मिथिलामे बुद्धक पूजा- भाग 2

जाहि बुद्धकें सनातन धर्मक मतावलम्बी सामाजिक सद्भाव बनाकए रखबाक लेल विष्णुक अवतार मानि लेलनि आ आदि शंकराचार्यक बाद हुनका भगवान् विष्णुक नवम अवतार मानि लेलनि, ओहि बुद्ध कें हथियार बना कए 20म शतीक किछु स्वार्थी तत्त्व द्वारा समाजकें खण्ड-खण्ड कए तोड़ल जा रहल अछि। नवबौद्धवाद किछु एहने वाद थीक।

एकरा बुझबाक लेल हमरालोकनि मिथिलाक पुरान संस्कृतिकें देखी। मिथिला बौद्धदर्शनक खण्डन केनिहार विद्वानक भूमि रहलाक बादो ब्रह्मपुराण, वराह पुराण आदिमे वर्णित दशावतारक अनुसरण करैत बुद्धकें मध्यकाल धरि आराध्य मानैत रहल।

मिथिला सभ दिनसँ धार्मिक आ सामाजिक समन्वयक भू-भाग रहल अछि। एतय भलें दार्शनिक स्तर पर बौद्धदर्शनक सिद्धान्तकें खण्डित करैत वैदिक दर्शनक सिद्धान्तक प्रतिपादन लेल विद्वान् लोकनि प्रयासरत रहलाह, मुदा सामाजिक स्तर पर एक दोसर सिद्धान्तक प्रति वैमनस्य नै रहल। बौद्धधर्मक प्रवर्तक शुद्धोदनक पुत्र बुद्ध मिथिलामे विष्णुक अवतारक रूपमे पूजनीय रहलाह।

14म शतीमे म.म. चण्डेश्वर अपन कृत्यकल्पतरु नामक ग्रन्थमे वैशाख शुक्ल सप्तमीसँ तीन दिनक उत्सवक उल्लेख केने छथि जाहिमे कहल गेल अछि जे पुष्य नक्षत्र युक्त वैशाख शुक्ल सप्तमी कें बुद्धक प्रतिमा पर अभिषेक करी आ बौद्ध संन्यासीकें अन्न, वस्त्र, पुस्तक आदि दान करी। ई सामाजिक सद्भावनाक एकटा उदाहरण थीक जे ओहि कालमे प्रचलित छल तें म.म चण्डेश्वर अपन ग्रन्थमे विधानपूर्वक एकर उल्लेख कएलनि। विशेष पढी>>

एही कृत्यरत्नाकरमे बुद्ध-द्वादशी पाबनिक सेहो उल्लेख भेल अछि। ई साओन मासक शुक्लपक्षक द्वादशी तिथिकें मनाओल जाइत छल। वराहपुराणकें उद्धृत करैत म.म. चण्डेश्वर लिखैत छथि जे श्रावण मासक द्वादशीकें संकल्प कए फूल, चानन आदि लए परम देवक पूजा करी।

एतए ओ एहि अवसरक परिचय दैत वराह पुराणक वचन उद्धृत करैत छथि जे शुद्धोदनक पुत्र बुद्धक रूपमे स्वयं जनार्दन अवतार नेने रहथि ओ राज्य आ सन्तानक सुख भागि परम गति कें प्राप्त कएलनि। एहि स्थल पर म.म. चण्डेश्वर वराहपुराणक एवमेव शब्दक व्याख्या करैत छथि जे एहिसँ सामान्य धर्मक अतिदेश बुझल जेबाक चाही। अर्थात् आगाँ कहल गेल तथ्यकें सेहो पहिलुके तथ्यक संगे विस्तार रूपमे बुझबाक चाही।

वराहपुराणे-

दुर्वासा उवाच-
एवमेव श्रावणे तु मासि संकल्प्य द्वादशीम्।
अर्च्चयेत् परमं देवं गन्ध-पुष्प-विलेपनैः।
 (पाठान्तर-  निवेदनैः)
अर्थ- वराहपुराणमे। दुर्वासा कहलनि- एही तरहें साल मासमे द्वादशी तिथिक संकल्प कए परम देवक पूजा चानन, फूल आदि समर्पित कए करबाक चाही।

बुद्धाय पादौ सम्पूज्य श्रीधरायेति वै कटिम्।
पद्मोद्भवाय जठरमुरः संवत्सराय च।।
सुग्रीवायेति कण्ठन्तु द्वौ भुजौ विश्वबाहवे।
प्राग्वच्छस्त्राणि सम्पूज्य शिरो वै परमात्मने।

पयर पर बुद्धाय नमः, डाँड़ पर श्रीधराय नमः, पेट पर पद्मोद्भवाय नमः, छाती पर संवत्सराय नमः, कण्ठ पर सुग्रीवाय नमः आ दूनू बाँहि पर विश्वबाहवे नमः एहि मन्त्रसँ पूजा करी। पहिने कहल गेल मन्त्रसँ शस्त्र आदिक पूजा कए माथ पर परमात्मने नमः एहि मन्त्रसँ पूजा करी।

एवमभ्यर्च्य मेधावी तस्याग्रे पूर्ववद् घटम्।
स्थापयेत् तत्र सौवर्णं बुद्धं कृत्वा विचक्षणः।।
तमप्येवं तु सम्पूज्य ब्राह्मणाय निवेदयेत्।
अनेन विधिना पूर्वं द्वादशी समुपोषिता।।

विद्वान व्यक्ति एना पूजा कए हुनक आगाँमे कलश स्थापित कए बुद्धक सोनाक मूर्ति राखि हुनको एहिना पूजा करथि। आ पूजाक बाद ओ मूर्ति ब्राहमणकें समर्पित कए देथि। एहि विधिसँ पूर्वकालमे ई द्वादशी व्रत कएल गेल छल।

शुद्धोदनस्य बुद्धोऽभूत् स्वयं पुत्रो जनार्दनः।
महतीं च श्रियं प्राप्तः पुत्रपौत्रसमन्वितः।
भुक्त्वा राज्यश्रियं सोऽथ गतिं परमिकां गतः।

स्वयं भगवान् विष्णु शुद्धोदनक पुत्र बुद्ध भेलाह। ओ महान् ऐश्वर्य कें पाबि अन्तमे परमगतिकें पओलनि।

एवमेवेत्यादिना मत्स्यद्वादशीसामान्यातिदेशः।।
एवमेव एहि शब्दसँ मत्स्यद्वादशीक विस्तार बूझल जेबाक चाही।

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