनकर स्वर्ग चली गयी।

एक ग्वाला भी अमावस्या की रात में भगवान् विष्णु की पूजा का दर्शन कर बार-बार जय जयकार कर महाराज बना।

इन माहात्म्यों का उल्लेख करने हुए कहा गया है कि इन दिनों सूर्यास्त होने पर रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी, तिल का तेल आदि से दीप जलाना चाहिए। इससे दीप जलानेवाले के ऐसे पिता, जिन्होंने आत्महत्या की थी या जिनका श्राद्धकर्म उचित ढंग से नहीं हुआ वे भी इस दीपदान के पुण्य से मुक्त हो जाते हैं।

पापिन: पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रिया:।
तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यत:।। 37।।

यहीं कारण है कि दीपावली की रात्रि पाँच बन्धनोंवाली उल्का (ऊक- मैथिली) को जलाकर विधानपूर्वक मन्त्र पढते हुए अपने आलय के चारों ओर घुमाया जाता है। मिथिला के क्षेत्र में आज भी यह क्रिया की जाती है। इसे उल्का भ्रमण कहते हैं।

त्रयोदशी तिथि को यम का दीया

इसी स्थान पर अगले  122वें अध्याय में दीपावली के दिन का विस्तृत वर्णन किया गया है। कार्तिकेय के प्रश्न पर भगवान् शंकर कहते हैं कि कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को अपने घर के बाहर यमदीप जलाना चाहिए। इससे अकालमृत्यु का निवारण होता है। यहीं दीप जलाने का मन्त्र भी उल्लिखित है
ॐ मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह।
त्रयोदशीदीपदानात् सूर्यज: प्रीयतामिति।।

इस दिन प्रातः- स्नान करना चाहिए

इस दिन प्रातःकाल में स्नान करने का विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इस स्नान के समय अपामार्ग, तुम्बी, कटुफल, बाह्वल, इन चार वनस्पतियों को हाथ में सिर के ऊपर लेकर घुमाने का विधान किया गया है। इसके बाद तर्पण के क्रम में निम्नलिखित मन्त्रों से यमराज को जल देने का विधान किया गया है –
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तिकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च।।12।।
औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नम:।।13।।

मन्दिरों में दीप जलाने से पुण्य

इसके बाद सन्ध्या के समय ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के मन्दिरों से दीप जलाना चाहिए।

पितरों के लिए पार्वण

इस दिन पितरों की प्रसन्नता के लिए पार्वण करने का भी विधान यहाँ किया गया है।

इस रात लक्ष्मी सोकर उठ जाती हैं

रात्रि के अन्त में भगवान् विष्णु के जगने से 11 दिन पूर्व अर्थात् प्रबोधिनी एकादशी से ग्यारह दिन पहले ही लक्ष्मी को जगा देने का भी विधान यहाँ किया गया है और कहा गया कि इन स्त्रियों के घर में एक वर्ष पर्यन्त लक्ष्मी का वास होता है।
यहाँ एक कथा का भी उल्लेख हुआ है जिसके अनुसार ब्राह्मणों के द्वारा अभय पाकर भी असुरगण भगवान् विष्णु से डरते थे। इसी दीपावली रात उन्होंने देखा कि विष्णु सोये हुए है और लक्ष्मी कमल पर विराजमान है, तब वे सब लक्ष्मी की स्तुति इस प्रकार करने लगे –

त्वं ज्योति: श्रीरविश्चन्द्रो विद्युत्सौवर्णतारकः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योति: स्थिता तु या।। 23।।
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले।
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम।। 24।।

इस प्रकार स्तुति करने से असुरगण भी धन-धान्य से सम्पन्न हो गये। इसलिए रात्रि के अन्तिम प्रहर में जब घर के पुरुष सोये हुए हों, स्त्रियों को तुरही, नगाड़ा आदि बजाकर लक्ष्मी को जगाना चाहिए। तथा दरिद्रा को घर से बाहर भगाना चाहिए-

एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्द्धलोचने।
तावन्नगरनारीभिस्तूर्यडिण्डिमवादनैः।।
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीश्च गृहाङ्गणात्।। 28।।

राजा बलि के भोग के लिए यह दिन-रात

दीपावली के सम्बन्ध में एक अन्य विवरण भविष्य-पुराण के उत्तरखण्ड के 140वें अध्याय में भी उपलब्ध होता है। यहाँ श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के संवाद के रूप में यह विवरण दिया गया है। इस स्थल के अनुसार जब वामनावतार भगवान् विष्णु ने राजा बली को पाताल लोक भेज दिया, तब पुन: उन्होंने एक अहोरात्र (दिन और रात) राजा बली के उपभोग के लिए छोड़ दिया। यही यह अहोरात्र है। इस दिन अपराह्ण में मार्गपाली की कुश की प्रतिमा बना कर खम्भे या वृक्ष से बाँध देना चाहिए तथा हाथी आदि की पूजा करनी चाहिए। रात्रि होने पर दैत्यराज बली की पूजा का भी विधान यहाँ किया गया है। इसके लिए पाँच रंगों से राजा बली तथा महारानी रत्नावली का चित्र बनाना चाहिए। साथ ही उनके पर्षद्गण असित, कूष्माण्ड, बाण, जंघोरु, और मुर का भी चित्र बनाना चाहिए। राजा को चाहिए कि वे दो हाथ वाले राजा बली की पूजा अर्चना श्रद्धापूर्वक करें। यहाँ राजा बली द्वारा दिये गये दान का स्मरण किया गया है तथा उन्हें श्रेष्ठ विष्णुभक्त माना गया है। पूजा के बाद रात्रि-जागरण का भी विधान किया गया है। सामान्य जनता द्वारा भी शय्या पर चावल से बली की प्रतिमा बनाकर पूजा करने का उल्लेख किया गया है। इस दिन दान करने का प्रशस्त माहात्म्य गाया गया है।

कौमुदी महोत्सव

इस दीपावली के दिन में कौमुदी महोत्सव का उल्लेख यहाँ प्राप्त होता है। कौमुदी शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि कु अर्थात् पृथ्वी पर इस दिन सभी लोग मुदित अर्थात् प्रसन्न रहते है अत: इसे कौमुदी कहा गया है-

कुशब्देन मही ज्ञेया मुदा हर्षे ततः परम्।।61।।
धातुज्ञैर्नैगमज्ञैश्च तेनैषा कौमुदी स्मृता।
कौ मोदन्ते जनाः यस्यां नानाभावैः परस्पराः।। 62।।
हृष्टास्तुष्टा: सुखायत्तास्तेनेषा कौमुदी स्मृता।

यहाँ कहा गया है कि इस दिन हमें प्रसन्न रहना चाहिए। इस दिन हमारी जैसी मानसिकता रहेगी वही स्थिति पूरे साल भर रहेगी-
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति हि।। 68।।

राजा बलि के बन्धन से लक्ष्मी छुडायी गयी थी

एक कथा के अनुसार त्रयोदशी के दिन समुद्र-मन्थन से अमृत कलश के उत्पन्न होने पर जब राजा बली उसे छीनकर भागने लगा तो वहाँ खड़ी लक्ष्मी का भी उन्होंने अपहरण कर लिया और उन्हें कारागार में डाल दिया। अमावस्या की रात्रि में भगवान् ने लक्ष्मीजी को  बन्धन से मुक्त कराया। अतः इस रात्रि जो लक्ष्मी की आराधना करते हैं, वे धन-धान्य से पूर्ण हो जाते हैं।

रामायण के समान पवित्र यह दीपावली

इसके अन्त में कौमुदी-महोत्सव अथवा दीपावली की स्तुति काव्यात्मक रूप में इसकी तुलना रामायण से करते हुए कहा गया है
उपशमितमेघनादं प्रज्वलितदशाननं रमिततरामम्।
रामायणमिव सुभगं दीपदिनं हरतु वो दुरितम्।। 72।।

अर्थात् रामायण में मेघनाद के अन्त का प्रसंग है तो दीपावली में मेघ का गर्जन शान्त रहता है। रामायण में दशानन के जलने का वर्णन है तो दीपावली में दशो दिशाओं का मुख प्रकाशित रहता है। रामायण दशरथनन्दन श्रीराम से शोभित है तो दीपावली अपनी रमणीयता के कारण शोभित है। इस प्रकार रामायण के समान यह दीप का पर्व भी हमारे पापों का नाशक बने।

दीपोत्सवे जनितसर्वजनप्रमोदां
कुर्वन्ति ये सुमनसो बलिराजपूजाम्।
दानोपभोगसुखवृद्धिशताकुलानां
हर्षेण वर्षमिह पार्थिव याति तेषाम्।। 73।।

अर्थात् हे राज़न्! इस दीपोत्सव के अवसर पर जो राजा बली की पूजा करते हैं वे सभी प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। दान, उपभोग, सुख, समृद्धि आदि सैकड़ों वस्तुओं के लिए व्याकुल लोगों का सम्पूर्ण वर्ष हर्ष के साथ बीतता है।

कालरात्रि है यह

शाक्त परम्परा में दुर्गासप्तशती में कहा गया है कि वर्ष भर में तीन रात्रियाँ महत्त्वपूर्ण है- (1) कालरात्रि, (2) महारात्रि एवं (3) मोहरात्रि। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा। इन तीनों स्वरूपों में देवी की उपस्थिति रहती है। इनमें कालरात्रि यही दीपावली की रात है। महारात्रि नवरात्र की अष्टमी की रात्रि है तो मोहरात्रि कृष्णाष्टमी की रात्रि है। दीपावली की रात्रि कालरात्रि में देवी महाकाली की उत्पत्ति हुई है। अतः बंगाल एवं मिथिला में इस रात्रि देवी काली की पूजा की जाती है।

कालीपूजा पौराणिक और तान्त्रिक दोनों विधियों से होती है।

आधी रात में होती है काली पूजा

बृहद्धर्मपुराण में कहा गया है कि कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को काली की उत्पत्ति  थी, अतः इस उपलक्ष्य में आधी रात में पूजा करनी चाहिए। रुद्रयामल तन्त्र में कहा गया है कि कार्तिक अमावस्या की रात्रि में जिस काली की पूजा होती है, वह विद्या के स्वरूप में प्रसन्न होकर उत्तम बुद्धि प्रदान करतीं है। अतः मिट्टी की मूर्ति बनाकर पद्धति के अनुसार विधान से काली की पूजा करनी चाहिए।

करोड़ों योगिनियों के साथ इस रात उत्पन्न हुई थीं काली

विश्वसार तंत्र में कहा गया है कि

“कार्त्तिके कृष्णपक्षे तु पञ्चदश्यां महानिशि।

आविर्भूता महाकाली योगिनीकोटिभिः सह॥

यह पूजा रात में ही होती है और सूर्योदय से पहले विसर्जन मूर्ति विसर्जित कर देने  विधान है। रात्रि में चक्रपूजा, जो आवरण पूजा है, उसमें देवी के चारों ओर यन्त्र पर अवस्थित योगिनियों की पूजा अंग देवता, परिवार देवता तथा आवरण देवता के रूप में होती है। यह पूजा गुप्तरूप से होती है। जो दीक्षा ले चुके हैं वे ही इस पूजा में भाग ले सकते हैं। इसका प्रमुख कारण है कि दीक्षा लेने वाले यानी गुरुमुख हो चुके लोग ही इसके विधान तथा काली पूजा में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दों को समझ पायेंगे। जो गुरुमुख नहीं हुए हैं, वे इस पूजा के विधानों को गलत अर्थ प्रयोग कर परम्परा के उदात्त स्वरूप को नष्ट कर देंगे। जानना चाहिए कि आगम की दोनों शाखाएँ पौराणिक तथा तंत्र की परम्पराओं में काली पूजा होती हैं। दोनों में दीक्षा लेने के लिए जाति का कोई बन्धन नहीं है। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। आवरण पूजा यानी चक्र पूजा में भाग लेने के लिए दीक्षा लेकर साधना करना ही एकमात्र शर्त होती है।

इस प्रकार दीपावली भारत की अनेक संस्कृतियों का संगम है।

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