मिथिलामे बुद्ध-पूजाक परम्परा

मिथिलामे भलें महान् दार्शनिक उदयनाचार्यकें बौद्धमतक खण्डन करबाक श्रेय देल जाइत हो; आ कहल जाइत हो जे ओ बौद्धकें निर्मूल कएलनि; आ एहि सम्बन्धमे अनेक खिस्सा-पिहानी गढि दूनू मतक बीच शास्त्र-चिन्तनकें भयंकर युद्ध आ शत्रुताक रूपमे प्रचारित कएल जाइत हो; मुदा सत्य इएह अछि जे समाज बुद्धकें अपन आराध्यक रूपमे मानैत रहल।

हमरालोकनिकें ई बुझबाक चाही जे दर्शनशास्त्रक दू मतक बीच जतए कतहु शास्त्रार्थ भेल हो ओ सभटा तत्त्वक अन्वेषणक लेल होइत रहल। आ जिनका ने शास्त्रसँ मतलब रहनि आ ने कोनो मतक ज्ञान रहनि ओ सामान्य लोक एहेन शास्त्रार्थकें दू टा राजाक बीच लड़ाइके रूपमे शत्रुता-मैत्रीक गणना करैत रहलाह।

वास्तविकता ई छल जे मिथिलामे सेहो बुद्धकें विष्णुक अवतार मानल जाइत छल आ हुनक मूर्ति ठाम-ठाम स्थापित छल। दार्शनिक स्तर पर जे मतवाद रहल हो मुदा सामाजिक आ धार्मिक स्तर पर मिथिलामे बुद्धदेव पूजित रहलाह।

वैशाख शुक्ल सप्तमी तिथि-

वैशाख शुक्ल सप्तमीकें बुद्धमूर्तिक अभिषेक आ पूजा होइत छल। एहि पूजाक मन्त्र बुद्धक वचनसँ होइत छल न कि वैदिक मन्त्रसँ। अर्थात् बुद्धक पूजनक विधान जे बौद्ध उपासनाक महायान शाखामे छल ओही मन्त्रसँ होइत छल।

ई पूजा वैशाख मासमे सप्तमी तिथिकें पुष्य नक्षत्र रहला पर होइत छल आ तीन दिन धरि एकर उत्सव मनाओल जाइत छल।  एहि उत्सवमे चैत्य, मन्दिर आ घरकें सजाओल जाइत छल। एहि अवसर पर बौद्ध संन्यासीकें पुस्तक, भोजन, वस्त्र आदि दए सत्कार करब, संगहिं एहि दिन गरीब-गुरबाकें वस्त्र, अन्न आदि दान करबाक परम्परा समाजमे प्रचलित रहल। तीन दिन धरि नाच-गानक उल्लेख सेहो एतए कएल गेल अछि।

कर्णाट-कालक प्रख्यात धर्मशास्त्री म.म. चण्डेश्वर अपन कृत्यरत्नाकरमे ब्रह्मपुराणक वचन उद्धृत करैत लिखैत छथि जे अठाइसम कलियुगमे जखनि शाक्यलोकनि अपन धर्मकें छोड़ि भ्रष्ट भए गेलाह तखनि भगवान् विष्णु बुद्धक रूपमे अवतार लए धर्मकें फेरसँ व्यवहारमे अनलनि।

एहि दिन बुद्धक पूजाक संग आनो पूजाक विधान कएल गेल अछि-

गंगाक पूजा-

म.म. चण्डेश्वर ब्रह्मपुराणक एही स्थलक आधार पर वैशाख शुक्ल सप्तमीकें गंगाक पूजाक सेहो विधान करैत छथि। ओहि वचनक अनुसार वैशाख मासक शुक्ल पक्षक सप्तमी तिथि कें महात्मा जह्नु गंगाकें क्रोधवश पीबि गेलाह। मुदा फेर जखनि हुनका अपन एहि कार्य पर पश्चात्ताप भेलनि तँ दहिना कानक छिद्र देने गंगाकें निकालि पुनः पृथ्वी पर प्रकट कएलनि। महात्मा जह्नुक द्वारा गंगाकें पीयब आ फेर प्रकट करब एही दिन भेल छल तें एहि उपलक्ष्यमे गंगाक पूजा कएल जेबाक चाही।

ब्रह्मपुराणे
वैशाखे शुक्ल सप्तम्यां जाह्नवी जह्नुना पुरा।
क्रोधात् पीता पुनस्त्यक्ता कर्णरन्ध्रात्तु दक्षिणात्।।
तां तत्र पूजयेद् देवीं गङ्गां गगनमेखलाम्।

म.म. चण्डेश्वर कृत कृत्यरत्नाकर में उद्धृत ब्रह्मपुराणक पंक्ति

बुद्धक पूजा-

उपर्युक्त बुद्धपूजाक उल्लेख करैत कहैत छथि जे-
अष्टाविंशतिमे प्राप्ते विष्णुः कलियुगे सति।
शाक्यान् विनष्टधर्माँश्च बुद्धो भूत्वाप्रवर्तयत्।
तत्र पूज्यो भविष्योसौ पुष्यादिदिवसत्रयम्।
सर्वौषधैः सर्वगन्धैः सर्व्वबीजैश्च सर्व्वदा।
बुद्धार्चास्नपनं कार्यं शाक्योक्तैर्वचनैः शुभैः।।
अर्च्चा प्रतिमा
सुविचित्राणि कार्य्याणि चैत्त्यदेवगृहाणि च।
पूज्याः शाक्याश्च यतयः पुस्तकाहारचीवरैः।।
पुष्पवस्त्रान्नदानञ्च देयं दीनजनस्य च ।
त्रिदिनञ्चोत्सवः कार्य्यो नटनर्त्तनसंकुलः।।

म.म. चण्डेश्वर कृत कृत्यरत्नाकर में उद्धृत ब्रह्मपुराणक पंक्ति

ई अंश उद्धृत कएलाक बाद म.म. चण्डेश्वर अपन शब्दमे आगाँ लिखैत छथि जे बुद्धदेवक पूजा पुष्य नक्षत्र युक्त वैशाख शुक्ल सप्तमीकें कएल जेबाक चाही, मुदा गंगाक पूजामे पुष्य नक्षत्रक कोनो गणना नहिं। जाहि दिन वैशाख शुक्ल सप्तमी तिथि पड़ि जाए ओहि दिन गंगाक पूजा होएबाक चाही।
अत्र वैशाखशुक्लसप्तम्यामित्युपक्रमात् पुष्यादिदिवसत्रयमित्यभिधानात् पुष्ययुक्तवैशाखशुक्लसप्तम्यां बुद्धार्च्चादि गङ्गापूजा तु केवलायामपि।

म.म. चण्डेश्वर कृत कृत्यरत्नाकरमे वचन

म.म. चण्डेश्वर अपन शब्दमे गंगापूजा आ बुद्धपूजाक तिथिनिर्णय सेहो करैत छथि। तें एहिसँ बुझबाक चाही जे ई दूनू पर्व मिथिलामे प्रचलित छल आ तें कोन कोन दिन कोन पूजा होएत ताहि पर संदेहकें दूर करैत म.म चण्डेश्वर स्पष्ट व्याख्या कएने छथि।

वाचस्पति मिश्रक कृत्यमहार्णव

म.म. वाचस्पति सेहो अपन ग्रन्थ कृत्यमहार्णवमे श्रावण शुक्ल द्वादशीकें धरणीव्रतक प्रसंग बुद्धमूर्तिक पूजा लिखने छथि। ओतए पूजाक पद्धति सेहो देल अछि। बुद्धक प्रत्येक अंगमे भिन्न भिन्न मन्त्रसँ पूजाक विधान कएल गेल अछि। ई पूजाविधि वराहपुराणसँ उद्धृत कए म.म. वाचस्पति लिखने छथि। ओ लिखैत छथि जे भविष्यपुराणमे सेहो इएह बात कहल गेल अछि।

एतए आधुनिक इतिहासकारलोकनि भ्रम पसारैत कहैत छथि जे मिथिलामे बुद्धक पूजा ब्राह्मण नहिं शूद्रक द्वारा कएल जाइत छल। मुदा उपर्युक्त उद्धरणमे कतहु एहि बातक संकेत नहि अछि जे ई शूद्रक पूजा थीक। एतेक धरि जे बौद्ध संन्यासीक आदर-सत्कार सेहो एहि उत्सव अंग छल। तीन दिनक उत्सव स्वयंमे महत्त्वपूर्ण अछि।

एहि विवेचनसँ सिद्ध होइत छल जे मिथिलामे 14म शतीमे बुद्धदेवक ई पूजा प्रचलित छल। तें बुद्धक मूर्ति जे भेटैत अछि तकरा अन्यथा नै लेल जेबाक चाही।

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