हाल में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पदाधिकारी डॉ. एन. के. पाठकजी ने सूचना दी कि अरवल स्थित उनके मित्र के पास कैथी लिपि की कुछ पाण्डुलिपियाँ हैं। उन्होंने इसके कुछ पत्रों की छाया भी भेजी। अवलोकन से पता चला कि एक ही जिल्द में श्रीमद्भगवद्गीता का दोहा-चौपाई में अवधी पद्यानुवाद, चण्डीरामायण, हनुमान चालीसा, भरत-विलाप तथा सूरज दास कृत रामजनम ये चार रचनाएँ हैं। इनमें प्रस्तुत अंक के लिए भरत विलाप प्रासंगिक प्रतीत हुआ तो मैं ने उस पाण्डुलिपि के संधारक श्री बुद्धदेव कुमार, ग्राम- देवी बीघा, पो. सतरी खुर्द, थाना- परासी, जिला अरवल से सम्पर्क किया। वे मध्य विद्यालय इंजोर, कलेर अरवल में प्रधानाध्यापक भी हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में रुचि दिखायी और उसे लेकर वे पटना आये। मैंने देखा तो पता चला कि वह पाण्डुलिपि नहीं, बल्कि लीथो विधि से प्रकाशित रचना है। इसका प्रकाशन 1886ई.मे कलकत्ता के जानबाजार से हुआ है।

इसमें अन्य ग्रन्थ खण्डित हैं किन्तु हनुमान चालीसा तथा ‘भरत-विलाप’ पूर्ण है। ‘भरत विलाप’ का अवलोकन करने पर पता चला कि इसमें तुलसीदास के नाम का उल्लेख अनेक दोहों में भनिता के रूप में हुआ है। इसकी कथावस्तु राम के वनगमन से लेकर चित्रकूट से भरत के लौट आने तक की है। अतः इस स्रोत के आधार पर ‘भरत विलाप’ का विवेचन यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है।

खासकर इसकी भाषा क्या है इसे लेकर पुनः विवेचन आवश्यक है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखें-

पाती   बांची जो महल में जाई। स्रुजबंस   के    कुलहंसी   जाई॥

की हम  बनबिच काटल बांसा। की   हम दल बिच मारल हांसा॥

की  हम  गरुड पंख धरि मोरा। लिखा लिलार बिधिना धरि तोरा॥

रोबै   कोसिला  फाड़ि  पटोरा। राजा   दसरथ  राखहु कुल मोरा॥

आलोचकों के विचार आमन्त्रित हैं। पूरा आलेख पढें-

महावीर मन्दिर की पत्रिका धर्मायण का भरत-चरित विशेषांक

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