भवनाथ झा

इतिहास का अध्ययन करते समय अक्सर हम केन्द्रीय सत्ता में बैठे साम्राज्य का अध्ययन कर सम्पूर्ण क्षेत्र की सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का आकलन कर बैठते हैं जिसके कारण बहुत कुछ अन्धकार में रह जाता है। खासकर मुगल काल के इतिहास में यह स्थिति देखने को मिलती है। हम यह मान बैठते हैं कि मुगल काल में हर क्षेत्र में धार्मिक उन्माद रहे होंगे, शासकीय धर्म के द्वारा अन्य धर्म की प्रजा के धार्मिक उत्पीड़न की बात को हम बद्धमूल मान लेते हैं।

वास्तविकता है कि उस समय हम सत्ता का विकेन्द्रीकरण पाते हैं और एक राजा के अंदर दूसरे राजा, फिर उसके अंदर तीसरे राजा शासन करते रहे हैं। यदि केन्द्रीय राजा को समय पर राज्यकर मिल जाए तो सामान्य रूप से वे अंतरंग शासन में कोई दखल नहीं देते थे। मुगलकाल में भी कई हिन्दू राजा मुगलों के अधीन रहे हैं और अपने अनुसार स्थानीय सत्ता सँभालते रहे हैं। वे समय पड़ने पर अपने राजा को सैन्य-सहायता भी करते रहे हैं। यद्यपि वे केवल सामन्त हुआ करते थे पर अकसर उनकी शासन-व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। मुगलकाल में भी अनेक राजाओं ने सनातन धर्म के आलोक में अपने अधिकार क्षेत्र में धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था करते रहे हैं और वे आज भी अमर हैं।

इस प्रकार, जबतक हम क्षेत्र के स्थानीय इतिहास का अध्ययन नहीं करेंगे तब तक हमें जनता की वास्तविक परिस्थिति का ज्ञान नहीं हो पाएगा। अतः आज भारत के हर क्षेत्र के स्थानीय इतिहास को सामने लाना आवश्यक है।

इस आलेख में मगध क्षेत्र के 17वीं शती के स्थानीय इतिहास संबन्धी विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। जगन्मोहन कृत षट्पञ्चाशद्देशावलीविवृति नामक ग्रन्थ इसका प्रमुख आधार है। इसमें 56 देशों- स्थलों का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। इसका हस्तलेख कोलकाता के संस्कृत महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में संरक्षित है। इन पाण्डुलिपियों का विवरण वहाँ से प्रकाशित विवरणात्मक हस्तलेख सूची- A Descriptive Catalogue of Sanskrit Manuscripts in the Library of Calcutta Sanskrit College, 1903 के काव्यग्रन्थ वाले खण्ड  vol. IV में पाण्डुलिपि संख्या 69. 70 एवं 71 संख्या पर है। वहाँ विवरण देते समय सूचीपत्र निर्माता ने अनेक श्लोकों को उद्धृत किया है। इन श्लोकों के आधार पर सम्प्रति यह आलेख लिखा गया है। ग्रन्थ के संपादित प्रकाशित होने पर विशेष तथ्य सामने आएँगे। प्रस्तुत आलेख में सभी सन्दर्भ उपर्युक्त विवरणी से दिए गये हैं।

वर्तमान में इस देशावली विवृति की पाण्डुलिपियाँ रिकार्ड संख्या 6163 तथा 11517 पर उपलब्ध है, जिनमें क्रमशः 470 एवं 443 पत्र हैं।

इस ‘देशावली-विवृति’ के ग्रन्थकार जगन्मोहन या जगतमोहन हैं। उन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि शक संवत् 1570, तदनुसार, 1648ई. में बैजल भूपति की मृत्यु हुई। उस समय कलि संवत् 4800 चल रहा था। इसी समय बैजल भूपति ने योग के द्वारा अपने प्राण त्याग किए। तब उनके पुत्र जयजित् सिंह ने गंगा के तट पर उनका दाह संस्कार किया। इनकी मृत्यु होते ही देव, मुंगेर आदि स्थानों पर भूमिहार वंश के दुष्ट लोगों ने राजपूतों को सत्ता से हटाकर स्वयं राजा बन बैठे।

शाके सप्ततिबाणचन्द्रगणिते विक्रमस्य च।

जाह्नवीतटिनीतीरे मृतो बैजलभूपतिः।

चत्वार्यब्दसहस्राणि चाब्दानष्टशतानि च।

गतानि कलिकालस्य वत्सराणि नदीतटे।।

तदा बैजलभूपश्च योगमार्गे ह्यसून् जहौ।

हाहाकारो महानासीज्जाह्नवीतटिनीतटे।

जयजित्सिंहो बैजलस्य चक्रुः(?) दाहं पितुर्वपुः।

स्वर्गं गते च बैजले दुष्टा भूपतिवृन्दयः(?)

स्वं स्वं राज्यं च संप्रापुर्भूमिहारकवंशजाः।

देवमुंगेरादिस्थानानि भूमिहारकजातिजाः।

निजायत्तं च संचक्रुर्दूरीकृत्य रजपुत्रकान्॥

तब बैजल भूपति के शासन क्षेत्र में पड़ने वाले परती नामक गाँव में रहते हुए राजा की आज्ञा से लिखे गये ग्रन्थ जो पूर्व में बिखरे हुए थे, कही कहीं खण्डित थे, कहीं उनमें सन्दर्भ सही नहीं थे, ऐसे ग्रन्थ को गाँव वालों के कहने पर बहुत वर्ष बीत जाने पर संशोधित कर तैयार किया।

राजाज्ञया कृतो ग्रन्थो नानोपायान् प्रदर्श्य च।

क्रान्तव्युत्क्रान्तखण्डिते सन्दर्भाशोधितेऽपि च।

स्वर्जातस्य बैजलस्य परतीग्रामवासिना

बहुवर्षव्यत्यये च नियोगात् ग्रामवासिनाम्।

जगन्मोहन आगे लिखते हैं कि इस ग्रन्थ की रचना के लिए उन्होंने विक्रम वंश के द्वारा निर्मित प्रक्रिया कौमुदी का अध्ययन किया। उन्होंने बैजलभूपति के द्वारा विरचित प्रबोधचन्द्रिका का भी अध्ययन किया, जिसे उन्होंने बाल्य अवस्था में लिखी थी। साथ ही राजा की आज्ञा से वृद्धों के मुख से सुनकर और स्वयं अपनी आँखों से देखकर बिज्जल की आज्ञा से देशावली का विवेचन किया। इस ग्रन्थ के निर्माण से कवि जगन्मोहन धनवान् तथा सम्मानित हुए थे।

यथा प्रक्रियाकौमुदीं च विक्रमवंशनिर्मिताम्।

दृष्ट्वा प्रबोधचन्द्रिकां वयसि प्रथमेऽकरोत्।

तथा विक्रमसागरादिग्रन्थान् दृष्ट्वा नृपाज्ञया।

वृद्धोपदेशतश्चैव निजनेत्रप्रदर्शनात्।

देशावलीं विविच्यैव निर्मिता बिज्जलाज्ञया।

देशावलीं समभ्यस्य सभायां भूभुजा सदा।

मान्यो हि वित्तवान् भावी देशावलीप्रसादतः।।

यहाँ पर दो बातें  स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ की रचना जगन्मोहन ने बैजलभूपति के काल में ही की थी किन्तु उनकी मृत्यु के बाद इसे संशोधित कर व्यवस्थित किया। ग्रन्थ रचना के आधार के रूप में इन्होंने प्रक्रियाकौमुदी, प्रबोधचन्द्रिका तथा विक्रमसागर इन तीन ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है।

वर्तमान में प्रक्रियाकौमुदी नामक ग्रन्थ रामचन्द्र-गुणचन्द्र रचित व्याकरण का ग्रन्थ है, किन्तु यहाँ विक्रमादित्य के वंश-परम्परा के किसी व्यक्ति द्वारा रचित प्रक्रियाकौमुदी की चर्चा की गयी है। सम्भव है कि यह कोई अलग ग्रन्थ हो, जो अभी तक अज्ञात है।

दूसरा ग्रन्थ प्रबोधचन्द्रिका है। बैजलभूपति की यह रचना प्रकाशित है। इसका प्रथम प्रकाशन संवत् 1944 तदनुसार 1878 ई. में हरिपन्त खाण्डिलकर के संपादन में राजराजेश्वरी नामक यंत्रालय से हुआ है। इसमें रचनाकार राजा बैजल भूपति का परिचय इस प्रकार दिया गया है-

चन्द्रावतीवदनचन्द्रचकोरधीरः

श्रीविक्रमार्कतनयो नयतन्त्रवेत्ता।

चौहानवंशतिलकः पटनाधिनाथो

राजा चिरं जयति बैजलदेवनामा॥

इस परिचय में बैजल भूपति को चौहान वंश का राजा कहा गया है, जो चन्द्रावती के पति, विक्रमार्क के पुत्र तथा पटना के स्वामी हैं।

यह भी संस्कृत व्याकरण का बालोपयोगी ग्रन्थ है। प्रबोध-चन्द्रिका में ये अजन्तपुंल्लिङ्ग का रूप समझाते हैं-

रामो मेऽभिहितं करोतु सततं रामं भजे सादरं

रामेणापहृतं समस्तदुरितं रामाय दत्तं धनम्।

रामाद्भक्तिरभीप्सिता सरभसं रामस्य दासोऽस्म्यहं

रामे रञ्जतु मे मनः करुणया भो राम मां पालय॥

इसी प्रकार इस व्याकरण के ग्रन्थ में जितने भी उद्धरण हैं सभी रामकथा से लिए गये हैं।

जगन्मोहन द्वारा उद्धृत तीसरा ग्रन्थ है- विक्रमसागर। उन्होंने अपने ग्रन्थ देशावली विवृति को भी विक्रमसागर ग्रन्थ के अन्तर्गत ही माना है। पाण्डुलिपि संख्या 69 की पुष्पिका में है-

इति विक्रमसागरोद्धृतदेशावलीविवृतौ सामान्यतो वङ्गदेशविवरणम्।

सम्प्रति यह विक्रमसागर भी अप्रकाशित है किन्तु इसके सम्बन्ध में म.म. हरप्रसाद शास्त्री[1] का कथन है कि-

The last work which I wish to describe is the Desavali-vivrti, a gazetteer of Eastern India composed in the 17th century at Mogultuly in Patna under the patronage of a Chauhan Zamindar named Vijjala Bhupati by his Pandit, Pandit Jagamohan. One may think that the compilation of the work was inspired by the Aini Akbari, but I think that the inspiration came from a different quarter and the inspiration is absolutely indigenous. Mithila’s great poet Vidyapati was a greatman, he was the first to write a gazetteer under the name of Bhuparikrama. He was followed by a Zamindar named Vikrama and his work is called Vikramasagara. Vijjala Bhupati appears to have been one of the descendants of Vikrama. So Vijjala’s inspirations need not have come from Delhi. But unfortunately good manuscripts of the Gazetteer Literature are not yet forthcoming. Horace Hymen Wilson collected a mass of fragments and it is now deposited in the Sanskrit College Library, Calcutta and I acquired some fragments from Bankura which are now deposited in the Asiatic Society of Bengal. A study of these fragments have given us a mass of information about the Hindus three hundred years ago in Bihar, Bengal and the adjoining districts, their temples, their places of pilgrimage, their administration, their trade, their manufactures, their fortifications, their manners, their customs, their foibles and their habits. Vijjala was followed in in this department of work by the Raja of Pañcakot whose poet Ramakavi wrote a work under the name of Pandavadigvijaya.

म.म हर प्रसाद शास्त्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि देशावली विवृति मिथिला के विद्यापति विरचित भूपरिक्रमण तथा विक्रम विरचित विक्रमसागर से प्रभावित है। बैजल भूपति स्वयं चौहान वंश के हैं और उनके पिता का नाम भी विक्रम है। संभव है विक्रम सागर इसी राजा विक्रम या उनके सभापंडित द्वारा की गयी हो। इन ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ एच.एच. विल्सन को मिली थी तथा स्वयं हर प्रसाद शास्त्री ने भी बाँकुरा गाँव से कुछ हस्तगत की थी, जो संस्कृत कालेज कोलकाता तथा एसियाटिक सोसायटी में संकलित है।

इस प्रकार, यह सामग्री मगध के 17वीं शती के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से विद्यापति की रचना भूपरिक्रमण का एक प्रकाशन हिन्दी अनुवाद के साथ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से डा. वासुकि नाथ झा के सम्पादन में 1987 में हो चुका है। अन्य ग्रन्थ अप्रकाशित हैं, किन्तु पाण्डुलिपि सुलभ है।

उपर्युक्त पाण्डुलिपि विरणात्मक सूची में पाण्डुलिपि संख्या 71 के विवरण में इसी ग्रन्थ से काला पहाड़ का पूरा इतिहास दिया गया है। ध्यातव्य है कि 17वीं शती ने काला पहाड़ बिहार, तथा बंगाल के मन्दिरों को ध्वस्त करने के लिए कुख्यात रहा है। इसका विवरण बहुत रोचक है। इस देशावली-विवृति के अनुसार कलि संवत् 4600 में गुजरात के नीलकण्ठ नामक ब्राह्मण जौनपुर आये। वे दिखने में बहुत सुन्दर थे तथा उनकी उम्र 16 वर्ष थी। वे जौनपुर में यमुना के एक घाट पर पूजा करत हुए सस्वर पाठ कर रहे थे। वहाँ के मुश्लिम राजा की बेटी उनके रूप और स्वर पर मोहित हो गयी। उसने अपनी माँ से मन की बात कही और इस ब्राह्मण से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। नीलकण्ठ  इसके लिए तैयार नहीं थे लेकिन शाह की आज्ञा से उन्हें जबरदस्ती विवाह करा दिया गया। विवाह के बाद भी वे पत्नी से परहेज करते रहे। फिर इन्हें जबरदस्ती गोमांस खिलाया गया। इससे खिन्न होकर इनका शरीर काला पड़ा गया। और इनके मन में देवताओं के प्रति एक आक्रोश का भाव उमड़ा कि ये देवता मेरे रक्षक नहीं रहे। अब वे काल यवन के रूप में शाह की सेना लेकर अगहन महीने में मन्दिरों को ध्वस्त करने के लिए जौनपुर से निकल पड़े।

इस देशावली-विवृति से हमें यह भी पता चलता है कि चौहान वंश के शासन के बाद मगध के बहुत सारे क्षेत्रों पर भूमिहार वंश के राजा बन गये। इस क्षेत्र का धार्मिक और सामाजिक इतिहास के लिए ये सूचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। इस ग्रन्थ के संपादन-प्रकाशन के बाद हमें विशिष्ट सूचनाएँ मिल सकती हैं, जिनसे स्थानीय इतिहास पर प्रकाश पड़ेगा।

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[1] Magadhan Literature, Being A Course of  Six Lectures Delivered at Patna University in December 1920 and April 1921, p. 132

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