हनुमानजी की स्तुतिमे हनुमानचालीसा आज सबसे प्रसिद्ध स्तोत्र है। गीताप्रेस से प्रकाशित तथा सर्वत्र प्रचलित पाठ में एक स्थान पर काँधे मूँज जनेउ छाजै पाठ है।

इसका अर्थ लगाया जाता रहा है कि हनुमानजी के कंधे पर मूँज का जनेऊ है। कहीं भी जनेऊ मूँज का नहीं होता है। तब कैसे गोस्वामीजी ने ऐसी गलती की? गोस्वामीजी ने कोई गलती नहीं की। हम-आप बाँधे मूँज जनेऊ साजै के बदले काँधे मूँज जनेऊ साजै पढकर गलती कर रहे हैं।
देवनागरी में क और बा ये दो अक्षर एक-जैसे ही दीखते हैं। किसी ने बाँधे को कंधे पढ लिया, छप गया, लोगों के बीच प्रचलित हो गया। आज हम किसी को कहें तो विश्वास नहीं होगा।

पर तुलसीदासजी की इस पंक्ति का मूल श्लोक हनुमत्-कवचम् में देखिए-
उद्यत्मार्त्तण्डकोटि प्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं
मौञ्जीयज्ञोपवीताभरणमुरुशिखाशोभितं कुण्डलाभ्याम्।
भक्तानामिष्टदानप्रणयमनुदिनं वेदनादप्रमोदं
ध्यायेद्देवंविधन्तं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवार्द्धिम्||१।।
यहाँ दूसरी पंक्ति का अर्थ है- मौंजी और यज्ञोपवीत को आभूषण की तरह धारण किये हुए हनुमानजी कुण्डल से सजे हुए हैं।

मौंजी का अर्थ है- मेखला, जो कमर में बाँधी जाती है। यह ब्रह्मचर्य का द्योतक है। सब जानते हैं कि हनुमान् जी ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ हैं। बिना मेखला बाँधे कोई ब्रह्मचारी कैसे कहलायेगा?

वे सबसे उत्कृष्ट कोटि की मेखला पहनते हैं, जो मूँज की बनी होती है। यहीं उनकी पहचान है। कहीं भी कोई मूँज के जनेऊ के उल्लेख की चर्चा दिखावें। एक भले आदमी से मैंने पूछा तो वे कहने लगे कि उपनयन में मूँज का जनेऊ पहनाया जाता है। अब देखें कि उपनयन के काल में क्या विधान है?
मूँज की मेखला धारण करते समय यह मन्त्र पढा जाता है-

इयं दुरुक्तात् परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनती न आगात्।
प्राणापानाभ्यां बलं आहरन्ती स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम् ।
ऋतस्य गोप्त्री तपसः परस्वी घ्नती रक्षः सहमाना अरातीः।
सामा समन्तं अभिपर्येहि भद्रे धर्तारस्ते मेखले मारिषाम।

यहाँ स्पष्ट रूप से मेखला इयं शब्द है। यह मेखला हमरा बहन के समान है, जो हमें किसी पर-नारी के साथ सम्पर्क बनाने से रोकती है, हमारे सत्य की रक्षा करती है। हमें नैतिकता का पाठ पढाती है। ब्रह्मचारी के लिए इसका धारण करना अनिवार्य है। इसके बिना हनुमानजी के पूर्ण रूप की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। लोगों ने हनुमान-चालीसा में इस अंश को बदलकर अर्थ का अनर्थ कर दिया है।

इस प्रकार के अनेक ऐसे स्थल हनुमान-चालीसा में है, जहाँ पाठ-संशोधन आवश्यक है। उदाहरण के लिए संकर सुवन केसरी नन्दन में सुवन शब्द स्वयं के अर्थमे होना चाहिए। हनुमानजी स्वयं महादेव के रूप हैं। हनुमानचालीसा की एक पाण्डुलिपि मुझे काश्मीर से मिली है। इस पाण्डुलिपि के आधार पर हनुमान-चालीसा का पाठ संशोधन किया गया है।

हनुमान चालीसा की एक अन्य प्राचीन पाण्डुलिपि भी मिली है, जिसमें कांधे माझ जनेऊ छाजै पाठ है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कन्धे के बीचमे जनेऊ शोभित हो रहा है।

आश्वालायन ऋषि ने कहा हैं कि ब्राह्मण मुञ्ज की, क्षत्रिय धनुष के प्रत्यंचा की, और वैश्य भेड के ऊन की मेखला धारण करें।
मेखला मौञ्जी ब्राह्मणस्य धनुर्ज्या क्षत्रियस्यावी वैश्यस्य।।आश्वालायन।।
“त्रिवृता मेखला कार्या त्रिवारं स्यात्समावृता।
तद्ग्रन्थयस्त्रयः कार्याः पञ्च वा सप्त वा पुनः।।”
तीन सूत की मेखला निर्माण करैं, फिर उसको तीन तार की बनाकर इसमें तीन, एक,पाँच गाँठ लगायैं।
मौंज्याभावे तु कर्तव्या कुशाश्मन्तक-वल्वजैः।। मनुः।।
मनुजी ने कहा हैं कि मौञ्जी न मिलैं तो कुश, अश्मन्तक (धान के पत्ते), वल्वज की मेखला बनावें।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हनुमानजी मूँज की मेखला धारण करते हैं, जो उनके ब्रह्मचर्य का चिह्न है। वे मूँज का जनेऊ नहीं पहनते। हनुमान-चालीसा में बाँधे मूँज, जनेऊ साजै- यह पाठ होना चाहिए।

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