म. म. शंकर कृत स्मृतिसुधाकर

मिथिलाक चौहद्दी आ ओकर गौरवगाथाक वर्णन अनेक स्थान पर भेटैत अछि, मुदा ई सभ आर्ष-ग्रन्थ कोन कालक थीक से निर्णीत नै अछि। एहन आर्ष-ग्रन्थक अतिरिक्त लौकिक ग्रन्थ सभक परम्परामे म. म. शंकर कृत स्मृतिसुधाकरक आरम्भिक श्लोकमे जे मिथिलाक वर्णन आएल अछि ओकरा एखनि धरि उपलब्ध प्राचीनतम वर्णन कहल जा सकैत अछि।

म.म. शंकरक काल एवं परिचय

सरिसबवासी अयाचीसुत शंकर मिश्र सँ भिन्न ई कुजौली मूलक म.म. शुचिकरक पौत्र एवं म.म. सुधाकरक पुत्र रहथि।

ई अपना कें भगीरथ एवं वासुदेव का शिष्य मानने छथि। उक्त ग्रन्थक पुष्पिकामे ई ग्रन्थ-निर्माणक काल मनु वर्ष 120532682 तथा कलि संवत्सर 4682 लिखने छथि। वर्तमान कलि संवत्सर 5114 के अनुसार 2012 ई. से 432 वर्ष पूर्व 1580 ई.मे एहि ग्रन्थक रचना भेल। ग्रन्थारम्भमे ई कल्प संवत्सर 1955884690क उल्लेख कएने छथि। दूनू तिथिक तुलनासँ स्पष्ट होइत अछि। एहि ग्रन्थक रचनामे हुनका 4 वर्षक समय लागल रहनि। ग्रन्थारम्भ कलि सं. 4678 मे भेल छल आ अन्त 4682 मे भेल छल। एहि प्रकारें 1576 सँ 1580क बीच एहि ग्रन्थक रचना निर्धारित होइत अछि।

एहि ग्रन्थक आरम्भमे अकबरक प्रशस्ति 10 श्लोकमे लिखल गेल अछि। तकर बाद 3 श्लोकमे टोडरमलक प्रशंसा अछि। तकर बाद 12 श्लोकमे मिथिलाक उदात्त वर्णन भेल अछि, जाहिमे महाराज जनक, न्यायशास्त्रक प्रणेता गौतम, बलरामक गुरु श्रुतदेव, याज्ञवल्क्य, पराशर, आ ऋष्यशृंगकें मैथिल मानल गेल अछि तथा व्यासपुत्र शुकदेवक शिक्षा-दीक्षा एही भूमि पर होएबाक बात लिखल अछि।

मिथिलाक ई उदात्त वर्णन एतए प्रस्तुत अछि-

मैथिलीचरणरेणुरंजितो भैरवेश्वरशिवोपशिञ्जितः।
वाग्वतीसरिदरीकृतान्तरः कश्चिदस्तिविषयो महत्तरः।।1।।

तीरभुक्तिरिति यश्च विदेहः प्रोच्यते जनकभूर्मिथिलाख्यः।
यश्च  शासनमहीनृपतीनां संततं द्युतिरसौ द्युपतीनाम्।।2।।

यस्योत्तरे   हिमाद्रिः    कुशिकसुता   यत्र    पूर्वस्याम्।
त्रिदशनदीपदवाच्या   पश्चिमसीमापि   गण्डकी    यत्र।।3।।

यत्र   नदी   त्रियुगाख्या  यत्र   भवादित्यसंज्ञकः  सूर्यः।
करकमलाञ्चितकमला     कमलाकमलेव निम्नगा   यत्र।।4।।

श्रुतदेवादधिगतवानखिलकलां यत्र लांगली रामः।
नृपतिर्यत्र विदेहो यस्य सुता विश्रुता सीता।।5।।

गोतमोऽजनि च यत्र मुनीनामग्रणीर्गुणगणोरुमणीनाम्।
यः स्वतन्त्रामकरोत्किल सौत्रं तर्कतन्त्रमुदितं श्रुतितन्त्रम्।।6।।

जन्मतः प्रभृति यत्र समस्तब्राह्मणेषु निगमाभिनिवेशः।
जन्मकर्मकुलगोत्नविवेकः स्वस्त्रधर्मपतनव्यतिरेकः।।7।।

यत्र व्यासतनुजो जनकादुपगत्य तत्वविज्जनकात्।
आचष्ट यत्र धर्मानखिलानथ योगी याज्ञवल्क्योऽपि।।8।।

यत्र पराशरनामा मुनिरकरोद्धर्मसंहिताः सुहिताः।
क्षेत्राणि यस्य  सन्ति प्रथितान्यद्यापि   धर्मसस्यानाम्।।9।।

ऋष्यशृंगमहर्षिर्यत्र कुरंगीसुतोप्यासीत्।
यस्य चरोरुपभोगात्काममवातीतरद्रामः।।10।।

यत्राद्यापि विवाहः  प्राजापत्योऽस्ति वर्णानाम्।
श्रुतिविद्यानिपुणानामापद्यपि यत्र विस्तृतिर्नास्ति।।11।।

प्रतिसदमपद्मनामप्रणतिवशाद्यत्र चात्यन्तम्।
वर्णाश्रमव्यवस्थावस्थितिर्धीर्न्यायविद्यानाम् ।।12।।
इति मिथिलावर्णनद्वादशकम्।

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