छठि पूजाक मैथिल साम्प्रदायिक कथा

छठि व्रतक मैथिल साम्प्रदायिक संस्कृत कथा

सूर्यदेव स्थावर आ जंगमक आत्मा छथि। ओ प्रत्यक्ष देवता छथि। हुनक पूजा विश्व भरिमे कोनो ने कोनो रूपमे होइत अछि। ओना मगधक सूर्य पूजाक बड प्राचीन इतिहास छैक आ ईहो कहल जाइत छैक जे सूर्यक मूर्तिपूजा केनिहार मग द्विज शाकद्वीपसँ जतए आबि बसलाह सैह मगध कहौलक। मगाः मगद्विजाः धीयन्ते अत्र इति मगधः।

साम्ब-पुराणक एकटा पाठ जे मिथिलामे भेटल अछि ताहिमे मगधमे मगलोकनिक निवासक कथा देल गेल अछि। मूल अंश हिन्दी अनुवादक संग पढबाक लेल एतए दबाउ।

मिथिलामे छठि-पूजा

मुदा मिथिलामे सेहो सूर्यक उपासना बड व्यापक अछि। गामे-गामे सूर्यक मूर्ति भेटैत अछि। अनेक ठाम हेमनिमे जे.सी.बी. मशीनसँ माँटि काटल जेबाक क्रममे मारते रास सूर्यमूर्ति सेहो बहराएल अछि। तें ई स्पष्ट अछि जे मिथिलामे सेहो छठि व्रत, पूजा आ कथाक प्रचलन प्राचीन काल सँ रहल अछि।

मिथिलामे छठिक पूजाकें विवस्वत्षष्ठी कहल जाइत छैक। एतए अलग कथा देल गेल अछि, जे एहि छठिक पूजाक फलश्रुतिक संग पूजाविधिक सेहो वर्णन करैत अछि।

दोसर दिन भिनुसरका अर्घ्य कालमे ई कथा कहबाक विधान कएल गेल छैक। आब वैज्ञानिक युगमे जँ कथा कहनिहार लोक नै भेटथि तँ एकर ध्वन्यंकन जे एतए देल गेल अछि तकर उपयोग सेहो कएल जा सकैत छैक।

एखनो जिनका अपना संस्कृतमे कथा कहबाक योग्यता छनि अथवा जनिका पण्डित उपलब्ध छथिन, ओ वर्षकृत्यमे देल गेल पद्धतिक अनुसार पूजा करैत छथि आ अपन परम्परकें सुरक्षित रखने छथि। जनिका कोनो उपाय नै छनि ओ विना मन्त्र आ कथाक खाली हाथ उठाए अर्घ्य दए संतोष करैत छथि। तें छठि-पूजामे मन्त्र नै अछि ई अपवाह थीक।

जँ संस्कृतमे कथा कहबासँ असमर्थ छी तँ कमसँ कम मैथिलीओ मे ई पढबाक चाही, जेकरा लेल एही कथाक मैथिली अनुवाद सेहो देल अछि।

एतए ध्वन्यंकन (audio file) सुनल जा सकैत अछि।

संस्कृतमे मूल कथा

एकदा नैमिषारण्ये शौनकाद्याः महर्षयः।

नानादुःखयुतान् दृष्ट्वा मनुष्याँश्च दयालवः।।1।। 

तमागतं समालोक्य समभ्यर्च्याप्तसौहृदाः।

पप्रच्छुर्विनयान्नृणाम् दुःखनाशाय सत्तमाः।।2।।

सूत सूत महाभाग सर्व्वशास्त्रार्थकोविद। 

नानादुःखसमायुक्ता मनुष्याः भूतले स्थिताः।।3।। 

दुःखनाशः कथं तेषां मनुष्याणां भवेद् वद।

सूत उवाच 

कथयामि कथां दिव्यां शृणुध्वं हि समाहिताः

एवमेव पुरा पृष्टः पुलस्त्यो वाग्विशारदः। 

सत्यव्रतेन भीष्मेण लोकानुग्रहकांक्षया।।5।।

मनुष्याश्चापि लोकेऽस्मिन् स्वकर्मवशवर्तिनः।

अल्पायुषोऽल्पदेहाश्च तथा चैवाल्पबुद्धयः।।6।। 

अल्पप्रजा धर्महीना आलस्याद् विहितोज्झिताः।

देवार्च्चनविहीनाश्च भूसुरस्यापमानिनः।7।।

दुःखजालैः परीभूता पीडिताश्चाप्यहर्निशम्।

दुःखनाशः कथं तेषामचिरात् स्याद् वद प्रभो।।8।। 

एवं पृष्टो मुनिः प्राह रोगसंदोहनाशने। 

पुलस्त्य उवाच 

शृणुध्वं कथयिष्यामि पुरावृत्तं मनोरमम्।9।।

शृष्वतां पठतां नृणां महापातकनाशनम्।

आसीत् क्षत्रियदायादः सर्वेषां द्रोहकृन्नृणाम्। 

परोत्सवं न सहते भूयो दुष्टमतिर्बली। 

प्राग्जन्मकृतदोषेण कुष्ठरोगातुरोऽभवत्।।11।। 

यक्ष्मादिरोगसम्पन्नो जीवन्नेव मृतोपमः। 

जीवनान्मरणं भद्रं मेने रोगातुरः किल।।12।। 

तदा वै ब्राह्मणः कश्चिद् वेदवेदाङ्गपारगः।

तेजस्वीसर्वशास्त्रज्ञस्तपस्वी करुणार्द्रधीः।।13।।

तीर्थयात्राप्रसङ्गेन तत्रापि समुपागतः।

तमागतं समुत्तस्थुर्ददौ तस्मै वरासनम्।।14।।

प्रणेमुश्चोपविष्टाश्च तमूचुर्विनयान्विताः। 

अहो भाग्यवशाद् यातं दर्शनं तव सुव्रत।।15।। 

दुःखनाशो भवेत् त्वत्र इति मन्यामहे वयम्। 

महोदयाय महतां दर्शनं नान्यथा भवेत्।।16।। 

इति मत्वाथ पृच्छामि त्वामिदं करुणानिधे।

कुष्ठाभिभूतश्चैवायं तथा पुत्रविवर्जितः।।17।। 

मृतप्रजस्तथैवासौ वयञ्च भयवर्जिताः। 

परित्यक्ता च भर्त्रैयमियं प्रोषितभर्तृका।18।।

राज्यभ्रष्टा कुमाराश्च विद्याहीनाश्च सन्ति हि। 

दुःखनाशः कथं तेषां भवेद् वद महामते।।19।।

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां ब्राह्मणः करुणामयः। 

अभिनन्द्य वचस्तेषां स विचारपरोऽभवत्।।20।। 

आरोग्याय रविर्देवः पापराशिक्षयस्तथा।

पापमूलानि दुःखानि सर्वाणीति जगुर्बुधाः।।21।। 

एक एवोपदेशोत्र कर्तव्यः सर्वकार्यकृत्।

एते विधिमजानन्तो जपादिकरणेऽक्षमाः।।22।। 

भक्तिश्रद्धाविहीनाश्च तथात्मानधिकारिणः।

भूयो भूयो विचार्य्याथ जगाद वचनं द्विजः।।23।।

भास्करस्य व्रतं त्वेकं यूयं कुरुत सत्तमाः।।24।।

सर्व्वेषां दुःखनाशो हि भवेत् तस्य प्रसादतः।

श्रुत्वा मुमुदिरे सर्वे स्मृत्वा वाक्यं पुनः पुनः।।25।।

पप्रच्छुर्विनयात् सर्व्वे हर्षगद्गदया गिरा। 

कदा कोऽत्र विधिर्विप्र कथमाराधनं विभोः।।26।।

सर्वं विस्तरतो ब्रूहि कृपासागर सुव्रत। 

विप्र उवाच- 

कार्तिके शुक्लपक्षे तु निरामिषपरो भवेत्। ।27।। 

पञ्चम्यामेकभोजी स्याद्वाक्यं दुष्टं परित्यजेत्।

भावदुष्टं न भुञ्जीत दुष्टश्रवणकृन्न च।।28।।

भूमिशायी जितक्रोधः शुचिः श्रद्धासमन्वितः। 

षष्ठ्याञ्चैव निराहारः फलपुष्पसमन्वितः।।29।।

सरित्तटं समासाद्य गन्धदीपैर्मनोहरैः। 

धूपैर्णानाविधैर्दिव्यैर्नैवेद्यैर्घृतपाचितैः।।30।।

गीतवाद्यादिभिश्चैव महोत्सवसमन्वितैः।

समभ्यर्च्य रविं भक्त्या दद्यादर्घ्यं विवस्वते।।31।।

रक्तचन्दनसंमिश्रं रक्तपुष्पाक्षतान्वितम्। 
नानाफलसमायुक्तं दिव्यकौशेयसंयुतम्।।32।।

नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानर जातवेदसे।

त्वमेव चार्घ्यं प्रतिगृह्ण गृह्ण देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।।33।।

नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे। 

दत्तमर्घ्यं मया भानो त्वं गृहाण नमोऽस्तु ते।।34।।

ज्योतिर्मय विभो सूर्य तेजोराशे जगत्पते।

अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।35।।

एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। 

अनुकम्पय मां प्रीत्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।36।। 

एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। 

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं संज्ञयासहित प्रभो।।37।। 

मन्त्रैरेभिः प्रदातव्यं भास्वते दीप्ततेजसे। 

अर्धप्रदक्षिणां कृत्वा प्रणमेच्च पुनः पुनः।।38।।

गीतवाद्यादिनृत्यैश्च रात्रौ जागरणं चरेत्।

पुनः प्रातः समभ्यर्च्य दत्वार्घ्यं स्वस्थमानसः।।39।।

सदक्षिणं तथा चान्नं विप्रेभ्यः प्रतिपादयेत्। 

व्रती च पारणां कुर्यात् प्रसन्नवदनाम्बुजः।।40।। 

व्रतेनानेन संतुष्टो दुःखं हरति भास्करः। 

चक्रुस्ते श्रद्धया युक्ताः स्वस्वदुःखोपशान्तये।।41।।

यक्ष्मापस्मारकुष्ठादियुक्तः क्षत्रियनन्दनः।

कमनीयः स नारीणां त्रिभिर्वर्षैर्बलान्वितः।।42।। 

पुत्रहीनो भवेत्पुत्री जीवत्पुत्रो मृतप्रजः।

सुभगा पतिना त्यक्ता पत्युः प्राणसमा भवेत्।।43।।

प्रोषितस्तु पतिर्यस्याः सा भवेद्भर्तृसंयुता। 

एवं मनोरथैः पूर्णा अभवन् व्रतकारिणः।।44।।

सूत उवाच 

ख्यातमेतद् व्रतं विप्राः स्तुतं वै सर्वदेहिनाम्।

वाञ्च्छितार्थप्रदं चैव व्रतं सर्वसुखप्रदम्।।45।।

 आसीत् तत्र दरिद्रो यः सद्ब्राह्मणकुलोद्भवः।

विद्याहीनः कुमारश्च भिक्षुर्गृहविवर्जितः।।46।।

 न वित्तनियमस्तस्य न भक्ष्याच्छादनस्य च। 

क्षुत्क्षामः पर्यटन् पृथ्वीं शर्म्म विन्दति न क्वचित्।।47।।

एवं बहुतिथे काले पर्य्यटन् खिन्नमानसः।

समागतश्च तत्रैव यत्रैव समुपागतः।।48।। 

श्रुत्वा विप्रवचः सोऽथ प्राहेदं हृष्टमानसः।

आकार्षीच्छ्रद्धया चैतद् व्रतं सर्व्वेप्सितप्रदम्।।49।।

व्रतेनैकेन तस्यासीदतीव पठने मतिः।

 पठित्वा कतिचिद् वर्षैः काव्यालंकृतिवित् कृती।।50।। 

स्ववित्तोपार्जितैर्वित्तैर्विवाह्यैकां सुवंशजाम्। 

पुत्रपौत्रान्वितो भूत्वा सर्वसम्पत् समन्वितः।।51।। 

पाठयन् बहुशो विप्रान् सर्व्वभोगान्वितः सुखी। 

जपन्नष्टाक्षरं विष्णोर्वेदपारायणं चरन्।।52।।

निनाय च दिनं सर्व्वमन्ते तेजस्विनां गतिम्।

 जगाम स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रसादतः।।53।। 

राज्यभ्रष्टश्च श्रुत्वैतद् व्रतं सर्व्वेप्सितप्रदम्। 

चकार विधिवद्विप्रो भक्तिश्रद्धासमन्वितः।।54।।

 आमात्यः पञ्चभिर्वर्षैः मन्त्रयित्वा परस्परम्। 

समागतश्च तत्रैव यत्रास्ते राजसत्तमः।।55।।

 राजानमग्रतः कृत्वा गताः सर्व्वे बलान्विताः। 

हत्वा द्रोहकरान् सर्वानुत्सार्य च परं बलम्।।56।। 

दृष्ट्वा त्वन्यान् समुत्सार्य्य कृत्वा राज्यमकण्टकम्।

तमेव चक्रे राजानं पूर्व्ववत् सोऽप्यपालयत्।।57।। 

अन्येऽपि ये व्रतं चक्रुरभीष्टं तेऽपि लेभिरे। 

एवं ये वै करिष्यन्ति व्रतं सर्वेप्सितप्रदम्।।58।।

 तेषामभीष्टसिद्धिः स्यात् भास्करस्य प्रसादतः। 

साक्षाद्देवः सप्तसप्तिः सर्वेषां पालकः स च।।59।। 

श्रुत्वा कथामिमां दिव्यां व्रतं कृत्वा विधानतः। 

शक्तितो दक्षिणां दद्यात् सुवर्णं वाचकाय वै।।60।। 

शृण्वन्ति ये कथां दिव्यां भक्तिभावसमन्वितः। 

गङ्गादिसर्व्वतीर्थानां स्नानपुण्यं लभन्ति ते ।।61।।

 इति स्कन्दपुराणे विवस्वत् षष्ठीव्रतकथा समाप्ता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *