दरभंगा का मुंसिफ कोर्ट। अंगरेजों के जमाने में भारतीय जजों के कोर्ट को मुंसिफ कहा जाता था। 1873-74 का समय था। मुंसिफ कोर्ट में एक मुसलमान जज बैठे हुए थे। इसी समय मिस उर्दू रोती-बिलखती छाती पीटती हुई आयी। उसने अपील की- ‘हुजूर, श्रीमती हिन्दी मुझे बिहार से निकालना चाह रही है। मेरी फरियाद सुन ली जाये।ʼ
हुजूर चहक उठे- ‘हाय री तेरी तेरी हिरन-सी आँखें! हाय री तेरी कोयल-सी मीठी जुबान!ʼ
मिस उर्दू की जुबान फिर चहकने लगी- ‘हुजूर इस हिन्दी की क्या बिसात! अवध अखबार वालों ने सही फरमाया गया है- मैं उर्दू भाषा का क्या खाका खींचूं। यह कोई जुबान नहीं; बल्कि सुगंधित सार का संग्रह है। इसके बोलने वाले भोले-भाले हैं, पर बड़े चतुर हैं। यह सबसे आसान है, पर सबसे गम्भीर भी है। इसमें जो बातें कही जाती हैं, उसमें कोई अस्पष्टता नहीं होती। इसमें विविधता है, जो किसी दुकान में सजी हुई जिन्सों से कम नहीं। इसने अपने मुताबिक सभी जुबानों को समेट लिया है, इसलिए कोई भी विषय इसमें पढ़ाया जा सकता है। इसलिए हुजूर से गुजारिश है कि कम-से-कम दरभंगा की कचहरियों में उर्दू को पनाह दी जाये।ʼ
मिस उर्दू की मीठी जुबान से और हिरन-जैसी आँखों के तीर से ही हुजूर घायल हो चुके थे उस पर फिदा हो चुके थे। उन्होंने आब न देखा ताब, बस अपना फैसला सुना दिया कि आप इत्मीनान रखें, आपके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकेगा।”
यह कचहरी का कोई दृश्य नहीं बल्कि वह व्यंग्य है, जो ‘बिहार बन्धुʼ पत्रिका में 1873 ई. में प्रकाशित हुआ था। ‘बिहार बन्धुʼ के सम्पादक इस बात को लेकर काफी चिन्तित थे कि जब हिन्दी-उर्दू विवाद चल रहा था और कई अंगरेज उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लिए शिक्षा तथा कार्यालय की भाषा उर्दू बनाने के लिए शिफारिश कर चुके थे, ऐसी स्थिति दरभंगा की कचहरी में उर्दू अपना तीर चला चुकी थी और कई मुसलमान न्यायाधीश उर्दू को कचहरी की भाषा बनाने के लिए तरह-तरह की दलीलें दे रहे थे।
नेसफिल्ड ने भी अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया था कि उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी या उर्दू मे से किसी एक को चुनना होगा। सरकार सभी स्थानीय भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकती है और कार्यालय के काम-काज की भाषा बनाकर अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन की जिम्मेदारी नहीं ले सकती है। हिन्दी संस्कृत तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की मिलावट से बनी है, जिसे सभी हिन्दू समझ जाते हैं। दूसरी और उर्दू फारसी तथा क्षेत्रीय भाषाओं के मिलावट से बनी है, उसे भी सभी मुसलमान चाहे वे पढ़े हैं या अनपढ़ हो समझ जाते हैं। इसलिए दोनों में से एक को अपनाना होगा।
चूँकि हर जगहों पर मुगलकाल से ही उर्दू का प्रचलन था इसलिए इस विवाद में उर्दू का पलड़ा भारी था। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1873ई. में संयुक्त प्रान्त के कुल 36 समाचार पत्रों में से 25 उर्दू के हैं तथा केवल 9 हिन्दी के हैं। शेष दो अन्य भाषाओं में हैं। इसी वर्ष विद्यालयों में पढ़ाने के लिए 54 पुस्तकें उर्दू में प्रकाशित की गयी हैं तथा हिन्दी में केवल 35 प्रकाशित हैं।
इस प्रकार, सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश तथा बिहार में शिक्षा तथा कार्यालयों में उपयोग के लिए केवल दो भाषाएँ प्रतियोगिता में थीं, जिनमें उर्दू बहुत आगे थी। हिन्दी पीछे चल रही थी।
1876 से 1880 ई. तक यही खीचतान चलता रहा। बिहार बन्धु ठेठ हिन्दी समर्थक पत्रिका थी तो अवध अखबार उर्दू के लिए काम कर रही थी। दरभंगा में भी उर्दू की ओर ‘हुजूरोंʼ का झुकाव देखकर ‘बिहार बन्धुʼ के सम्पादक ने फब्तियाँ कसी थीं कि वे हुजूर तो कुँवारी मिस उर्दू की हिरन-सी आखों की नजर से और कोयल-सी बोली से घायल हो चुके हैं।
ऐसी उहापोह की स्थिति तब जाकर खत्म हुई जब 1880 ई.में लक्ष्मीश्वर सिंह ने हस्तक्षेप किया और उर्दू के बजाय देवनागरी में लिखी गयी हिन्दी को कार्यालय की भाषा घोषित किया।
स्रोत :
- Joseph Héliodore Garcin de Tassy, Joseph Héliodore Garcin de Tassy· (1876) La Langue et la littérature hindoustanies. Pp. 1-17.
- The AthenÆum. No 2516. Jan 15, 1876. P. 89
मिथिला आ मैथिलीक लेल सतत प्रयासरत
वाह…..बहुत बढ़िया । इसी तरह के कार्य के लिए महराज लक्ष्मीश्वर सिंह का नाम मिथिलांचल में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है।