जहाँ एक गाय को बचाने के लिए दिलीप-जैसे प्रतापी राजा अपना शरीर तक त्याग कर देने की बात करें, वहाँ गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।          

 जिस संस्कृति मे गोहत्या के लिए प्रायश्चित्त का विधान हो, वहाँ गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।

  जहाँ गाय की पूँछ पकडकर वैतरणी पार करने की बात हो, वहाँ गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।

  जहाँ एक गाय को बचाने के लिए दिलीप-जैसे प्रतापी राजा अपना शरीर तक त्याग कर देने की बात करें, वहाँ गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।

  खूँटा से बँधी गाय जितनी दूर तक घूम सकती है, उसे भैरवी-चक्र मानकर पूजने की बात जिस संस्कृति मे हो, वहाँ गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।  

 यदि अकिंचन व्यक्ति एक गाय के भोजन के लिए जंगल से घास छीलकर उसे खिला दे तो उसके पितर पूर्ण रूप से संतुष्ट हो जाते हैं, उस संस्कृति में गाय को मारकर खाने की बात करना बकबास है।

भारत मे प्राचीन काल से गाय माता मानी गयी है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 110वें सूक्त में ऋभुदेव की बडाई करते हुए कहा गया कि हे ऋभुदेव आपने ऐसी गाय को हृष्टपुष्ट बना दिया है, जिसके शरीर पर केवल चमडा ही शेष रह गया था। आपने एक बछडे को अपनी माता से संयुक्त करा दिया है। आपने अपने सत्प्रयास से एक वृद्ध माता-पिता को भी युवा बना दिया है।

निश्चर्मण ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः।

सौधन्वासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितरा कृणोतन।।

ऋग्वेद के चौथे मण्डल के 33वें सूक्त में पुनः ऋभुओं द्वारा गाय की सेवा करने का कारण देवस्वरूप हो जाने की बात की गयी है।

यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन् ।

यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः ॥

यहाँ स्पष्ट रूप से गामरक्षत् अर्थात् गाय की रक्षा करने की बात कही गयी है।

ऋग्वेद के छठे मण्डल के 34वें सूक्त में इन्द्र से प्रार्थना की गयी है कि हमें दूध देनेवाली अच्छी गाय प्रदान करें।

अथर्ववेद में भी राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र है जिसमें ब्रह्मा से प्रार्थना की गयी है कि हमारे देश में खूब दूध देनेवाली गाय. हों, भार ढोनेवाले वोढा बैल हों- दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वान् इत्यादि।

जिस वेद में गाय के प्रति ऐसी श्रद्धा हो कि दुबली-पतली गाय की सेवा कर उसे फिर हृष्टपुष्ट बनानेवाले को देवता के समान माना जाये, ऐसे ऋग्वेद में गाय का वध कर उसका मांस भक्षण करने की बात कहना विल्कुल वकबास है।

नारद-पुराण मे कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति गया जाने के क्रम में बैलगाडी का उपयोग करता है तो उसे गोवध का पाप लगता है। इस प्रकार पुराण में गोहत्या करना एक पाप माना गया है।

गोयाने गोवधः प्रोक्तो हययाने तु निष्फलम् ।।

नरयाने तदर्द्धं स्यात्पद्भ्यां तच्च चतुर्गुणम् ।। ६२.३४ ।।

इतना ही नहीं हिन्दू धर्म में तो यहाँ तक कहा गया है कि खूँटा से बँधी हुई गाय यदि किसी दुर्घटनावश मर जाती है तो गाय पालनेवाले को भी अपालन का पाप लगता है और वह जबतक उसका प्रायश्चित्त नहीं कर लेता है तब तक उसे अपवित्र माना जाता है। गाय के अपालन के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन हुआ है। पराशर स्मृति के नौंवे अध्याय के आरम्भ से ही इसका विस्तार से वर्णन देखा जा सका है। नारद पुराण के पूर्वार्द्ध अध्याय 30 में किस प्राणी के वध करने पर क्या पाप होता है, इसका विवेचन किया गया है। यहाँ गोहत्या के सम्बन्ध में कहते हैं कि यदि गाय को पालने के क्रम में अनजाने में गाय की मृत्यु हो जाये तो पराक नामक प्रायश्चित्त करना चाहिए। लेकिन जानबूझकर यदि हत्या की जाये तो उस व्यक्ति की शुद्धि सम्भव नहीं है।

कामतो गोवधे नैव शुद्धिर्द्दष्टा मनीषिभिः ।। 30.38।

विष्णुधर्म नामक एक धर्मशास्त्र का ग्रन्थ है, जिसमें किस पाप के कारण मरक में क्या यातना मिलती है, इस पर विस्तार के साथ चर्चा की गयी है। यहाँ गोवध, स्त्रीवध एवं गाय के सम्बन्ध में झूठ बोलने के कारण पाप के सम्बन्ध में कहा गया है कि ऐसा करनेवाले महाघोर नरक में जाते हैं और वहाँ सडासी से उनकी जीभ उखाडकर घोर यातना दी जाती है-

गोवधः स्त्रीवधः पापैः कृतं यैश्च गवानृतम्।

ते तत्रातिमहाभीमे पतन्ति नरके नराः।। अध्याय 23।१४

उत्पाट्यते तथा जिह्वा संदंशैर्भृशदारुणैः।

इतना ही नहीं, गोवध के पाप को जो गुप्त रखने में सहायता करते हैं वे भी गोहत्या के पाप के भागी होते हैः

प्रायश्चित्तं गोवधस्य यः करोति व्यतिक्रमम्।

अर्थलोभादथाज्ञानात् स गोहत्यां लभेद् ध्रुवम्॥

इस प्रकार जाने या अनजाने में गोहत्या करनेवाले, गाय को किसी प्रकार से प्रताडित करनेवाले, उसे चोट पहुँचानेवाले को महापातकी मानकर उसके लिए दण्ड का विधान किया गया है। ऐसी स्थिति में कुछ शब्दों की गलत व्याख्या कर जो लोग प्राचीन काल में गोवध का विधान मानते हैं वे केवल बकवास करते हैं।

वास्तव में गोवध शब्द की व्याख्या गलत ढंग के कर कुछ लोग कुतर्क देते रहे हैं। वास्तविकता यह है कि संस्कृत में हन् धातु के दो अर्थ होते हैं, जाना और हत्या करना। जाने के अर्थ मे जंघा शब्द में हन् धातु ही है। इस हन् धातु को लिङ् लकार में वध आदेश हो जाता है। अतः गोवध शब्द शब्द का अर्थ गोहत्या अर्थात् गाय को मारना यह अर्थ निकाल लेते हैं। जबकि गाय को ले जाना ऐसा अर्थ होना चाहिए। जहाँ-जहाँ वेद में गोवध शब्द का उल्लेख है, वहाँ गाय को ले जाने का अर्थ है।

दूसरा शब्द गोघ्न की व्याख्या में भी कुछ लोगों ने अपना कुतर्क दिया है कि गावः हन्यते अस्मै इति गोघ्नः अतिथिः। अर्थात् जिसके लिए गाय की हत्या की जाये उसे गोघ्न कहते हैं और इससे अतिथि का बोध होता है। यहाँ भी हन्यते शब्द का अर्थ है- ले जाया जाता है। वास्तव में वैदिक काल में परम्परा थी कि जब अतिथि आते थे, तब एक गाय और एक लोटा उन्हें उपयोग करने के लिए दिया जाता था। यह गवालम्भन कहलाता था। यह गवालम्भन विवाह लिए दामाद के आने पर भी होता था, जिसका उल्लेख गृह्यसूत्रों में हुआ है। उत्तररामचरित में गाय के बछडे की मरमराने आबाज का जो वर्णन है वह भी इसी अर्थ में है कि जब गाय और बछडा अपनी जगह छोडकर दूसरे अपरिचित व्यक्ति के जिम्मे जायेंगे तो निश्चित रूप से बछडा मरमरायेगा। यह बात कोई भी गोपालक भलीभाँति जानता है।

इसलिए वेद-पुराण का हवाला देकर प्राचीन भारत में गोमांस खाने की बात जो लोग करते हैं, वे भ्रम में हैं और वकबास करते हैं।

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