मिथिला के डाक पर्वों का संकेत करते कहते हैं- “सुत्ता उट्ठा पाँजर मोड़ा, ताही बीचै जनमल छोड़ा।” सुत्ता यानी भगवान् के सोने का दिन हरिशयन एकादशी। उट्ठा यानी उठने का दिन देवोत्थान एकादशी। पाँजरमोड़ा- करवट बदलने का दिन पार्श्वपरिवर्तिनी एकादशी। और इसीके बीच ‘छोरा’ यानी बालक श्रीकृष्ण का जन्म होता है। यह मंगलमय दिन भाद्र कृष्ण अष्टमी- श्रीकृष्णाष्टमी आज उपस्थित है।

सनातन धर्म के रत्नभूत भगवान् श्रीकृष्ण का अवतरण भी पृथ्वी को भारमुक्त करने हेतु ही हुआ था। उन्होंने इस माध्यम से “तदात्मानं सृजाम्यहम्” की अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी। आठ वर्ष की अवस्था में कंस का वध किया। उससे पहले ही अपनी बाललीला समाप्त की।

रासलीला का ब्रह्मानन्द

श्रीकृष्ण की यह बाललीला रसब्रह्म का आनन्द देती है। जीव जब थक जाता है, तो वही रसानन्द स्वरूप ब्रह्म उसे अमृत सिन्धु में डुबोकर फिर नयी ऊर्जा प्रदान करते हैं। वही रस है- रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनंदी भवति। भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के पाँच अध्याय- रासपंचाध्यायी उसी ब्रह्मानन्द का दाता है।

नाटक करने वालों ने, रासलीला का प्रदर्शन करनेवालों ने 19वीं शती में दर्शकों को जुटाने के लिए इस रास को शृंगारमय बना दिया- युवा-युवतियों का कोमल नृत्य बना दिया।

रासलीला में वात्सल्य रस प्रवाह

वास्तविकता है कि बाल-बच्चे वाली प्रौढा युवतियों के बीच एक सात साल के बालक का नृत्य है- रास। यमुना का किनारा, चाँदनी रात, दूध से नहायी हुई-सी धरती और उस पर अपने गोप-सखाओं के साथ एक आकर्षक बालक मोर पंख माथे पर, कोनों पर कनेल की कली, वैजयंती की माला धारण किये हुए प्रवेश करते है। अपने होठों के अमृत से बाँसुरी के छिद्रों को भरता हुआ उस सुरम्य रासस्थल पर प्रवेश करता है।

गोकुल की गोपियाँ अपने बच्चों को जल्दी-जल्दी सुला देती है। पति से आज्ञा लेकर उस रासस्थल पर दौड़ पड़ती है और आरम्भ होता है गीत-संगीत-नृत्य का वह मधुरिम संयोग। कहाँ प्राकृतिक वात्सल्य और कहाँ शृंगार! सबने मिलकर विगत दो शतकों से कृष्ण को छिछोरा बना दिया। आज भी भागवत का वाचन करने वाले श्रोताओं को लुभाने के लिए  श्रीकृष्ण के बालरूप को नित्य-कैशोर-मूर्ति बना दिया!!

आज भी किसी समारोह में आधुनिका युवतियों के बीच कोई सात साल का आकर्षक बालक बाँसुरी बजाता आ जाये तो किसकी युवा पत्नी ऐसी शुष्कहृदया होगी जो गोपियाँ न बन जाये! और उस बालक के साथ नृत्य न करने लगे।

ईसाइयों का दुष्प्रचार, सात साल के बच्चे को बना दिया शृंगारी युवक

सन् 1889 में जब जॉन एम. रॉबर्टसन ने ‘क्राइस्ट एण्ड कृष्ण’ नामक पुस्तक लिखी तो उनका उद्देश्य था कि कृष्णकथा के सहारे ईसाइयत का प्रचार करें और महाभारत युद्ध का काल भी अर्वाचीनतर सिद्ध करें। उस समय तक 634 ई. का ऐहौल शिलालेख, जिसमें महाभारतयुद्ध का काल भी लिखित है, प्रकाश में नहीं आया था तो इतिहासकारों ने इसपर चिन्तन आरम्भ किया, पर शिलालेखीय प्रमाण मिलने के बाद चुप हुए।

19वीं शती के अन्त में कृष्ण के रासेश्वर के स्वरूप पर अंगरेज ईसाइयों ने काफी अपवाह फैलाया और भारतीय जनमानस को दिग्भ्रान्त किया। कमोवेश आजतक वह भ्रान्ति लोगों में विद्यमान है, जो गोपियों के साथ उनके सम्बन्ध में अश्लीलता की बात करते है। जिन्होंने भागवत का अध्ययन नहीं किया, है वे आज भी  श्रीकृष्ण के रासेश्वर रूप पर मौन धारण कर योगेश्वर के स्वरूप पर केन्द्रित हो जाते हैं। लेकिन भागवतकार एक ही सर्ग में दो बार लिखते हैं कि गोवर्द्धन-लीला के समय श्रीकृष्ण केवल सात वर्ष थे। 

यः  सप्तहायनो   बालः  करैणेकेन लीलया।
कथं  बिभ्रद्  गिरिवरं  पुष्करं गजराडिव।।3।।
क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम्।
ततो नो जायते शंका व्रजनाथ तवात्मजे।।14।।

अर्थात् जो सात वर्ष का बच्चा एक ही हाथ से खेल-खेल में विशाल पर्वत को उठा लिया है, जैसे कोई हाथी एक कमल को उठा लेता है। कहाँ सात साल का बच्चा और कहाँ विशाल पर्वत को धारण करना! अतः हे व्रज के स्वामी, नंद, आपके पुत्र के प्रति हमारे मन में कोई संदेह नहीं रहा।

मुरली बजाते, गीत-गाते सज-धज कर नाचते सात वर्ष के बालक के साथ विवाहिता, प्रौढ़ा गोप-युवतियों की रासलीला में क्या मर्यादा होगी, इसका प्रत्यक्षीकरण तो वे ही कर सकते हैं, जिनके मन में कोई कुण्ठा नहीं है। दरअसल यौनकुण्ठा हमारे मन में फैलती गयी है। श्रीकृष्ण की सम्पूर्ण लीला को हमारे प्राचीन सन्तों और ऋषियों की दृष्टि से देखने की जरूरत है।

19वीं शती में प्रकाशित प्रेमसागर में प्रकाशित वसुदेव द्वारा यमुना पार करने का दृश्य

योगेश्वर श्रीकृष्ण और उऩकी गीता

गोकुल के रासेश्वर श्रीकृष्ण एवं महाभारत के योगेश्वर श्रीकृष्ण के बीच जो महान् विविधता है, वह श्रीकृष्ण को एक विशाल पर्वत के समान बना देता है, जिस पर्वत की दोनों ओर की तलहटी को कोई व्यक्ति एक साथ दर्शन करने में असमर्थ है। यहीं श्रीकृष्ण का विराट् रूप है, जिसका दर्शन केवल अर्जुन ने किया था।

इसके बाद श्रीकृष्ण मे सांदीपनि मुनि के आश्रम में शिक्षा पायी और द्वारका का शासन सँभाला। महाभारत के युद्ध में पहले शान्ति-स्थापना का भरपूर प्रयास किया, किन्तु सफलता नहीं मिलने पर युद्ध होने की स्थिति में योगेश्वर की भूमिका निभाते हुए अर्जुन को 700 श्लोकों की गीता का उपदेश किया, जो सभी उपनिषदों का सारतत्त्व बन कर भारतीय चेतना को उद्बुद्ध करता रहा।

लेकिन आज भी ऐसे अपवाह फैलानेवालों की कमी नहीं है। पूर्व में खण्डित किये गये तथ्यों को फिर से उठाकर लोगों को भ्रान्त कर रहे हैं। हमें उन दुष्प्रचारों को समझकर अपनी संस्कृति की गहरी जड़ों को पहचानना होगा। आज भी विधर्मी मूल कथाओं में तोड़-मरोड़ कर प्रचारित कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें अपने मूल-ग्रन्थों का अध्ययन करना होगा, हमें लोक-परम्परा में झाँककर देखना होगा।

।। जय श्रीकृष्ण! कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ।।

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