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    • जानकीपूजाविधि, (जानकीसहस्रनाम सहित), लेखक- पण्डित श्री शशिनाथ झा

      May 3, 2022
      0
    • article by Radha kishore Jha

      वेद या वेदान्त प्रतिपाद्य धर्म क्या है?

      October 28, 2021
      0
    • धर्मायण के आश्विन अंक के डिजिटल संस्करण का हुआ लोकार्पण

      September 21, 2021
      1
    • Kadamon ke Nishan

      मानवीय संवेदनाओं को समेटती डा. धीरेन्द्र सिंह की मैथिली कविताएँ- "कदमों के ...

      September 6, 2021
      0
    • Krishna-janma cover

      मनबोधकवि कृत कृष्णजन्म (प्रबन्धकाव्य), डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
      0
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      विद्यापति कृत कीर्त्तिलता, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
      1
    • विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
      1
    • अपभ्रंश काव्य में सौन्दर्य वर्णन

      अपभ्रंशकाव्य में सौन्दर्य वर्णन -डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
      1
    • डाकवचन-संहिता

      डाकवचन संहिता (टिप्पणी-व्याख्या सहित विशुद्ध पाठ, सम्पूर्ण)- डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
      1
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    • Dayananda's merits

      ‘पितर’ के अर्थ में ‘अग्निष्वात्ताः’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है?

      September 25, 2022
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    • Sanatana religion

      Hinduism versus Sanatana Dharma : Which of the two words is correct?

      May 10, 2022
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      ताही बीचै जनमल छोरा यानी उसी बीच छोरे श्रीकृष्ण का जन्म

      August 30, 2021
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      विपरीत परिस्थिति में श्राद्ध की शास्त्र-सम्मत विधि

      May 12, 2021
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      April 30, 2021
      1
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      March 17, 2021
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      छठ का अर्घ्य- पण्डितजी की जरूरत क्यों नहीं?

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      मैथिली लोकगीतों में नारी

      August 15, 2020
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Home›पाबनि-तिहार›गौरी-प्रस्तारसँ उद्धृत, मिथिलाक पारम्परिक जितिया व्रतकथा (मूल संस्कृतमे)

गौरी-प्रस्तारसँ उद्धृत, मिथिलाक पारम्परिक जितिया व्रतकथा (मूल संस्कृतमे)

By Bhavanath Jha
September 8, 2019
457
1
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Jitiya Parva in Mithila

जितिया व्रतकथा (संस्कृत)

आधार ग्रन्थ-

रुद्रधर कृत वर्षकृत्य, मीमांसकशिरोमणि जगद्धरशर्मपरिवर्द्धित एवं डा. पण्डित शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित, उर्वशी प्रकाशन, पटना, 1998 ई.)

(जितियाक सम्पूर्ण कथा मूल संस्कृतमे सुरक्षित अछि। एकर अनुवाद मैथिलीमे सेहो देल अछि।)

कथा

कैलासशिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शंकरम्।

यदहं श्रोतुच्छामि तत् त्वं कथितुमर्हसि।।

पार्वत्युवाच

व्रतेन केन तपसा पूजया नियमेन वा।

ससौभाग्या हि जायन्ते स्त्रियो जावितपुत्रिकाः।।2।।

शङ्कर उवाच।

आश्विने कृष्णपक्षे तु या भवेदष्टमी तिथिः।

पूजयन्ति स्त्रियस्तस्यां पुत्रकामा सहर्षिताः।।3।।

शालिवाहनराजस्य पुत्रं जीमूतवाहनम्।

देवं दर्भमयं कृत्वा स्थापयेद् वारिभाजने।।4।।

पीतलोहितवर्णैश्च कार्पासास्थिभिरेव च।

नानावर्णपताकाभिर्गन्धपुष्पादिभिस्तथा।।5।।

प्रकल्प्य प्राङ्गणे कोष्ठं कृत्वा पुष्करिणीं ततः।

तत्रैव कर्कटीशाखा धर्तव्या जलसन्निधौ।।6।।

चिल्ही शृगाली धर्तव्या सिन्दूरारुणमस्तका।

ते उभे तत्र कर्तव्ये गौमयैर्मृत्तिकादिभिः।।7।।

वंशपत्रेण कर्तव्या पूजा वंशविवृद्धये।

पञ्चोपचारपूजाभिस्तं देवं विप्ररूपिणम्।8।।

पूजयित्वा कथामेनां याः शृण्वन्ति वरस्त्रियः।

उपवासं प्रकुर्वन्ति ताः स्युः पूर्णमनोरथाः।।9।।

अस्मिन् महामण्डले समुद्रोपकण्ठे नर्म्मदातटे दक्षिणापथे कनकावती नाम नगरी। तत्रानेककरितुरगपदातिसामग्रीसहितो निर्जितसकलभूपालो मलयकेतुर्नाम राजा बभूव।

नदीपश्चिमकूले बाहूटालनाम मरुस्थलं, यत्र महान् धूधूपर्कटी तरुरतिकोटरयुक्तो वर्तते। तत्रैका शृगाली प्रतिवसति स्म। तद्वृक्षशाखायामनेकदिवसादारभ्यैका चिल्ही प्रतिवसति स्म। ताभ्यां चिल्हीशृगालीभ्यामनुदिनेनाधिका प्रीतिर्मित्रता च सञ्जाता।

तत्रैव कदाचिदाश्विनकृष्णाष्टमी दिने तन्नगरवासिभिः स्त्रीभिरुत्तमाधममध्यमाभिर्जीमूतवाहनपूजा समाचरिता, कथा च श्रुता। ताभ्यामपि कथां श्रुत्वा पूजां विधाय स्वस्ववासस्थानमागत्य स्थितिश्च कृता।

अत्रान्तरे तद्दिनसन्ध्यायां तन्नगरवासिदन्तासेठिपुत्रो लोकान्तरितः। तत्रैव नर्मदा तटे तं शवं चितायामारोप्याग्निं दत्वा तद्बान्धवाः स्वगृहमागताः।

ततो रात्रिसमये निबिडान्धकारे घनतरमेघगर्जितविद्युल्लतास्फुरितदिग्भागे अतिक्षुधाकुलया सन्निधिमेत्य अनिशं शवमांसलुब्धया शृगाल्या चिल्ही साभिहिता- मित्र! स्निग्धे! चिल्हि! जागर्षि। तत्काले चिल्ह्या हर्षितयोक्तं सखि! जागर्मि।

एवं वारं वारं शृगाल्या साभिहिता। तया तदेवोत्तरं दत्तम्। ततश्चिल्ह्या मनसाचिन्तितं- “एषा शृगाली किमर्थँ वारं वारं मामभिभाषते। तदेतस्याश्चरितं जानामीति” कृत्वा निद्रां भावयित्वा निवृत्तीभूय स्थिता।

ततोऽतिलुब्धया चिल्ही संभाषिता, पुनस्तदा तया किमप्युत्तरं न दत्तम्। तदेतावता निद्राधिक्यमवगत्य कोटरवनान्निर्गत्य नदीतीरं गत्वा मुखेन जलं नीत्वा चिताग्निं निर्वाप्य शवमांसं यथेष्टं खादित्वा खण्डं खण्डं च कृत्वा समानीय कोटरे धृतम्। एतत् सकलवृत्तान्तं शाखाग्रस्थायिन्या चिल्ह्या दृष्टम्।

ततः प्रभाते वृत्ते शृगाल्या चिल्ही साभिहिता- प्रिये! चिल्हि! पारणाचर्चा किमिति न क्रियते।

ततस्तया रात्रिवृत्तान्तं मनसि कृत्वा उदासीनबुद्ध्या चोक्तं- प्रिये! पारणां कुरु। मयापि स्त्रीदत्तद्रव्यादिना पारणा कर्तव्या।

ततः शृगाल्या रात्रिधृतकोटरस्थशवमांसेन पारणा कृता। ततः चिल्ह्या च नगरस्त्रीदत्त-कलायाङ्कुरिकात्रिपोषद्रव्येण पारणा कृता।।

ततः कालक्रमेण प्रयागतीर्थे दैवगत्या तयोर्मरणकाल एकदैवाभवत्। तत्काले शृगाल्याभिहितम्- अहं जन्मान्तरे मलयकेतोर्महाराजस्य महामहादेवी भविष्यामीति इति कामनां कृत्वा सा लोकान्तरमगमत्।

चिल्ही च महामहत्तकस्य बुद्धिसेनस्य अहं पत्नी भविष्यामीति जातिस्मरणसंयुक्तेति कामनां कृत्वा लोकान्तरं गता।

ततस्तद्व्रतमाहात्म्येन तीर्थमरणेन च तन्नगरवासिवेदज्ञभास्करनाम्नो भिक्षुकब्राह्मणस्य गृहे तयोर्जन्म युगपत् वृत्तम्। ततस्ते प्रतिदिनोपचीयमाने कन्यके विलोक्य बुद्धिसेननाम्ना महामहत्तकेन तत्रैका ज्येष्ठा शीला परिणीता। मलयकेतुराज्ञा कर्पूरावती नाम्नी कनिष्ठा परा परिणीता।

ततः कालक्रमेण सा शीलवती गर्भवती वृत्ता प्रसूता च। अनेन क्रमेण सा शीलवती सप्तपुत्रा वृत्ता। कर्पूरावती च राज्ञी मृतसप्तपुत्रा अनुदिनं क्षीयमाणा वैराग्यवती बभूव।। ततश्चैकदा राज्ञी तस्याः सप्तपुत्रान् सेवार्थमागतान् विलोक्य मनस्तापवती भूयो जीमूतवाहनपूजावसरे खट्वायां सुप्ता स्थिता।

राज्ञा च महादेवीमनवलोक्य अभिहितम्- “महामहादेवि, क्व गता।”

ततस्तत् सख्या लीलावत्या अभिहितम्- “अस्मिन् धवलगृहे खट्वायां सुप्ता तिष्ठति।”

गत्वा राज्ञा अभिहितम्- “प्रिये! कर्पूरावति! किमर्थं खट्वायां सुप्ता तिष्ठसि।”

तयोक्तं- “सुखेनेति।”

तदा राज्ञा अभिहितम्- “प्रिये उत्तिष्ठ।”

तयोक्तं- “यदि ममाकाङ्क्षितं क्रियते तदा परमहमुत्तिष्ठामि, नो चेत् न” इति।

ततो राज्ञा पुनरभिहितम्- “सर्वं करिष्यामि।”

पुनस्तयोक्तं- “यद्येवं तदा सत्यं कुरु।”

ततस्तद् वचसा राज्ञा त्रिःसत्यं कृतम्।

ततः कर्पूरावत्या शय्यातः सहसोत्थाय अभिहितम्- “मद्भगिन्याः शीलावत्याः सप्तपुत्रमस्तकान् छित्वा मयि ददस्व” इति।

ततो राजा भूमिं स्पृष्ट्वा कर्णौ स्पृशति- “त्वं पापिष्ठे! कथमेवं भाषसे!” एवं वारं वारमुत्तरे वृत्ते राज्ञा तत्स्वीकृतम्- “कल्यमेतेषां शिरांसि छत्वा त्वयि निवेदितव्यानि।” तद्वचनं दृढमगवत्य तया जीमूतवाहनपूजा कृता।

ततोऽग्रिमदिने राज्ञा सत्यरक्षार्थं द्वारदेशे यन्त्रकर्तृकाचक्रेण सेवार्थमागतानां महामहत्तकसप्तपुत्राणां शिरांसि छित्वा कर्पूरावत्यै दत्तानि। तत् दृष्ट्वा जातहर्षा बभूव। तानि शिरांसि प्रक्षाल्य सप्तडल्लकेषु कृत्वा सप्तवस्त्रखण्डैः आच्छाद्य पारणादिने शीलवतीषु वायनानि दत्वा प्रहितानि। शीलवत्या सप्तपुत्रवधूषु समर्पितान्यभिहितं च- स्वीयस्वीयस्वामिनि समायाते भक्षयितुं दास्यथेति।

अस्मिन्नेवावसरे तद्वृत्तान्तज्ञानानन्तरं राज्ञो जीमूतवाहनो राजसेवां कृत्वा स्नानार्थं स्वमावासं गच्छन् हडिपादिना परिखाक्षिप्तकबन्धानवलोक्य अचिन्तयत्- एतेषां मात्रा शीलवत्या मम व्रतं कृतम् इति मनसा विमृश्य मृत्तिकाघटितसप्तमस्तकानि सप्तकबन्धेषु नियोज्य अमृतेन अभिसिक्तानि, उक्तं च कर्पूरावत्या यानि शिरांसि सप्तडल्लकेषु कृत्वा शीलवत्या कृते प्रहृतानि तानि सप्ततालफलानि भवन्त्विति, उक्त्वा स्ववासमगमत्।

ततस्तदनुभावेन ते सर्वे जीविताः सहसोत्थाय पुष्टदेहाः स्फीताकाराः स्वं स्वं घोटकमारुह्य स्वं स्वं गृहें प्रति चलिताः बभूवुः। तत्र गते स्नानादिकं विधायोपविष्टाः। तेषां तेषां च वध्वा राज्ञो गृहादागतं श्वश्र्वा निवेदितडल्लकावस्थितवस्तुजातं स्वीयस्वीयस्वामिनि निवेदितम्। ततस्तदनुभावात् तानि शिरांसि सप्ततालफलानि वृत्तानि। तानि तैः सप्तभिः भ्रातृभिः सप्तफलानि भक्षितानि।

ततो रानी च महामहत्तकावासे सप्तपुत्रवधशोकेन क्रन्दनं भविष्यतीति आकर्णयन्ती स्थिता वर्तते स्म। यदा तत्क्रन्दनं न श्रुतम्, तदा तज्जिज्ञासार्थम् आशु शूद्री प्रहिता। शूद्रया तत्रागत्य सहर्षं सकलाश्रमीयलोकमवगत्य स्वस्वामिन्यै निवेदितम्। तदवगत्य निवृत्तीभूय स्थिता।

ततः प्रभाते वृत्ते पुनस्ते शीलवतीसप्तपुत्राः सेवा कर्तुमागताः। तान् सर्वानवलोक्य अतीव दुःखिता महामहादेवी राजानं पप्रच्छ- राजन् मलयकेतो कल्यं चौरादीनां सप्तशिरांसिछित्वा मयि निवेदितानि, न तु शीलवतीपुत्राणाम्।

राज्ञोक्तं- प्रिये कल्यं तवाग्रे यन्त्रकर्तृकाचक्रेण तेषां शिरांसि छित्वा त्वयि निवेदितानि। तथापि कथमेवं भाषसे। वयमपि तान् सर्वानवलोक्य सविस्मयं तिष्ठाम इति। पुनस्तया विमृश्योक्तं- तदा अद्य कथं पुनस्ते सेवां कर्तुमागताः।

राज्ञा विमृश्योक्तं- प्रिये शृणु त्वद्भगिन्या पूर्वजन्मनि सद्व्रतमाचरितम्, तदनुभावादिह सा जीवितसप्तपुत्रा। त्वया तद् व्रतं नाचरितं, तेन त्वं मृतपुत्रा अतिदुःखिनी वर्तसे। तच्छ्रुत्वा निवृतीभूय स्थिता। तद्वृतान्तं महामहत्तकेन शीलवत्या ज्ञातम्।

ततोग्रिमवर्षे व्रतदिने कर्पूरावत्या शीलवतीष्वभिधाय शूद्री प्रहिता- “अद्यैकस्थाने पूजा कर्त्तव्या कथाश्रवणं च।” शीलवत्योक्तं- “मलयकेतोर्महाराजस्य सा महादेवी तया सह कथाश्रवणं सर्वथैव न संभवती”त्यवगत्य शूद्री समागत्य राज्ञीषु निवेदितवती।

तच्छ्रुत्वा उक्तम्- “सप्तपुत्रैः सा गर्विता” इति।

ततो महामहादेवी तद्दिने निवृत्तीभूय स्थिता। ततः प्रभाते पुनः कर्पूरावत्या पारणार्थमभिधाय शीलवत्या स्थानं शूद्री प्रहिता। शीलवत्या च पुनस्तदेवोत्तरं दत्तम्। सा महामहादेवी रोषाद् राजमदान्धहृदया दण्डिकायानमारुह्य पारणार्थमनेक संभृतिमादाय शीलवतीस्थानं प्रचलिता।

तत्र गता शीलवत्या पानीयमादाय आसनमुपकल्प्य चरणप्रक्षालनादिकं विधाय आलिङ्ग्य उपवेश्याभिहितम्- “भगिनि, कुशलन्ते, किमर्थमत्रागमनम्।”

कर्पूरावत्योक्तं- “भगिनि त्वया सहैकत्र पारणां कर्तुमहमागतास्मि।”

शीलवत्योक्तम्- “भगिनि त्वया सहैकत्र पारणा न कर्तव्या।”

पुनर्महादेव्याभिहितम्- “भगिनि सत्वरमुत्तिष्ठ, पारणावेला महती वर्तते।”

ततस्तया शीलवत्या पुनरुक्तं- महामहादेवि राज्यभोगं कुरु इदानीमपि कुग्रहं त्यज।

ततः पुनर्महादेव्या दुर्दैवगृहीतयाभिहितम्- अद्यावश्यमेव त्वया सह पारणा कर्तव्या।

शीलवत्यास्तद्वचनं दृढमवगत्य पारणार्थमनेकसंभृतिमुत्पाद्य अभिहितम्- यद्यवश्यं मया सह पारणा कर्तव्या तदा नर्म्मदातीरे गम्यतामित्युक्त्वा कर्पूरावती शीलवती च नर्म्मदातीरं प्रति प्रचलिते।

तत्र गते शीलवती कर्पूरावतीमालिङ्ग्य नमस्कृत्याभिहितवती भगिनि, कर्पूरावति इदानीमपि कुग्रहं त्यज, राज्यभोगं कुरु।

ततः कर्पूरावत्या उक्तम्- भगिनि कदाचिदप्येवं न संभवति। इति।

तत शीलवत्या स्नानं कृत्वा लोकधर्मौ पुरस्कृत्य अभिहितम्- अये कर्पूरावति, पूर्वजन्मवृत्तान्तं किमपि न स्मरसि।

तयोक्तं किमपि न स्मरामि।

ततः शीलवत्याभिहितम्- एषा नर्म्मदा नदी। असौ बाहूटारः। एषा धूधूपर्कटी। अत्र त्वं पूर्वजन्मनि शृगाली स्थिता, अहं पुऩश्चिल्ही। एतत्पर्कटीकोटरे तवावस्थानम्। एतदग्रशाखायां ममावस्थितिः। तदा तन्नगरवासिनीभिः स्त्रीभिः जीमूतवाहनपूजा समाचारिता कथा च श्रुता। तत् त्वया मयापि तत्सन्निधानं गत्वा जीमूतवाहनपूजां विधाय कथां श्रुत्वा स्वस्ववासस्थानमागत्य स्थितम्।

अत्रान्तरे तद्दिनसन्ध्यायाम् एतन्नगरवासिदन्तासेठिपुत्रो लोकान्तरितः। तं स्वजनबान्धवा नगराच्चितास्थानमानीय चितां विरचय्य दग्ध्वा स्वभवनं प्रति गताः।

ततो रात्रौ त्वया कोटरावस्थितया अहमुक्ता- प्रिये चिल्हि जागर्षि, ततो वारद्वयं जागर्मीत्यभिधाय अहं पुनस्तदीयचरितं ज्ञातुं निद्रां भावयित्वा निवृत्तीभूयस्थितास्मि। त्वया पुनर्निद्राधिक्यमवगत्य कोटरभवनान्निर्गत्य नर्मदां गत्वा मुखेन जलं नीत्वा चिताग्नि निवाप्य यथेष्टं शवमांसं खादित्वा कोटराभ्यन्तरे शवमांसं धृतं तत् सकलवृत्तान्तं मया ज्ञातम्।

अग्रे प्रभाते याते पारणार्थं त्वया मय्यभिहितम्, प्रिये पारणा न कर्तव्या? त्वदीयरात्रिवृत्तान्तमवगम्य उदासीनहृदया मयाभिहितम् सखि, पारणां कुरु। मयापि स्त्रीदत्ताङ्कुरिकात्रिपोषादिना पारणा कृता। तदत्रागच्छ पश्य इत्युक्त्वा तां हस्ते गृहीत्वा कोटरावस्थितशवमांसास्थिखण्डं कर्पूरावत्यै दर्शयामास। अनेन व्रतभङ्गदोषेण त्वं मृतपुत्रातिदुःखिता। अहं च व्रतपालनाज्जीवितपुत्रा सुखिनी स्वाम्यवियोगयुक्ता अस्मीति शीलवती पूर्वजन्मवृत्तान्तं कथयन्ती स्म यावत् तावदेव सा कर्पूरावती पूर्वजन्मचरितमधिगम्य विमुक्तशोकसन्तापा तत्रैव नर्मदातीरे लोकान्तरमगमत्। शीलवती च स्नात्वा सहर्षा मङ्गलतूर्य्यरवेण स्वावासमाजगाम। राजा च मलयकेतुः तस्याः श्राद्धादिकं कृत्वा राज्यचिन्तां चक्रे। ततो राज्ञा बहुकरितुरगादि-सामग्री-यौतुकं दत्वा स्वपुत्री वसन्तमञ्जुराजाय दत्ता।

अधुनापि मर्त्यमण्डले याः श्रीजीमूतवाहनं संपूज्य कथां श्रुत्वा उपवासं कृत्वा ब्राह्मणसन्तोषं विधाय पारणां कुर्वन्ति, तास्ताः जीवितपुत्राः सन्तानवत्यः पूर्णमनोरथा भवन्तीति निश्चितम्।

इति गौरीप्रस्तारे श्रीशंकरकथिते जीमूतवाहनकथा समाप्ता।

Jitiya, Jiutiya Vrat: “गौरीप्रस्तार” नामक ग्रन्थ सँ उद्धृत, मिथिलाक पारम्परिक जितिया व्रतकथा
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Bhavanath Jha

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