कांची के मदुरै में आयोजित सभा में त. शं. नारायण शास्त्री ने कहा था कि “आज भारतवर्ष में धार्मिक पतन को रोकने में केवल दरभंगा के राजा रमेश्वर सिंह एवं परमात्मा ईश्वर समर्थ हैं, अन्य कोई नहीं…”

परतंत्र भारत में 20वीं शती के आरम्भ में धार्मिक जगत् में दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह एकमात्र नायक के रूप में देखे जाते हैं। यह समय था जब ईसाई मिशनरियाँ भारत के लोगों को ईसाई बनाने में जी-जान से जुटी हुई थी।

19वीं शती के अंत में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द वेदों की ओर लौटने की बात प्रचारित किया था। उन्होंने पुराणों का खण्डन कर  दिया था, जिससे भारत का एक विशाल सनातन समाज धर्म से वंचित घोषित कर दिया गया था।

दयानन्द ने जनभाषा में लिखे धार्मिक ग्रन्थों को हिन्दू धर्म के लिए घातक मानकर उन्हें भी धर्मविरुद्ध घोषित कर दिया था फलतः भारत में वैदिक काल के बाद जितने भी धर्मसुधार आन्दोलन हुए थे, वे सारे आन्दोलन खारिज कर दिये गये।

आगम शाखा, पौराणिक शाखा, जनभाषाओं में धर्मप्रचारकों का आन्दोंलन- सब के सब आर्य समाज के आन्दोलन के द्वारा खारिज कर दिये गये। गोरखनाथ, रामानन्दाचार्य, कबीर, तुलसी, रैदास, आदि के द्वारा आम जनता को धर्म से जोड़ने के लिए जितने प्रयास किये गये थे वे सारे खारिज कर दिये गये।

परिणाम यह हुआ कि उस काल के तथाकथित दलित जनता को ईसाई बनाने के लिए आर्य समाज ने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। इस स्थिति में सनातन धर्म को बचाना एक कठिन कार्य था।

भारत धर्म महामंडल इसी कार्य के लिए संगठित एक धार्मिक संस्था थी। इसके अध्यक्ष के रूप में महाराज रमेश्वर सिंह ने सनातन धर्म को सुदृढ़ करने का अथक प्रयास किया और लोगों को ईसाई बनने से रोका। उन्होंने बनारस में दयानन्द नामक एक सनातनी पंडित से सत्यार्थ-विवेक नाम ग्रन्थ लिखाया।

“श्रीसत्यार्थविवेक (प्रथम खण्ड) Sri Satyartha Viveka (VOL. I), AN EXPOSITION OF SANATAN DHARMA AS THE BASIS OF All Religion and Philosophy. श्री स्वामी दयानन्द विरचित। श्री भारत धर्म महामण्डल प्रधान कार्यालय के शास्त्र प्रकाश विभाग द्वारा प्रकाशित। काशी। प्रथम संस्करण, 1915 ई. LUCKNOW : PRINTED BY BHARGAVA AT THE NEWUL KISHORE PRESS.1916. All Rights Reserved., मूल्य साधारण संस्करण १॥ रु०], [राज संस्करण ५)”

इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है-

“श्रीगुरुचरणसरोज के निकट बैठकर संसार-पारावार-निस्तारण श्रीगुरुमहाराज के श्रीमुख से वेद के गभीर विज्ञान को समझते समय और दर्शनशास्त्र और योगशास्त्र आदि अध्ययन करते समय मेरे चित्त में स्वतः ही यह वासना उत्पन्न हुआ करती थी कि वह अपूर्व धर्मविज्ञान और गंभीर दार्शनिक तत्व कि जो कालप्रभाव से बहुत दिनों से लुप्तप्राय थे उनको जगत् के कल्याणार्थ और सनातनधर्म के पुनः प्रचारार्थ एक पुस्तकाकार में प्रकाशित करूं; विशेषतः चित्त इस विचार से और भी व्यग्र होता था कि जो वेद का सारभूत अध्यात्मज्ञान एकमात्र श्रीगुरुकृपा से मुझे प्राप्त हो रहा है उसको लिपिबद्ध करके जगत्कल्याणार्थ प्रचार करूं। इसी अवसर में भारतधर्म्ममहामंडल के प्रधान सभापति मिथिलाधिपति श्रीमान् रमेश्वर सिंह सिंहजी के. सी. आई. ई. इत्यादि उपाधिधारी ने परमाराध्य परमपूज्य श्रीगुरुदेव से प्रार्थना की कि इस कराल कलिकाल के उपयोगी सनातनधर्म का एक बृहत् सिद्धान्तग्रन्थ ऐसा प्रकाशित किया जाय कि जिसमें सनातन धर्म साङ्गोपाङ्ग विस्तृतरूप से वर्णित हो और उसके द्वारा सनातनधर्म के सब वर्ण व आश्रम के व्यक्ति और सब संप्रदाय और पन्ध के अधिकारी पूर्ण ज्ञान पास करसके । इन्हीं दिनों में धर्मपचारार्थ मेरा सञ्चार भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में हुआ, इस भ्रमण में मैंने भारत के सब प्रान्तों में ऐसे एक बृहत् धर्म्मग्रन्थ की बड़ी भारी आवश्यकता अनुभव करके श्रीगुरुचरणों में साञ्जाल निवेदन किया। तदनन्तर श्रीगुरुमहाराज के धन व उपदेशों का एकमात्र आश्रय लेकर श्रीमत्प्रभु की प्राज्ञा से ही इस महत्कार्य को प्रारम्भ किया है।” (प्रस्तावना, पृ. संख्या 2-3)

दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह के द्वारा किये गये कार्यों की गूँज सम्पूर्ण भारत में फैल गयी। 1916ई. में कांची में मन्द्रपुरी वर्णाश्रमधर्मसंरक्षणसभा का गठन हुआ था। इसके प्रथम वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर संस्कृत भाषा में एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी थी- धर्मव्यतिक्रमविलापः। इसका अर्थ हुआ कि वर्तमान काल में धर्म परिवर्तन देखकर अथवा धर्म में सब कुछ उलटा-पुलटा होते देखकर सनातनियों के द्वारा किया गया विलाप। मात्र 16 पृष्ठों की इस पुस्तिका में श्रीदशाऽवतारदण्डक नामक रचना भी प्रकाशित हैं। यह रचना संस्कृत के गेय छन्द दण्डक में है, जिनमें वर्तमान दशा की अवतारणा की गयी है। इनमें ईश्वर से भी प्रार्थना है कि आस विषम परिस्थिति में आप अवतार लेकर हमारी रक्षा करें।

इस पुस्तिका की सामग्रियों का संकलन त. शं. नारायणशास्त्री ने किया है। वे उस समय श्रीमद्रपुरी महान्यायस्थल के न्यायवादी थे। इस पुस्तिका का प्रकाशन 1916ई. में विद्वन्मनोरञ्जिनीमाला के 14वें पुष्प के रूप में मदुरै के शिवरहस्य यंत्रालय से हुआ था।

इस पुस्तिका की पृष्ठ संख्या 5 पर दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह के द्वारा किये गये धर्मकार्यों का आलंकारपूर्ण वर्णन हुआ है-

“केवलमेक एव आयुष्मान् महाकुलप्रसूतो वदान्यशेखरः श्रोत्रियवरिष्ठः श्रीदरभङ्गापरयथार्थनामधेय श्रीमद्धनुर्भङ्गदेशमहाराजः, सनातनधर्मे बलात्कारमेनमसहमानः, महामोहान्धतामिस्रके निपतितं भारतवर्षमिमं, चातुर्वर्ण्यप्रतिष्ठापनेन, सर्वभारतसमयसामरस्यप्रदर्शनेन, ईश्वरभक्ति-गुरुभक्ति-राजभक्तिप्रवर्धकसार्वलौकिकसद्गीतावलिप्रवर्तनेन, श्रीवारणस्यां भारतार्यसर्वस्वभूतविश्वविद्यालयप्रतिष्ठापनेन च, पुनरप्युज्जीवयितुं प्रयतते न चैतस्य, ऋते परमात्मनः, कोऽपि साहाय्यं विदधाति। इदानीमेव हरद्वारादिषु केषुचित् स्थलेषु सनातनधर्मस्य उद्यानं विकसितमिव समवलोक्यते।”

इस संस्कृत पंक्ति का अनुवाद तथा विवेचन हमें इस प्रकार देखना चाहिए-

  1. केवलमेक एव आयुष्मान् महाकुलप्रसूतो वदान्यशेखरः श्रोत्रियवरिष्ठः श्रीदरभङ्गापरयथार्थनामधेय श्रीमद्धनुर्भङ्गदेशमहाराजः,- केवल एक ही आयुष्मान् महान् कुल में उत्पन्न, दानियों में मूर्द्धन्य श्रेष्ठ, वेद को जानने वालों में श्रेष्ठ, जिस देश में धनुष भंग हुआ था ऐसे मिथिला देश, जिसका दूसरा  और यथार्थ नाम श्रीदरभंगा है ऐसे देश के महाराज (रमेश्वर सिंह)
  2. सनातनधर्मे बलात्कारमेनमसहमानः,- सनातन धर्म में इस प्रकार की जबरदस्ती को सहन नहीं करते हुए
  3. महामोहान्धतामिस्रके निपतितं भारतवर्षमिमं– विशाल मोह रूपी अंधकार में गिरे हुए इस भारतवर्ष को
  4. चातुर्वर्ण्यप्रतिष्ठापनेन,- चार वर्णाश्रम धर्म की स्थापना के द्वारा
  5. सर्वभारतसमयसामरस्यप्रदर्शनेन,- अखण्ड भारत में समानता के प्रदर्शन के द्वारा
  6. ईश्वरभक्ति-गुरुभक्ति-राजभक्तिप्रवर्धकसार्वलौकिकसद्गीतावलिप्रवर्तनेन,- ईश्वर, गुरु तथा राजा में भक्ति को बढ़ाने वाले तथा सभी लोगों के लिए सुन्दर गीतों की रचना करने वाले जो महाराज थे उनके द्वारा।
  7. श्रीवाराणस्यां भारतार्यसर्वस्वभूतविश्वविद्यालयप्रतिष्ठापनेन च,- वाराणसी में भारतीय आर्य के लिए सर्वस्व के रूप में विश्वविद्यालय की स्थापना के द्वारा भी।
  8. पुनरप्युज्जीवयितुं प्रयतते– (भारतवर्ष को) फिर से जीवन प्रदान करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं।
  9. न चैतस्य, ऋते परमात्मनः– ऐसे महाराज तथा परमात्मा को छोड़कर
  10. कोऽपि साहाय्यं विदधाति। -कोई सहायता करने वाला नहीं है।
  11. इदानीमेव हरद्वारादिषु केषुचित् स्थलेषु सनातनधर्मस्य उद्यानं विकसितमिव समवलोक्यते।”– इन्ही दिनों हरद्वार आदि अनेक स्थलों पर सनातन धर्म का बगीचा विकसित होता हुए दिखाई देने लगा है।

इस प्रकार हम सुदूर दक्षिण भारत में दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह के कार्यों की ख्याति की अनुभव कर सकते हैं।

1 Comment

  1. सनातन धर्म के रमेश्वर सिंह की अध्यक्षता में भारत धर्म महामंडल द्वारा बुलायी गयी थी. संरक्षक , श्रोत्रिय कुलभूषण महाराज रमेश्वर सिंह का उल्लेख करते हुए जॉन आर मैकलेन ने अपनी पुस्तक Indian Nationalism and the Early Congress मे लिखते हैं कि Mohamdan Defence Association के शुरू होने के दो साल के अंदर सनातन धर्म महासभा की स्थापना दिल्ली और हरिद्वार में हुई जिसका लक्ष्य hinduism को आर्यसमाज और इस्लाम जैसे से बचाना था. 700 हिन्दू सभा के प्रतिनिधियों की सभा 1900 में दिल्ली में महाराज रमेश्वर सिंह की अध्यक्षता में भारत धर्म महामंडल द्वारा बुलायी गयी.

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