यह सर्वविदित है कि मिथिला शाक्तों का स्थल है। यहाँ के लोग यद्यपि पंचदेवोपासक है। वे सूर्य, गणपति, अग्नि, दुर्गा एवं शिव की उपासना पंचदेवता के रूप से तथा पृथक् विष्णु की उपासना नित्यकर्म के रूप में करते हैं। तथापि, शक्ति उपासना की परम्परा यहाँ की लोकसंस्कृति में रची-बसी है। अतः मिथिला की संस्कृति शाक्तों की संस्कृति है।
यहाँ श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की परम्परा तो रही ही है, इसके साथ दुर्गापूजा भी इस दिन की जाती है। कथा है कि इसी दिन यशोदा के गर्भ से महामाया शक्ति का भी आविर्भाव हुआ था। दुर्गासप्तशती में इसका प्रमाण है। देवी स्वयं कहतीं हैं-
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी।।
विन्ध्याचल पर शुम्भ एवं निशुम्भ का वध करनेवाली देवी का जन्म इसी भाद्र कृष्ण अष्टमी की रात्रि श्रीकृष्णजन्म के साथ ही हुआ था।
वैष्णव परम्परा में भी इस तथ्य का उल्लेख है कि वसुदेव श्रीकृष्ण को नन्द के घर पहुँचा आये और वहाँसे यशोदा की पुत्री महामाया को लेकर कारागार पहुँच गये। इस प्रकार गोकुल में भाद्र कृष्ण अष्टमी की रात्रि यशोदा की पुत्री के रूप में विन्ध्यवासिनी माता दुर्गा की उत्पत्ति हुई थी।
इस उपलक्ष्य में मिथिला में जयन्ती पूजा की परम्परा रही है।
परम्परा से यह पर्व मिथिला में मनाया जाता है। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व समस्तीपुर जिला में कल्याणपुर के पास एक गाँव में इस पूजा में इन पंक्तियों का लेखक भाग ले चुका है।
मुझे वहाँ बताया गया था कि दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह के आदेश से इस गाँव में यह पूजा आरम्भ हुई थी। अब पता नहीं, वहाँ भी वह पूजा होती है, या नहीं।
क्या यह मान लिया जाये कि वैष्णव-परम्परा के अत्यधिक प्रचार-प्रसार के कारण यह शाक्त-परम्परा दब कर नष्ट होती जा रही है!