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माँ दुर्गा की पूजा सामाजिक समरसता को बढ़ाबा देता है, यहाँ कोई भेद-भाव नहीं

By Bhavanath Jha
September 19, 2019
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1
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दुर्गापूजा

शक्ति शब्द किसी कार्य को करने के सामर्थ्य भाव दर्शाता है। शक्ति चूँकि स्त्रीलिंग शब्द है, इसमें क्तिन् प्रत्यय लगा हुआ है अतः प्राचीन काल से शक्ति की उपासना देवी के रूप में की जाती रही है। काली, दुर्गा, सीता, लक्ष्मी, सरस्वती, आदि रूपों में उनकी पूजा का प्रचलन आदिकाल से ही रहा है। वैदिक साहित्य में भी उषा का स्वरूप देवी के समान ही है, जो सूर्य के आगे आगे चलती हुई मानव जीवन को प्रेरित करती हैं।

महाभारत में गीता के उपदेश के बाद श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दुर्गा की आराधना करने के बाद युद्ध में भाग लेने का उपदेश करना शक्तिपूजा की प्राचीनता को दर्शाने में समर्थ है। महाभारत के भीष्म पर्व के तेइसवें अध्याय में प्रसंग आया है कि जब अर्जुन अपनी सेना लेकर आगे बढे तो सामने विशाल कौरव सेना देखकर घबड़ा गये। तब कृष्ण के कहने पर उन्होंने विजय के लिए दुर्गा की स्तुति की। यहाँ पर कुमारी, काली, कपिला, कापाली, कृष्णपिंगला, भद्रकाली महाकाली, महिषासुरमर्दिनी आदि नामों से शक्ति की स्तुति की गयी है।

इससे पूर्व महाभारत के विराट् पर्व के छठे अध्याय में अज्ञातवास के लिए विराट् नगर की ओर प्रस्थान करते समय युधिष्ठिर अभियान की सफलता के लिए दुर्गा की स्तुति करते हैं।

पुरातात्विक दृष्टि से भी शक्तिपूजन की परम्परा पर्याप्त प्राचीन प्रतीत होती है। महिषासुरमर्दिनी की शुंगकालीन प्रतिमाओं में दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया गया है।
भारत की अनेक उपासना परम्पराओं में शक्ति-पूजन की परम्परा अविच्छिन्न रही है। यदि इसका सिंहावलोकन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि इस सम्प्रदाय में सामाजिक समरसता, समन्वय की भावना, जाति, धर्म आदि विभेदक तत्त्वों का अभाव तथा सबको साथ समेटकर ले चलने का भाव सबसे अधिक है। इसमें न तो शुद्धता की बाध्यता है, न काल की गणना की बाध्यता। देवी को माता के रूप में मानकर समस्त औपचारिकता को तिलांजलि देकर उपासना एवं भक्ति उस परम्परा की अनन्य विशेषता है।
शक्ति उपासना में दुर्गासप्तशती की कथा महत्त्वपूर्ण है। इसमे सर्वत्र एकता और समन्वय का भाव मुखर हुआ है। इसके प्रथम अध्याय में उपासना के उद्देश्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया है। देवी उपासना से भोग और मोक्ष, इन दोनों की प्राप्ति की उल्लेख किया गया है।

दुर्गासप्तशती के प्रथम अध्याय में कथा इस प्रकार है कि क्षत्रिय राजा सुरथ एवं समाधि नामक वैश्य दोनों सुमेधा ऋषि के आश्रम पहुँचते हैं। दोनों के बीच वार्ता होती है, किन्तु दोनों की अलग-अलग समस्या है। सुरथ का राज्य छिन गया है अतः वे दुःखी है। वे अपना राज्य पुनः प्राप्त करना चाहते हैं, वे भोग के इच्छुक हैं। समाधि वैश्य को घर के लोगों ने अपमानित किया है, उन्हें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा है, मोक्ष की इच्छा है। दोनों ऋषि सुमेधा के उपदेश पर देवी की उपाना एक साथ करते हैं, एक ही विधि से करते हैं। अन्त में देवी प्रसन्न होकर राजा सुरथ को वरदान देते हैं कि आप शीध्र ही अपने शत्रुओं का नाशकर राज्य को पुनः प्राप्त करेंगे और मृत्युके उपरान्त पुनः आपका जन्म सूर्य के पुत्र के रूप में होगा और आप सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होंगे।

यहाँ द्रष्टव्य है कि राजा की उपासना भोग के लिए थी तो उन्हें उत्तम भोग मिला, किन्तु उन्हें मोक्ष नहीं मिला। दूसरी ओर समाधि वैश्य को वरदान मिला कि तुम्हें ज्ञान की प्राप्ति होगी। अतः ज्ञान के कारण समाधि का पुनर्जन्म नहीं हुआ, उन्हें मोक्ष मिला। भारतीय दर्शनों में चरम परिणिति की ये दोनों धाराएँ- भोग और मोक्ष की अवधारणा यहाँ शक्तिपूजन की परम्परा में समन्वित हुई है। इसी को आचार्य शंकर भी कहते हैं-

यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगः यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षः।
श्रीसुन्दरीसेवनतत्पराणां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।।

इसी दुर्गासप्तशती में दुर्गा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो कथा द्वितीय अध्याय में कही गयी है, उसमें भी सर्वधर्मसमन्वय की भावना है। इसके अनुसार महिषासुर ने सभी देवताओं को पराजित कर उनका स्वर्ग छीन लिया और स्वयं इन्द्र के आसन पर बैठ गया तब सभी देवता ब्रह्मा के नेतृत्व में उस स्थान पर गये जहाँ भगवान् विष्णु एवं महादेव रहते थे। देवताओं ने अपनी समस्या उन्हें बतलायी। यह वृत्तान्त सुनकर शिव एवं विष्णु क्रोधित हो गये जिससे एक महान् तेज निकला। इसी प्रकार सभी देवताओं के शरीर से तेज निकला जो एकत्र होकर नारी का रूप धारण कर लिया। इस नारी के विभिन्न अंगों का निर्माण विभिन्न देवताओं के तेज से हुआ। शिव के तेज से मुख बना तो विष्णु के तेज से बाहुए बनीं। यमराज के तेज से उस नारी आकृति के केश का निर्माण हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा के तेज से दोनों पैरों का निर्माण हुआ। सभी देवों के तेज के एकीकृत रूप में वह देवी पूजित हुई। इतना ही नहीं, सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्रशस्त्र भी दिये। ऐसी दिव्य शक्ति, जहाँ सबका समन्वय हो, देवी के रूप में सभी देवताओं के बीच प्रतिष्ठित हुईं, जिसे देखकर महिषासुर से पीडित देवगण अत्यन्त हर्षित हुए।

 ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः।।

इस प्रकार शक्ति पूजा की अवधारणा में ही समन्वय का भाव रहा है। सामाजिक स्तर पर भी इस पद्धति की अनन्य विशेषता है कि यहाँ साधक की जाति पूछी नहीं जाती। उसकी योग्यता उसकी अधिकार केवल शक्ति परम्परा में दीक्षित होने पर ही निर्भर करता है। अथवा यदि वह गृहस्थ है तो शक्ति पूजा का वह हर प्रकार से अधिकारी हो जाता है। जहाँ शक्ति के उपासक एक साथ बैठकर साधना कर रहे हों उसे भैरवी-चक्र की संज्ञा दी गयी है और मुक्तकण्ठ से शास्त्र की निर्देश है कि

प्राप्ते तु भैरवीचक्रे सर्वे वर्णाः द्विजोत्तमाः। 

धर्मशास्त्रियों ने शक्ति-पूजा की पद्धति में जनजातीय परम्पराओं एवं उनकी पद्धति को आदर की दृष्टि से देखा है। विद्यापति ने दुर्गाभक्तितरंगिणी में शारदीय नवरात्र की पूजा-पद्धति का विवेचन करते समय अष्टमी तिथि की पूजा के क्रम में शबर-नृत्य को भी आवश्यक माना है तथा उसकी फलश्रुति लिखी है।

इसी प्रकार शक्ति-पूजन का प्रमुख अंग कुमारी-पूजन है, जिसमें प्रत्येक वर्ण की कुमारियों की पूजा का अपना अलग-अलग महत्त्व कहा गया है। शास्त्रकारों ने स्पष्ट किया है कि सन्तान की प्राप्ति के लिए शूद्र-कन्या, धन की प्राप्ति के लिए वैश्य-कन्या, यश की प्राप्ति के लिए क्षत्रिय-कन्या एवं सभी कार्यों के लिए ब्राह्मण-कन्या की पूजा करनी चाहिए। दुर्गासप्तशती के व्याख्याकार नागेशभट्ट मे प्रयोगविधि में लिखा हैः-

विप्रां सर्वेष्टसंसिद्ध्यै यशसे क्षत्रियोद्भवाम्।
वैश्यजां धनलाभाय पुत्राप्त्यै शूद्रजां यजेत्।

भारत में लगभग सभी जातियों-प्रजातियों में लोक-देवताओं की परम्परा है। इनकी पूजा अपने कुलाचार विधि से प्रत्येक घर में होती रही है। अपने एक सर्वेक्षण के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने जब देखा कि अनेक दलित जातियों एवं जन-जातियों की कुलदेवियों के नाम कतैनी (कात्यायनी) भदरकाली (भद्रकाली), गौरी, कूष्माण्डा आदि हैं।

इन जातियों के कुल में पारम्परिक रूप से इनकी पूजा होना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि प्राचीन काल में शक्ति-उपासना के क्षेत्र में जातिवाद का कोई महत्त्व नहीं रहा होगा। एक गाँव के सभी लोग सम्मिलिति होकर इन देवियों की पूजा करते रहे होंगे। यह एक सुखद स्थिति है। इससे हमें सामाजिक विषमताओं को दूर भगाने में सहायता मिलेगी।
उपासना की परम्परा में दीक्षा-ग्रहण का विशेष महत्त्व है। जबतक कोई साधक गुरु के मुख से मन्त्र की दीक्षा नहीं लेते हैं, तबतक वे साधना के अधिकारी नहीं होते हैं। शक्ति-उपासना में माता से दीक्षा लेना सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है। कहा जाता है कि माता से दीक्षा लेने पर वह मन्त्र स्वयंसिद्ध हो जाता है। इसलिए आज भी मिथिला में शक्ति-मन्त्र की दीक्षा मे माता को गुरु बनाया जाता है। यहि माता न रहे तो अपने कुल की किसी भी स्त्री, दादी, चाची इत्यादि से दीक्षा ली जाये। यह भी कहा जाता कि अपनी माता जगन्माता तक पहुँचने की पहली और अन्तिम सीढी है। इस अवधारणा के सुखद पारिवारिक परिणाम सामने आते हैं।
कर्मकाण्ड और उपासना से परे यदि यदि हम सामाजिक सन्दर्भ में देखें तो भारत में नारियों को हमेशा देवी के रूप में देखा गया है। तभी तो वराहमिहिर भी बृहत्संहिता के 73वें अध्याय में नारियों की प्रशंसा करते नहीं अघाते और इतना तक कह देते हैं कि जिस घर में सुवासिनी (उस घर की बेटी, जिनका विवाह हो चुका है) का अपमान होता है वह घर शीघ्र नष्ट हो जाता है।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।10।।

जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियाँ दुर्व्यवहार के कारण शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है। इसके विपरीत जहाँ ऐसा नहीं होता है और स्त्रियाँ प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि उपासना की अन्य परम्पराओं में देवी-पूजन सामाजिक, पारिवारिक सद्भाव एवं समन्वय से भरा पडा है। यहाँ धन, कुल, जाति, वय, विद्या, लिंग आदि के कारण कोई भेद-भाव नहीं। यदि वे गुरुमुख हो चुके हैं तो समान रूप से साधक होते हैं संसार में भोग और मृत्यु के बाद मोक्ष के अधिकारी होते हैं।

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Bhavanath Jha

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