व्रत आ उपासमे अशौच भेला पर

अशौचमे देवता आ पितरक काज नै करबाक थीक, ई नियम अछि। केवल नित्यकर्म करैत रहबाक चाही। कोनो प्रकारक नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म नै करी। मुदा जँ व्रत अथवा उपासक संकल्प कए लेल गेल छैक तँ अशौचहुमे व्रत-उपास, पूजा-पाठ आदि करबाक विधान कएल गेल छैक।

विष्णुपुराणक वचन उद्धृत करैत मिथिलाक प्रसिद्ध ज्योतिषी पं. सीताराम झा अपन पुस्तक पर्व-निर्णयमे लिखैत छथि जे जाहि व्रतक संकल्प पूर्वमे भए चुकल हो, से अशौचहुमे कर्तव्य थीक माने करबाक चाही-

व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धे होमार्चने जपे।
आरब्धो सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्।

एतए कहल गेल अछि जे आरम्भ कए नेने छी तँ अशौच नै लागए।

आरम्भ केकरा कहब?

एकर उत्तर देल गेल अछि जे

आरम्भो वरणं यज्ञे संकल्पो व्रतजापयोः।
नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया।।

यज्ञमे आचार्य ब्रह्मा आदि कें धोती-माला आदि दए वरण करब आरम्भ बुझल जाए। व्रत आ जपमे संकल्पकें आरम्भ बुझल जाए। विवाह आदिमे नान्दीश्राद्ध माने आभ्युदयिक आ मातृकापूजाकें आरम्भ बुझल जाए आ श्राद्ध, एकोद्दिष्ट एहिसभमे पाक (पिण्ड निर्माणक लेल भानस चढाएब) कें आरम्भ बुझल जाए।
जँ ई सभ काज भए गेल हो तँ अशौच नै मानल जेतैक।

व्रत, पूजा-पाठ आदिमे प्रतिनिधिक विधान

एहन अनेक परिस्थित अबैत छैक जे व्रत, पूजा-पाठ आदि ठानलाक बाद एहन बाधा आबि जाइत छैक जे जिनका स्वयं करबाक चाही से नै कए पबैत छथि। अशौच, शारीरिक अस्वस्थता आदि अनेक बाधा भए सकैत छैक। एहन स्थितिमे मिथिलाक परम्परामे प्रतिनिधिक द्वारा ई सभ कार्य सम्पन्न करएबाक विधान अछि।

सामान्य रूपसँ लोक दक्षिणा दए पुरोहित आदिसँ कराए लैत छथि, मुदा एकरा अन्तिम विकल्प मानबाक चाही।

हमरालोकनिकें देखबाक चाही जे शास्त्रमे एहि परिस्थिति की विधान कएल गेल अछि।
स्कन्द-पुराणमे कहल गेल अछि-
असामर्थ्ये शरीरस्य व्रते च समुपस्थिते।
कारयेत् धर्मपत्नी वा पुत्रं वा विनयान्वितम्।

शरीरसँ असमर्थ रही आ व्रतक दिन आब जाए तँ धर्मपत्नी अथवा विनयशील पुत्र कें प्रतिनिधि बनाबी।

कात्यायन सेहो कहैत छथि-
पितृ-मातृ-पति-भ्रातृ-गुर्वर्थे च विशेषतः।
उपवासं प्रकुर्वाणः पुण्यं शतगुणं लभेत्।।
भार्या पतिव्रतं कुर्याद् भार्यायाश्च पतिस्तथा।
असामर्थ्ये तयोरेव व्रतभङ्गो न जायते।

अर्थात् पिता, माता, पति, भाए आ गुरुक हेतु व्रत कएलासँ सौगुना अधिक फल होइत छैक। जँ पति-पत्नीमे सँ केओ एक अशक्त रहथि तँ पत्नी पतिक ठानल व्रत करथि आ पति पत्नीक ठानल व्रत करथि, एहि तरहें व्रत-भङ्ग नै होइत अछि।

एकर अतिरिक्त एकटा आरो विकल्प पराशर-स्मृति मे कहल गेल अछि। इहो मिथिलाक परम्परामे खूब चलैए जे दक्षिणा दए कोनो ब्राह्मण द्वारा व्रत आदि कराबी।
पराशर कहैत छथि-
उपवासं व्रतं होमं तीर्थयात्रा-जपादिकम्।
विप्रैः सम्पादितं यस्य सम्पन्नं तस्य तद् भवेत्।।

जँ ब्राह्मणसँ सम्पादन कराबी तँ दक्षिणा देल जाए। ऊपर उल्लिखित पत्नी, पुत्र, पति आदिसँ कराबी तँ हुनका दक्षिणा नहिं।

एहि विषयमे हमरालोकनिमे किछु अनुचित प्रचलन आबि गेल अछि जे अपने स्वस्थ छी, तैयो दक्षिणा दए अनकासँ कराए लैत छी। विशेष रूपसँ सत्यनारायण पूजा आदिमे ई प्रचलन देखैत छी। तें एतय चाही जे ब्राह्मणक द्वारा दक्षिणा दए कराएब अन्तिम विकल्प राखी। पहिने अपन परिवारक लोक करथि।

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