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Home›पाबनि-तिहार›मिथिलामे हरितालिका व्रतक संस्कृत कथा

मिथिलामे हरितालिका व्रतक संस्कृत कथा

By Bhavanath Jha
October 4, 2019
344
2
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हरिताली, तीज, मैथिली कथा

मिथिलामे पहिने संस्कृत भाषामे कथा कहबाक आ सुनबाक विधान छल। महिलालोकनि ई कथा कोनो विद्वान् व्यक्तिसँ सेहो सुनि सकैत छथि, अथवा अपनहिं पढि सकैत छथि।

आइ महिला स्वयं पढ़ि-लीखि रहल छथि। बहुतो एहन भेटतीह जे संस्कृत जनैत छथि। ई नीक संकेत थीक। हुनकहु मुँहें कथा सुनबामे कोनो हर्ज नै। हमरालोकनिकें अपन परम्पराक रक्षा करबाक लेल ई आवश्यक अछि।

संस्कृतमे कथा

मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।
कैलाससिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शंकरम्।
गुह्याद् गुह्यतरं गुह्यं कथयस्व महेश्वर।।1।।
सर्व्वेषां धर्मसर्वस्वमनायासेन यत्फलम्।
प्रसन्नोऽसि जगन्नाथ सत्यं ब्रूहि ममाग्रतः।।2।।
केन चासि मया प्राप्तो दानेन तपसापि वा।
अनादिमध्यनिधनो भर्त्ता त्वं जगतः प्रभुः।।3।।

ईश्वर उवाच।

शृणुष्व  कथयिष्यामि  तवाग्रे व्रतमुत्तमम्।
गुह्यं ममैतत् सर्वस्वं कथयिष्यामि ते प्रिये।।4।।
यथा चोडुगणे चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च।
वर्णानां च यथा विप्रो देवानां विष्णुरुत्तमः।।5।।
नदीनाञ्च यथा गङ्गा पुराणानाञ्च भारतम्।
वेदानाञ्च यथा साम इन्द्रियाणां यथा मनः।।6।।
पुराणं वेदसर्वस्वमागमेन यथोदितम्।
श्रद्धया त्वं शृणुष्वेदं यथावृत्तं पुरा व्रतम्।।7।।
भाद्रे मासि सिते पक्षे तृतीया हस्तसंयुता।
तदाचरणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते।।8।।
शृणु देव त्वया पर्वमजानन्त्या कृतं व्रतम्।
तत्सर्वं कथयिष्यामि यथा दृष्टं हिमाचले।।9।।

पार्वत्युवाच।।

कथं कृतं मया पूर्वं व्रतानां व्रतमुत्तमम्।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्सकाशान्महेश्वर।।10।।

ईश्वर उवाच।

अस्ति देवि महादिव्यो हिमवान् नग उत्तमः। 
नानावृक्षवरै रम्यो नानाशृङ्गादिचित्रितः।।11।।
यत्र देवा सगन्धर्वा सिद्धचारणगुह्यकाः।
विचरन्ति यथाहृष्टं गन्धर्वाः गानतत्पराः।।12।।
स्फाटिकैः काञ्चनैः शृङ्गैर्मणिवैदूर्यभूषितैः।
शिखित्रयैरिवाकाशे हिमवानेव राजते।।13।।
हिमानी रम्यशृङ्गाग्रे गङागपात विचित्रितः।
अप्सरोनृत्यसंघातैः शोभते यो नगेश्वरः।।
तत्र त्वं पार्व्वती बाला कुर्वन्ती सुमहत्तपः।
अब्दानां सहस्रं वै धूमपानमधोमुखी।
लक्षाब्दं पक्वपर्णाशा त्यक्तपर्णा ततः परम्।
दृष्टं तातेन तत्कष्टं चिन्तया दुःखितोभवत्।
कस्मै देया मया कन्या इति चिन्तापरोभवत्।
तस्यैवं चिन्तयानस्य मुनिर्नारद आययौ।।
अर्घ्यादिभिस्तमभ्यर्च्य हिमवानभ्यभाषत।

हिमवानुवाच।

किमर्थमागतं तेद्य कथ्यतां मुनिसत्तम।।

नारद उवाच।

शृणु देव यथाज्ञा मे विष्णुना प्रेषिता वयम्।
योग्यं योग्याय दातव्यं कन्यारत्नमिदं त्वया।
वासुदेव समो नास्ति ब्रह्मविष्णुशिवादिषु।
चिन्ता न कार्या कन्येयं दीयतां मम साम्प्रतम्।।

हिमवानुवाच

वासुदेवसमो देवः कन्या प्रार्थयते यदि।
तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौरवात्।।
तच्छ्रुत्वा स ययौ शीघ्रं नारदः केशवं प्रति।
उपगम्य मुनिर्देवं शंखचक्रगदाधरम्।।22।।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा मुनीन्द्रोऽप्यभ्यभाषत।।
देव सिद्धं महत्कार्यं वैवाहिकपरो भव।।23।।
हिमवानब्रवीत् तद्यत् तत्सर्वं श्रूयतां वचः।
इयं कन्यामया दत्ता देवेस्मिन् गरुडध्वजे।।24।।
अथ श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं पार्वती दुःखिताभवत्।
दुःखभावातिसन्तप्तां सखी पप्रच्छ तां निशि।।25।।

सख्युवाच

देवि त्वं दुःखिता कस्मात् सत्यं मे ब्रूहि पार्वति।
भद्रायासेन भद्रं ते करिष्यामि न संशयः।।27।।

पार्वत्युवाच।

मया यच्चिन्तितं कर्तुं धात्रा तत्कृतमन्यथा।
तस्माद्देहपरित्यागं करिष्यामि न संशयः।।28।।
पार्वत्यास्तद्वचः श्रुव्या सखी वचनमब्रवीत्।

सख्युवाच

न जानाति पिता यत्र व्रज त्वं तद्वनं महत्।
इत्येवं सम्मतं कृत्वा गत्वा शीघ्रं महद्वनम्।
पितावलोकयामास हिमवास्तां गृहे गृहे।।29।।
केन नीता च मे पुत्री देवदानवराक्षसैः।
सत्यं कृतं मया पूर्वं किं दास्ये गरुडध्वजे।।30।।
इत्येवं चिन्तया गौरि मूर्च्छितः पतितो भुवि।
हा हा कृत्वा ततो लोका अभ्यधावत तं प्रति।।31।।
मूर्च्छां प्राप्तः त्वया कस्मात् कथयस्व विशेषतः।

हिमवानुवाच

केन दुष्टेन चेष्टं मे कन्यारत्नं हृतं मम।
दष्टा वा कालसर्पेण सिंहव्याघ्रेण वा हता।।
न जाने क्व गता पुत्री केन दुष्टेन वा हृता।।33।।
गम्यते शोकसन्तप्तो वातेनेव यथा तरुः।
त्वं गतासि वनं घोरं निर्जनं भयवर्द्धनम्।।34।।
सिंहव्याघ्रभुजङ्गेन क्रोष्टृश्वानमृगाकुलम्।
तस्मिन् घोरे वने तूर्णं सखीभिः सह संस्थिता।।35।।
दृष्ट्वा तत्र नदीं रम्यां तस्यास्तीरे सुमध्यमा।
उपविष्टालिभिः सार्द्धमनघा हरदृढव्रतम्।।36।।
बालुकाभिः कृता मूर्तिः शिवया सहितस्य मे।
भाद्रशुक्लतृतीयायां हस्तनक्षत्रसंयुजि।।37।।
तत्र वाद्येन गीतेन रात्रौ जागरणा कृता।
येन प्रतप्रभावेण आसनं चलितं मम।।38।।
सम्प्राप्तो देवि तत्त्रैव यत्र त्वं सखिभिः सह।
प्रसन्नोस्मि मया प्रोक्तं वरं ब्रूहि वरानने।39।।
यदि देव प्रसन्नोसि भर्त्ता भवतु मे हरः।
तथेत्युक्त्वा अहं देवि कैलाशं नगमागतः।।40।।
ततः प्रभाते संप्राप्ते तदा सर्व्वविवर्जितम्।
पारणं च कृतं तत्र यद्दत्तं वनगोचरैः।।41।।
तत्र त्वं च प्रसुप्तासि सख्या सार्द्धं वरानने।
हिमवानपि तं देशमाजगाम महावने।।42।।
आलोक्य च चतुर्दिश्रु पानभोजनवर्जितम्।
दृष्ट्वा तत्र नदी तीरे प्रसुप्तं कन्यकाद्वयम्।।43।।
उत्थाप्योत्संगमानीय करादानं चकार सः।
सिंहव्याघ्रगजैर्जुष्टं किमर्थं वनमागता।44।।

पार्वत्युवाच

शृणु तात मम ज्ञानं त्वं ददासीश्वरं प्रति।
तदन्यथा कृतं येन तेनाहं वनमागता।।45।।
तेन मां त्वं शिवायैव दातुमर्हसि नान्यथा।
तथेत्युक्त्वा हिमवता त्वमानीता गृहं प्रति।46।।
ततः प्रयुक्ता ते पित्रा मम वैवाहिकक्रिया।
तद्व्रतस्य प्रभावेण सौभाग्यं प्राप्तवत्यसि।।47।।
तदादिव्रतरान्तु कस्यापि न प्रकाशितम्।
व्रतराजस्य नामेदं शृणु देवि यथाभवत्।।48।।
आलीभिर्हरिता यस्मात् तस्मात् त्वं हरितालिका।

पार्वत्युवाच

नाम ते कथितं देव व्रतं वद ममाग्रतः।
किं पुण्यं किं फलं चास्य केन च क्रियते क्रिया।।

ईश्वर उवाच

शृणु देवि विधिं वक्ष्ये नारीणां व्रतमुत्तमम्।।50।।
कर्तव्यं च विशेषेण यदि सौभाग्यमिच्छति।
तोरणादि च कर्त्तव्यं कदलीस्तम्भमण्डितम्।।51।।
चन्दनादिसुगन्धैस्तु लेपयेद् गृहमण्डलम्।
शङ्खभेरीमृदङ्गैश्च वादित्रैर्बहुभिर्वरैः।।52।।
नानामङ्गलचारस्तु कर्तव्यो मम सद्मनि।
स्थापनं तत्र कर्तव्यं पार्वत्या सहितस्य मे।।53।।
उपोष्य पूजयेत् पुष्पैः कुर्याज्जागरणं निशि।
नारिकेरैश्च जम्बीरैः फलैश्च विविधैस्तथा।54।।
ऋतुदेशोद्भवैः सर्वैः नैवेद्यैः कुसुमैर्नवैः।
धूपदीपादिगन्धैश्च मन्त्रेनानेन पूजयेत्।।55।।
शिवायै शिवरूपायै मङ्गलायै महेश्वरि। 
शिवे सर्वार्थदे देवि शिवरूपे नमोस्तु ते।।56।।
शिवरूपे नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः।
नमस्ते शिवरूपिण्यै जगद्धात्र्यै नमो नमः।।57।।
संसारावृत्तिविच्छेदे पाहि मां सिंहवाहिनि।
मयाद्य येन कामेन पूजितासि महेश्वरि।।58।।
राज्यं मे देहि सौभाग्यं प्रसन्ना भव पार्वति।
ब्राह्मणाय प्रदातव्यं वस्त्रधेनुहिरण्यकम्।।59।।
कथां श्रुत्वैकचित्तेन दम्पतिभ्यां सहैव तु।
संकल्पन्तु ततः कुर्यात् गन्धपुष्पादिभिस्तथा।।60।।
याः कुर्वन्ति महादेवि व्रतराजं विधानतः।
सौभाग्यं राज्यमायुश्च पापक्षयमवाप्नुयुः।।61।।
तृतीयायां तु या नारी लोभाद्भोजनमाचरेत्।
सप्तजन्म भवेद् बन्ध्या विधवा च पुनः पुनः।।
दारिद्र्यं पुत्रशोकश्च कर्कशा दुःखभागिनी।
याति सा नरकं घोरमुपोष्य न करोति या।।63।।
अश्वमेधसहस्रं च वाजपेयशतानि च।
कथाश्रवणमात्रेणमात्रेण तत्कालं लभते नरः।।64।।
एतत् ते कथितं देवि तवाग्रे तु वरानने।
समर्पणविधिं वक्ष्ये स्वागमेन यथोदितम्।।65।।
गोभूहिरण्यदानादि वस्त्रदानपुरःसरः।
तथा यागाः प्रकर्तव्यः सर्वकामार्थसिद्धये।।66।।

कथा समाप्त।

 

TagsHaritaliHaritalikamaithiliMithilaTeej vratतीजहरितालिकाहरिताली
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Bhavanath Jha

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