जानिए हनुमानजी के जन्मस्थान से उनके ननिहाल की दूरी।

श्रीराम के जन्मस्थान अयोध्या में मन्दिर बनने के बाद उनके भाई के समान सखा महावीर हनुमानजी के जन्मस्थान पर भी दिव्य, भव्य मन्दिर बनाने का कार्य जोरों से आरम्भ हुआ है। लेकिन समस्या यह है कि अनेक स्थानों पर हनुमानजी के जन्मस्थातन होने के दावे किये जा रहे हैं। तिरुपति में भी अंजनेरी पर्वत पर जन्मस्थान मानकर रातों-रात उसे जन्मस्थान मानकर मन्दिर बनाने का कार्यक्रम आरम्भ हुआ तो किष्किन्धा, हम्पी, कर्णाट तक का दावा काफी जोरों से सामने आया।

स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती इन दिनों भारत-भ्रमण कर किष्किन्धा को ही हनुमानजी को जन्मस्थान के रूप में स्थापित करने के लिए रथयात्रा पर निकले हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रामकथा में किष्किन्धा परम पावन स्थल है और हनुमानजी से सम्बन्धित सबसे प्रमुख स्थल है। वहाँ हनुमानजी राजा सुग्रीव के सखा तथा सचिव हैं। वाल्मीकि के शब्दों में वे श्रीराम तथा लक्ष्मण को अपना परिचय देते हुए कहते हैं। इसी किष्किन्धा से वे साती की खोज में निकले हैं। अतः किष्किन्धा उनका कर्मक्षेत्र है, उनका अधिकांश समय किष्किन्धा में बीता है, इसमें कोई संदेह नहीं। भारत में किसी भी विद्वान् को इस तथ्य से कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। किष्किन्धा में अवश्य भव्य मन्दिर बनना चाहिए।

किष्किन्धा का दावा

स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती वाल्मीकि रामायण के आधार पर हनुमानजी का जन्मस्थान भी किष्किन्धा को ही मानते हैं। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थों में वालमीकि रामायण से जो प्रमाण प्रस्तुत किया है, उसका सारांश यहाँ दिया जा रहा है।

किष्किन्धा वालों के द्वारा दिया जाने वाला तर्क

वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धा को ‘गुहाʼ कहा गया है। किष्किन्धां गुहाम् का प्रयोग वाल्मीकि में अनेक स्थलों पर किया है। वाल्मीकि के द्वारा प्रयोग शब्दावली से स्पष्ट है कि किष्किन्धा नगरी पर्वतीय गुफा का तरह थी। चारों ओर से पर्वत शृंखलाओं से घिरी हुई थी। अतः रामायण में किष्किन्धा को ‘गुहाʼ कहा गया है।

किष्किन्धाकाण्ड में जब जाम्बवन्त हनुमानजी के जन्म की कथा सुनाते हैं तो वहाँ पर वे कहते हैं कि हनुमानजी का जन्म ‘गुहाʼ में हुआ था।

स्वामीजी कहते हैं कि वाल्मीकि रामायण में ‘गुहाʼ का अर्थ है ‘किष्किन्धा गुहाʼ। अतः हनुमानजी का जन्म वाल्मीकि रामायण के अनुसार किष्किन्धा सिद्ध होता है। अपने हर एक व्याख्यान में वे इसी तथ्य को लेकर अपनी स्थापना करते हैं।

श्रोता को पहले किष्किन्धा = गुहा का तादात्म्य इतनी बार वे पहले बैठा चुके होते हैं कि सामान्य जन गुहा = किष्किन्धा मानने के लिए भी वे तैयार हो जाते हैं।

यदि शास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाये तो यह प्रमाण नहीं हो सकता है। यह एक प्रकार का प्रमाणाभास है। इसे समझने के लिए हम दूसरा उदाहरण लेते हैं- गंगा नदी है, अतः गंगा का प्रयोग जहाँ-जहाँ होगा, वहाँ-वहाँ उसे नदी कहेंगे। लेकिन इस आधार पर जहाँ ‘नदीʼ शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ हम ‘गंगाʼ का अर्थ नहीं ले सकते हैं। उस ग्रन्थ में भी यदि कोई कथन रहे कि उसने नदी  स्नान किया किया तो वहाँ हम ‘उसने गंगा में स्नान कियाʼ ऐसा अर्थ नहीं मान सकते हैं। अतः स्वामीजी के द्वारा दिये गये इस तर्क से हनुमानजी का जन्मस्थान किष्किन्धा सिद्ध नहीं होता है।

मिथिला का दावा- हनुमानजी का ननिहाल

मिथिला का दावा हनुमानजी के जन्मस्थान के लिए नहीं है, किन्तु मिथिला में उनका ननिहाल होने का है। इस सम्बन्ध में संस्कृत के वयोवृद्ध विद्वान् डा. रामकिशोर झा विभाकर का कथन है कि-

हनुमान् नराकार कोई आदि(वन)वासी पुरुष थे। इनको बन्दर समझना भ्रमात्मक है। शिवपुराण शतरुद्रिय संहिता अध्याय 20 के अनुसार अञ्जना, जो गौतम ऋषि की पुत्री थी, के गर्भ से इनका जन्म हुआ था–

तैर्गौतमसुतायां तद्वीर्यं  शम्भोर्महर्षिभिः॥

कर्णद्वारा तथाञ्जन्यां  रामकार्यार्थमाहितम्॥6॥

ततश्च समये तस्माद्धनूमानिति नामभाक्॥

शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबलपराक्रमः॥7॥

अर्थात् उन महर्षियों के द्वारा शम्भुदेव के उस वीर्य को गौतम की पुत्री अञ्जना के कानों के माध्यम से (उसके गर्भ में) भगवान् रामचन्द्र के कार्यों को सम्पादित करने के लिए रख दिया गया। तदनन्तर श्रीशम्भुदेव ने समय पाकर अतीव बल-पराक्रमी हनुमान् ऐसे नाम से कपि का शरीर धारण किया।

गौतम मुनि की पुत्री होने से अञ्जना (मानवी) के पुत्र हनुमान् मानव (भले देव अंशी) कोई व्यक्ति होने चाहिए।

गौतम मुनि के आश्रम के सम्बन्ध में स्कन्दपुराण के श्लोक निम्न प्रकार से हैं–

आसीद्ब्रह्मपुरी नाम्ना मिथिलायां विराजिता।

तस्यां  वसति धर्मात्मा गौतमो नाम तापसः॥

अहल्या   नाम तत्पत्नी पतिभक्ता प्रियंवदा।

सर्वलक्षणसम्पन्ना      सासीत्सर्वाङ्गसुन्दरी॥

अर्थात् मिथिला में ब्रह्मपुरी नाम की बस्ती थी, जहाँ गौतम नाम के तपस्वी शोभते थे। उनकी पत्नी का नाम अहल्या था, जो मधुरभाषिणी एवं पतिव्रता थी। वह नारी के सभी लक्षणों से परिपूर्ण एवं सर्वाङ्गसुन्दरी थी।

केशरी किं वा कुञ्जर भी कोई बिहार निवासी अथवा जनजातीय व्यक्ति ही थे, भले इनलोगों में बन्दर पूजित या गोत्र-पुरुष के रूप में समादृत होता रहा हो।

गुमला, झारखण्ड का दावा– हनुमानजी के वंशज आज भी बसते हैं।

झारखण्ड के गुमला जिला में अञ्जनाधाम है। इस धाम के सम्बन्ध में कहा जाता है कि माता अञ्जना के गर्भ से यही हनुमानजी का जन्म हुआ था। यहाँ के वन्य गुफा में अञ्जना एवं बालक हनुमान् की मूर्तियाँ चिरकाल से प्रतष्ठित है। यहाँ के वनवासी मुख्यतः उराँव जाति के लोग हैं, जो अपने को हनुमानजी का वंशज मानते हैं।

‘उराँव’ शब्द के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह ‘ओम राम’ (ॐ राम) शब्द का अपभ्रंश रूप है। त्रेता युग में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर लेने के उपरान्त ये लोग ‘ॐ राम’, ‘ॐ राम’ बोल-बोलकर नाचते-कूदते थे। इसी लिए इन वनवासी लोगों को अन्य लोगों ने ‘ओराँव’, ‘ओराँव’ कहकर पुकारना प्रारम्भ कर दिया। अभीतक इन वनवासी लोगों की जीवन-चर्या बहुत शुद्ध एवं सरल है। शाक, मूल, फल, कंद— इस जाति के लोगों का प्रधान भोजन है। पुरुषवर्ग तो अपने पहनावे में लँगोटी धारण करते हैं तथा पूँछ की तरह लँगोटी का एक छोर पीछे लटकाये रहते हैं।

रेवरेंड फादर कामिल बुल्के के कथानुसार रामकथा में निर्दिष्ट वानर विन्ध्य-प्रदेश एवं मध्य भारत में रहनेवाले जनजातीय थे। उराँव तथा मुण्डा जातीय लोगों में अभी तक तिग्गा, हलवान्, बजरंग, गड़ी नामवाले गोत्र मिलते हैं, जिन सभी शब्दों के अर्थ वानर होते हैं। सिंहभूमि के भुइयाँ जाति के लोग अपने वंश पवन अथवा हनुमत् से कहते हैं।

हनुमानजी का लालन-पालन अथवा पठन-पाठन निश्चय किसी शिष्ट समाज में हुआ होगा। हो सकता है कि यह प्रक्रिया मातृक मिथिला अर्थात् मातामह के घर में रखकर ही करबायी गयी हो। मामा शरद्वान् शतानन्द गोत्र प्रकाण्ड पण्डित तथा मिथिलावासी महाराज जनक के राजगुरु थे। विद्वानों के कथन है कि इसी हेतु से हनुमान् प्रायः सभी मानवीय संस्कारों से सम्पन्न थे। अन्यथा बन्दर समाज में उपनयन, वैदिकी सन्ध्या ये सब नितान्त असम्भव थे। अतः इनके सिद्धान्त न केवल संगीत क्षेत्र में उपलब्ध होते हैं, प्रत्युत ज्यौतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, भक्तिशास्त्र इत्यादि कतिपय क्षेत्रों में भी पर्याप्त मात्रा में देखे जाते हैं।

(महावीर मन्दिर की पत्रिका धर्मायण, अंक संख्या 112 हनुमान अंक-1 में प्रकाशित आलेख से साभार)

इस प्रकार, डा. विभाकर महावीर हनुमानजी का जन्मस्थान वर्तमान गुमला जिला के अंजनी धाम गुफा को मानते हैं। तथा उनका ननिहाल मिथिला में मानते हैं।

इस पक्ष में एक तर्क है कि वाल्मीकि के अनुसार जब हनुमानजी लंका पहुँ चे और वहाँ उन्होंने सीता को देखा तो वे इस दुबिधा में पड़ गये कि सीता के साथ किस भाषा में बात करें? वे सोचते है कि यदि मैं संस्कृत भाषा में बात करता हूँ तो इसे तो सम्पूर्ण भारत की पढ़ी-लिखी जनता बोलती है। तब सीता मुझे भी रावण का ही एक रूप मानकर डर जायेंगी। अतः हनुमानजी निर्णय लेते हैं कि वे मातृभाषा में बात करेंगे। अतः उन्होंने जिस भाषा में बात की वह उस समय प्रचलित मिथिला की लोकभाषा थी। हनुमान जी भी मिथिला में शिक्षा ग्रह्ण कर चुके थे अतः उन्हें इस भाषा में बोलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। सीताजी ने भी जब अपने मायके की भाषा सुनी तो उनके मन से भय दूर हो गया।

आगे डा. विभाकर इसी आलेख में लिखते हैं-

“जन्मस्थान का दावा

इनके मूल निवासस्थान को लेकर भारतवर्ष के विभिन्न राज्य के लोग अपने अपने ढंग से ऊहापोह करते हैं–

1.     महाराष्ट्र की अधिकाधिक जनता नासिक के निकट अंजनेरी (अंजन गिरि) पर्वत पर इनकी जन्मस्थली ज्ञापित करते हैं।

2.     कर्णाटक की जनता हम्पी में हनुमान् का जन्म मानती है।

3.     भुवनेश्वर (उड़ीसा) के लोग खुर्दा स्थान को बजरंगबली का जन्मस्थान मानते हैं।

4.     राजस्थान के निवासी चुरू क्षेत्र में महाबली मारुति की आविर्भावस्थली दिखलाती  है।

5.     बिहार विशेषतः मिथिला के लोग अपने क्षेत्र में इनका मातृकुल दिखाकर बिहार को हनुमानजी का जन्मस्थान मानते हैं।

इधर कुछ मास पूर्व एक समाचार प्रकाशित हुआ था– “तिरुपति देवस्थानम् का दावा तिरुमाला के पास अञ्जनाद्रि है भगवान् हनुमान् की जन्मस्थली।”[5] तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् (टी.टी.डी.) नेशनल संस्कृत युनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफेसर मुरलीधर शर्मा के नेतृत्व में पहले कई विद्वानों को शामिल किया गया। इस समिति ने घोषणा की है कि अंजनिपुत्र हनुमान् का जन्म अञ्जनाद्रि में ही हुआ था। यह स्थान दक्षिण भारत में श्री आञ्जनेयस्वामी के नाम से भी विख्यात है। भगवान् वेंकटेश का मन्दिर सातवें पर्वत वेंकटाद्रि पर है। इसी तिरुमाला की अन्य पर्वत शृंखलाओं में– नयनाद्रि, शेषाद्रि और गरुडाद्रि भी शामिल हैं। वायुपुत्र कहे जानेवाले हनुमान् अजना देवी के पुत्र हैं। इन्होंने तिरुमाला की सात पर्वत शृंखलाओं में से एक पर तप किया था, इसीसे इस पर्वत का नाम अञ्जनाद्रि पड़ गया है।

मेरा मानना है कि तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित हों या देश के किसी क्षेत्र के नेता हों, वे किसी ऐतिहासिक स्थान के सम्बन्ध में केवल अपना सुझाव दे सकते हैं न कि वे इदमित्थम् कहने के अधिकारी हैं।

हनुमानजी के जन्मस्थान के सम्बन्ध में वर्तमान झारखण्ड के गुमला जिला का दावा भी आधारहीन नहीं है। यहाँ आज भी सहस्र वर्षों से श्रीराम के अनुयायी बजरंग, हनुमान, पवन के गोत्र (टोटम) जाति वनवासी बन्धुओं की आवासस्थली विद्यमान है तथा अञ्जना देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए हनुमान् की जन्मस्थली अञ्जनाधाम मौजूद है। ऐसे स्थान को नजरअंदाज कर केवल नामकरण के आधार पर काले पहाड़, असितगिरि, अञ्जनाद्रि, कज्जलगिरि संज्ञक स्थान को हनुमान् की जन्मस्थली सिद्ध करना केवल बुद्धिविलासिता है का द्योतक हो सकता है, वास्तविक नहीं।”

इसी तथ्य को वे अन्य प्रमाणों से आगे सम्पुष्ट करते हैं कि-

“‘शिवपुराण’ की शतरुद्रिय संहिता के अनुसार हनुमान् गौतम मुनि की पुत्री अञ्जना के पुत्र माने गये हैं। इस प्रकार, संगीत-प्रवर्तक हनुमान् मिथिला के दौहित्र ठहरे। तब तो राम-सेवक हनुमान् भी पहले मैथिली (सीता, जानकी) से अवश्यमेव अभिज्ञात  रहे होंगे। अञ्जना के सोदर भाई शरद्वान् गौतम शतानन्द (सीरध्वज के वंश पुरोहित) हनुमान् के मातुल मामा लगते थे। अतः दुल्हा राम (तीनों भाई के साथ) की भेंट हनुमान् से मिथिला में अवश्य हो गयी होगी। सचमुच गोस्वामी तुलसीदास के निम्नोद्धृत दोहा का तात्पर्य तब समझा जा सकता है–

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥

अर्थात् एक तो मैं मंदमति (भुलक्कड़), मोहवश (अर्थात् मूढ़) कीशहृदय (वानर-सी बुद्धि वाला) अज्ञान (दुर्बल ज्ञान वाला) ठहरा, उस पर त्रिकालज्ञ स्वामी (अर्थात् आप) ने भी मुझे भुला दिया। आप तो दीन-दुखियों के बंधु षडैश्वर्यसम्पन्न भगवान् हैं। यहाँ विज्ञ पाठक ‘बिसारेउ’ पद पर ध्यानपूर्वक विचार करेंगे। जब पूर्व-परिचय हो तभी भूलने की बात आती है। इससे पहले अयोध्या में श्रीरामजी की भेंट नहीं हुई होगी। तब मिथिला के अतिरिक्त अन्यत्र पूर्व परिचय की सम्भावना नहीं दीखती है। अतः यहाँ ‘बिसारेउ’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसको एक बार भी पूर्व में देखा गया है, उसे ही विस्मृत भी किया जाता है।

आस्तिक हनुमान् मिथिला में रहकर अवश्य शिक्षित-दीक्षित हुए होंगे। इन्हें वेद-वेदाङ्ग, ज्योतिष, व्याकरण आयुर्वेद, गन्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) आदि के ज्ञान जरूर मिथिला में अर्थात् ननिहाल में रहकर मिले होंगे– ऐसा विचार मानस पटल पर कौंधने लगता है। ये ब्राह्मणोचित बहुत सारे संस्कार अपने मातृक (मामा के घर) में रहते-रहते ही पा गये होगे।”

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