बहुत दिन पहले की बात है। एक व्यक्ति को तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। वह रास्ते में खर्च के लिए बहुत सारा धन जुटाकर तीर्थाटन के लिए मन बनाने लगा। सबसे पहले वह अपने गुरु के पास गया और उनसे पूछा कि गुरुजी, मुझे काशी जाने की इच्छा हो रही है। मुझे काशी का माहात्म्य और वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बताइए।
गुरुजी ने पूरी ईमानदारी के साथ उसे बतला दिया कि काशी पहुँचकर इन-इन जगहों पर दर्शन कर लेना। वहाँ आदि विश्वेश्वर हैं, ज्ञानवापी के जल से आचमन कर मिट्टी के 14 सकोरों में जल भर कर अपने पूर्वजों को अर्पित कर देना। गंगा में स्नान के लिए फलाना-फलाना घाट है, फलाने-फलाने मन्दिर हैं। अहा, काशी तो सचमुच भगवान् शिव के त्रिशूल पर ही विराजमान है।
गुरुजी ने शिष्य का काशी के बारे तो सब कुछ बतला ही दिया, पर रास्ते का विवरण भी बताना वे नहीं भूले। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- “रास्ते में छोटी-छोटी नदियाँ मिलेंगीं, जंगल मिलेंगे। फलाने ठेकाने पर रुक कर रात बिताने के लिए अच्छा प्रबन्ध हो जाएगा। रास्ते में कई कठिनाइयाँ सामने आयेंगी, जिनका सामना करना पड़ेगा।” गुरुजी चूँकि कई बार उस रास्ते से काशी हो आये थे, इसलिए वे सब कुछ जानते थे, उन्होंने सबकुछ बतला दिया।
शिष्य भी तीर्थयात्रा के लिए निकला और रास्ते के लिए गुरुजी ने जो शिक्षा दी थी, उसका पालन करता गया। वह सही समय पर काशी पहुँच गया।
बाद में उस गाँव से कई लोग काशी जाने लगे। बाद में चलकर क्या हुआ कि लोगों के मन में काशी का माहात्म्य तो बैठ चुका था, हर जगह उसी की चर्चा होती रहती थी, तो सब लोग जानते थे कि काशी में साक्षात् शिव भगवान् विराजते हैं, वहाँ कोई कष्ट नहीं है, वहाँ पहुँच जाने पर आनन्द ही आनन्द है।
पर, रास्ते का वर्णन वे भूल गये थे। उनके गाँव से काशी कितना दूर है, कितने दिन जाने में लगते हैं, रास्ते में कौन-कौन गाँव पड़ेंगे, कौने-कौन नदियाँ पार करनी होगी, इनसे उन्हें कोई मतलब रहा नहीं, वे सीधे भगवान् शिव की नगरी के लिए तीर्थयात्रा पर निकल गये।
रास्ते में जब उन्हें लगा कि वे भटक रहे हैं, तो उन्होंने एक चरवाहे से पूछा- “भैया, शिव की नगरी जाना है, कौन-सा रास्ता है?” चरवाहे ने बता दिया कि “आगे जाकर दायें मुड़ जाना वहाँ एक छोटी नदी मिलेगी, उसे पार कर आगे बढ़ना, तो एक चौड़ा रास्ता मिलेगा” आदि आदि…
तीर्थयात्री ने पूछा- “भैया, क्या वहाँ गंगा नदी मिलेगी? शिवजी की नगरी के पास तो मैया गंगा बहती है!” यात्री पर तो केवल शिव की नगरी का धुन सवार था।
चरबाहे ने कहा- “नहीं, वहाँ गंगा मैया तो नहीं है, एक पतली-सी नदी है, उसे पार कर लेना, तब जाकर आगे रास्ता मिलेगा।”
तीर्थयात्री बिगड़ गया- “तब उस रास्ते से जाकर मुझे क्या होगा? जब तुम्हें नहीं मालूम, तो हमें क्यो, भटकाते हो? शिवजी का नगरी के पास तो गंगा मैया बहती है। तुम हमें गलत रास्ते पर ले जा रहे हो!”
चरबाहा तो उस क्षेत्र का आदमी था। उसे जितना मालूम था, उसने बतला दिया था। वह लोगों को उसी रास्ते से शिव की नगरी जाते देखा करता था, सो उसने इसे भी बतला दिया।
यह तीर्थयात्री चरबाहे पर बिगड़कर दूसरे रास्ते से चला। फिर आगे जकर उसे पूछने की जरूरत हुई। इस बार उसने घास काटने वाले व्यक्ति से पूछा। वह भी उसी इलाके का रहने वाला था, सो वह भी रोज-रोज भोलेनाथ की नगरी जानेवाले को जिस रास्ते से जाते देखता था, उसने वह रास्ता बतला दिया- “आगे एक पतली नदी मिलेगी, वहाँ एक बगीचा भी है, जिसमें खाने के लिए फल मिल जायेंगे। वहाँ रुककर कुछ खा-पी लेना और नदी पार कर भोले बाबा की नगरी के लिए निकल जाना।”
–“भैया, वहाँ दशाश्वमेध घाट मिलेगा न! सुनते हैं कि उसका बड़ा माहात्म्य है।”
–“नहीं। वहाँ तो बस एक छोटा-सा घाट है, जिस पर हमलोग रोज घास धोकर गाय को खिलाने ले जाते हैं।”
तीर्थयात्री फिर बिगड़ गया –“मैं दशाश्वमेध घाट की बात कह रही हूँ तो तुम हमें घास धोने वाले घाट की ओर भेज रहे हो? मूरख कही का!
इसी तरह जिस रास्ते से भी वह जाता, वहाँ रहने वाले तो सही रास्ता बतला देते। पर वह तीर्थयात्री भूल चुका था कि हम तो अभी रास्ते में हैं। उसे केवल रट लगी रहती थी कि “हमें शिव की नगरी जाना है, गंगा मैया में नहाना है, दशाश्वमेध घाट पर दान करना है।”
अंत में परिणाम हुआ कि वह तीर्थयात्री रास्ते में ही भटक कर मर गया।
हिन्दू धर्म में आज हम इसी भटकाव की स्थिति में हैं। हमलोग साधनावस्था को भुलाकर साध्यावस्था के प्रचार-प्रसार पर जोर देने लगे है।
हमें जहाँ पहुँचना है वह है- ज्ञान। ब्रह्म का वर्णन साध्यावस्था है।
हमें जिस रास्ते से पहुँचना है वह है- कर्म। कर्म का वर्णन साधनावस्था है।
किसी भी हाल में साधनावस्था और साध्यावस्था एक समान नहीं हो सकती है।
आइ.ए.एस. प्रतियोगिता का परीक्षार्थी पास करने के बाद अधिकारी बनता है। वह परीक्षा की तैयारी करते समय अधिकारी-जैसा व्यवहार करने लगे, तो प्रतियोगिता परीक्षा ही पास नहीं कर सकेगा। वह भटक जायेगा। वह कोर्स की किताब पढ़ना छोड़कर यदि जिलाधिकारी का मैन्युअल पढ़ने लगे, तो आप उसे क्या कहेंगे?
आज हम इसी भटकाव की स्थिति में ला खड़े कर दिये गये हैं। रास्ता भूल चुके हैं, साधनावस्था को भूल चुके हैं। साधनावस्था को दकियानूसी, आडम्बर, ब्राह्मणवाद आदि न जाने कितने नामों से संबोधित कर उससे हमें धीरे-धीरे वंचित किया जा रहा है।
याद रखें- हिन्दू धर्म के अतिरिक्त और किसी भी धर्म में साधनावस्था की निंदा नहीं की गयी है।
इस्लाम इसलिए मजबूत हो रहा है क्योंकि वहाँ नमाज पढ़ना, रोजा रखना, ये सब पवित्र कर्म माने गये हैं।
ईसाई भी गिरिजाघर जाना नहीं भूलते। जो नियमित रूप से जाते हैं, ‘प्रेʼ करते हैं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
हिन्दू यदि मन्दिर में जाकर पूजा करने लगते हैं, तो लोग उन्हें शिक्षा देने लगते हैं- ‘ब्रह्म ही सत्य है। बाँकी सब मिथ्या है। मन्दिर तो पुजारियों का पेट पालने के लिए है। ईश्वर तो निर्गुण है, सर्वव्यापी है।ʼ
साधनावस्था ब्रह्म नहीं है, इसलिए वह ब्रह्म के समान सत्य नहीं है। सही बात है, पर जबतक साध्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक वही सत्य है। उपासना साधनावस्था है, हमारा मार्ग है, इसी रास्ते से चलकर हम उपनिषद् के ब्रह्म को पा सकते हैं।
उपनिषद् साहित्य में प्रतिपादित ब्रह्म और उसके आनन्दमय स्वरूप को हथियार बनाकर साधनावस्था की हत्या करने का यह खेल 19वीं शती के ‘रिनेशाँʼ (धार्मिक पुनर्जागरण) द्वारा चलता रहा है। ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप के आधार पर सगुण उपासना का विरोध हुआ। मूर्तिपूजा को दकियानूसी कहा गया। मूर्तिपूजा साधनावस्था है, साध्यावस्था नहीं। वह पहुँचने का रास्ता है, पहुँचने का स्थान नहीं। काशी पहुँचने के रास्ते में दशाश्वमेध घाट की खोजना हमारी मूर्खता है।
परिणाम हुआ कि हिन्दूओं के जो दैनिक कर्तव्य थे, वे खतम हो गये।
हमें याद रखना होगा कि स्मृतिग्रन्थों में जो-जो ब्राह्मण के कर्तव्य रूप में कहे गये हैं, वे प्रत्येक मनुष्य के लिए आदर्श कर्तव्य हैं। कोई भी व्यक्ति उनका पालन कर सकता है। वेदाध्ययन आधुनिक शिक्षा का पर्याय है। उपनयन विद्यालय में प्रवेश लेने का पुराना नाम है। कोई व्यक्ति यदि अपने बच्चे को समय पर विद्यालय में नामांकन कर उसकी शिक्षा की व्यवस्था करता है तो उस बच्चे को आज के सन्दर्भ में उपनीत माना जायेगा।
आज हम सभी को शिक्षित करने का प्रयास करें। तभी वे सारे उपनीत माने जायेंगे। उन्हें वे सारे अधिकार मिल जायेंगे, जो कभी ब्राह्मणों के लिए ही सुरक्षित थे। आज उन्हें शिक्षित करने से कोई रोक नहीं रहा है।
राम मोहन राय, दयानन्द, सबने प्रचलित साधनावस्था का विरोध किया, उसे आडम्बर माना। साध्यावस्था को खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित-प्रसारित किया और उसे ही हिन्दू धर्म मान लिया। 19वीं शती का पूरा रिनेशाँ इसी उपनिषद् के प्रचार-प्रसार की कहानी है।
हमारे प्राचीन धर्म-सुधारकों में साध्यावस्था और साधनावस्था को अलग-अलग कर रखा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी राम को परब्रह्म माना पर उऩके नाम को जपने का उपदेश किया। नाम जपना साधन है, राम साध्य हैं।
आज जबतक हम इस साधनावस्था यानी कर्मकाण्ड– पूजा-पाठ, होम, भजन-कीर्तन आदि को महिमामण्डित नहीं करेंगे और हर स्थिति में केवल उपनिषद् का संदेश देने से परहेज नहीं करेंगे, तब तक हमारा हिन्दू-धर्म नीचे गिरता ही जायेगा।
हमें साधनावस्था और साध्यावस्था के अंतर को समझना होगा।