(परम्परासँ व्रतकथा संस्कृतमे होइत अछि। एखनहु अनेक ठाम पुरोहित रहैत छथि आ ओ विधानपूर्वक पूजा कराए कथा कहैत छथिन्ह। जँ सम्भव हो तँ ओकरे उपयोग करी।
कथा मैथिली अथवा संस्कृतसँ भिन्न भाषामे हो, अथवा नहिं एहि पर विवाद भए सकैत अछि। शास्त्रार्थक स्थितिमे निष्कर्ष यैह जे कथा केवल संस्कृतेमे होएबाक चाही, किएक तँ हमरालोकनिक ई अवधारणा अछि ऋषि-मुनिक मुँहसँ निकलल वाणी अपन ध्वनि द्वारा आध्यात्मिक प्रभाव उत्पन्न करैत अछि, ओकरा जखने कोनो आन भाषामे अनुवाद कए देल जाएत, तखनहिं ओकर ध्वन्यात्मक प्रभाव समाप्त भए जाएत। तें निष्कर्ष यैह जे कथा संस्कृते मे होएबाक चाही।
मुदा, जँ संस्कृत भाषामे कथा कहबाक सुविधा नहिं हो आ एहि कारणें कथा कहले नै जैबाक स्थिति उत्पन्न भए जाए तँ भाषान्तरमे अनुवादक रूपमे कथा कहबाक चाही।
कहबी छैक जे सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्धं त्यजति पण्डितः। यैह सोचि एतए मैथिली अनुवाद सेहो देल जा रहल अछि।
बहुतो ठाम हिन्दीमे उपलब्ध कथाक व्यवहार मैथिलो समाजमे देखत छी। हिन्दीमे उपलब्ध कथा मिथिलाक पारम्परिक कथा नहिं थीक, से सोचि मैथिल लोकनिक लेल ई कथा एतए प्रस्तुत अछि।)
छठिव्रतक कथा
शौनक आदि दयालु महात्मालोकनि एक बेर नैमिषारण्य नामक वनमे रहैत रहथि। ओ लोक कें नाना प्रकारक दुःखसँ दुखी देखैत रहथिन्ह। एक बेर ओतए सूत कें आएल देखि कए हुनका आसन आदि दए सत्कार केलथिन्ह। संगहि लोकक दुःख मेटएबाक लेल विनती करैत पुछलथिन्ह- हे सूत! अहाँ तँ बड़ भाग्यशाली छी, सभटा शास्त्र जनै छी, धरती पर जे अनेक प्रकारक दुःखसँ दुःखी लोक सभ अछि, ओकर दुःख केना मेटएतैक, से कहू। सूत कहलनि- एकटा बड दीव कथा कहैत छी से ध्यानसँ सुनू।
एहिना प्राचीन काल मे लोकक हितक कामनासँ भीष्म नीक वचनवला पुलस्त्य नामक महात्माकें पुछने रहथि- “एहि लोकमे मनुष्य अपन कर्मक वशमे रहैत अछि, ओकर औरदा सेहो कम होइत छैक, दुब्बर-पातर देह आ थोड़ बुद्धि होइत होइत छैक। बेसी धिया-पुता सेहो नै रहैत छै, ओ आलस्य सँ धर्मो नै करैए आ विधि-विधानक सेहो त्याग कए दैए। देवताक पूजा नै करैए, ब्राह्मणक अपमान करैए, नाना प्रकारक दुःखक जंजाल मे ओझराएल रहैए आ दिन-राति दुःखी रहैए। ओहि लोक सभक दुःख केना मेटैतै से कहू।” ई पुछला पर मुनि कहलथिन्ह-
पुलस्त्य बजलाह- “एकटा पुराणक सुन्दर कथा कहैत छी से सुनू। एकरा पढलासँ आ सुनलासँ बड़का बडका पाप मेटाइत अछि।
एकटा क्षत्रिय रहथि जे सभसँ द्वेष करैत रहथि। हुनका दोसरक भाभंस देखल नै जानि। बलवान तँ रहथि मुदा दुष्ट बुद्धिक छलाह। पूर्वजन्मक पापसँ हुनका कुष्ठ भए गेल। क्षयरोग सेहो धए लेलकनि आ जिबिते मुइल-सन भए गेलाह। ओ रोगसँ एतेक व्याकुल भेलाह जे जीवन सँ नीक मृत्यु कें मानए लगलाह।
ओहि समयमे वेद वेदाङ्ग कें जानकार, तेजस्वी, सभटा शास्त्र जननिहार, तपस्वी आ करुणासँ भरल हृदय वला ब्राह्मण तीर्थयात्रा करैत ओतए पहुँचलाह। हुनका आएल देखि ई ऊठि के ठाढ भेलाह आ बैसबाक लेल नीक आसन देलनि, प्रणाम केलथिन आ नेहोरा करैत कहलथिन्ह- अहा, हमर भाग्यसँ अहाँक दर्शन आइ भेल। आइ हमर सभटा दुःख मेटा जाएत से हम मानै छी। जेकर भाग्यक उदय होइत छैक ओकरे अहाँ सनक पैघ लोकक दर्शन होइ छै आ ओ बेकार नै जाइ छै।
हे करुणा कएनिहार, यैह मानि कए हम अहाँ सँ पुछैत छी। एकरा कुष्ठ भए गेलैक, धिया-पुता सेहो नै भेलै, जे भेबो केलै से मरि गेलै, डरें ई हमरा सभसँ अलग रहैए। ई एकरे पत्नी थिक, जेकरा पति सँ अलग रहए पडैत छैक। एकर घरक आनो छौड़ा सभ किछु पढबो-लिखबो नै केलकै आ राज्य सँ निकालि देल गेल छैक। हे महाज्ञानी, एकर दुःख केना मेटेतै से कहू।
ई बात सुनि कए करुणासँ भरल ब्राह्मण हुनक गप्पकें महत्त्व दए विचार केलनि। नीरोग रहबाक लेल तँ देवता सूर्य छथि। हुनके पूजासँ पाप घटै छै। पापे सभटा दुःखक जड़ि थीक ई बात सब बुधियार लोक जनै छथि। तें एकमात्र उपदेश एतए कैल जा सकैत अछि, जाहिसँ सभटा काज भए जेतैक। ई सभ विधि नहिं जनै छथि, जप सेहो नै कए सकताह, हिनकामे ने भक्ति छनि आ ने श्रद्धा छनि आ आत्मज्ञानक सेहो अधिकारी नै छथि। एहि प्रकारें बेर-बेर विचारि कए ओ ब्राह्मण कहलथिन्ह- अहाँसभ भगवान् भास्करक एकटा व्रत करू। हुनके कृपासँ सभक दुःख मेटा जाएत।
ई सुनि कए सभ ओही बात कें बेर-बेर मोन पाड़ि प्रसन्न भेलाह आ नेहोरा करैत सभ खुशीसँ कँपैत स्वरमे पुछलथिन- हे ब्राह्मण देव, कहू जे कहिया आ कोन विधिसँ केना भगवानक आराधना होएत। हे कृपासागर, हे व्रत कएनिहार, सभटा विस्तारसँ कहू।
ब्राह्मण बजलाह- कार्तिक मासक शुक्लपक्षमे निरामिष भोजन करी, पञ्चमी तिथि कें एकभुक्त करी आ केकरहु उझट कथा नै कहियैक। जे वस्तु खराब रूपमे उत्पन्न भेल हो अथवा जेकर नाम सुनबामे खराब लागए से सभ नै खाइ। धरती पर सुती, तामस नै करी, पवित्र भए रही आ मनमे श्रद्धा बनल रहए। षष्ठी तिथि के निराहार रहि कए फल, फूल आदि लए नदी अथवा कोनो जलाशयक कात जाइ। चानन, दीप, धूप, घीमे पकाओल विभिन्न प्रकारक सुन्दर नैवेद्य आदिक ओरियाओन करी। गीत, बाजा आ बडका उत्सवक संग भगवान् सूर्यक पूजा कए ललका चानन, लाल फूल, विभिन्न प्रकारक फल आ सिन्दूर, रेशमक डोरा लए भगवान् सूर्य कें अर्घ्य देबाक चाही।
हे सूर्य, हे सहस्र किरणवला, हे वैश्वानर, हे अग्निक स्वरूप अहाँ के प्रणाम। अहीं ई अर्घ्य ग्रहण करू, हे देवाधिदेव अहाँ कें प्रणाम। हे भगवान्! हे अग्निरूप! हे भानु हमर देल अहाँ अर्घ्य ग्रहण करू। अहाँ कें प्रणाम। हे प्रकाशमान सूर्य, हे प्रभु, हे तेजक समूह, हे संसारक स्वामी हमरा पर अनुकम्पा करू। भक्तिपूर्वक देल ई अर्घ्य ग्रहण करू। हे सहस्र किरण वला सूर्य, हे तेजक समूह, हे संसारक स्वामी, अहाँ आउ। हमरा पर अनुकम्पा करू। हे दिवाकर, प्रेमसँ हमर देल अर्घ्य ग्रहण करू। हे सहस्र किरण वला सूर्य, हे तेजक समूह, हे संसारक स्वामी, अहाँ आउ। हे संज्ञासँ युक्त प्रभु, हमर देल अर्घ्य ग्रहण करू।
नमोऽस्तु सूर्याय सहस्रभानवे नमोऽस्तु वैश्वानर जातवेदसे।
त्वमेव चार्घ्यं प्रतिगृह्ण गृह्ण देवाधिदेवाय नमो नमस्ते।।33।।
नमो भगवते तुभ्यं नमस्ते जातवेदसे।
दत्तमर्घ्यं मया भानो त्वं गृहाण नमोऽस्तु ते।।34।।
ज्योतिर्मय विभो सूर्य तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।35।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां प्रीत्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।।36।।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं संज्ञयासहित प्रभो।।37।।
एहि मन्त्रसभसँ प्रकाशवान् भगवान् सूर्यकें अर्घ्य देबाक चाही। आधा प्रदक्षिणा कए बेर-बेर प्रणाम करी। गीत, बाजा, नाच आदिसँ राति भरि जगरना करी आ फेर भिनसरमे नीक मोनसँ पूजा कए अर्घ्य़ दए दक्षिणाक संग ब्राह्मण कें अन्नदान करी। व्रत केनिहार प्रसन्न मुँहसँ तखनि पारणा करथि। एहि व्रतसँ सन्तुष्ट भए भगवान् भास्कर सभटा दुःख हरि लैत छथि।
ओहोलोकनि श्रद्धापूर्वक अपन-अपन दुःखक शान्तिक लेल ई व्रत कएलनि। क्षयरोग अपस्मार आ कुष्ठ आदि रोगसँ ग्रस्त जे क्षत्रियक पुत्र लोकनि रहथि से तीन वर्षमे बलवान् भए गेलाह, जाहिसँ नारीलोकनि हुनका पसिन्न करए लगलथिन्ह। ई व्रत कएलासँ निपुत्तर कें धियापुता होइत छनि, जनिक धिया-पुता मरि जाइत होनि तनिकर धिया-पुता जीबैत छनि। जाहि नारी कें पति छोडि देने रहैत छथिन्ह, सेहो सोहागवाली होइत छथि आ हुनका पति अपन प्राण जकाँ मानए लगैत छथिन्ह। जनिक पति परदेशमे रहैत छथिन्ह से पतिक संग रहए लगैत छथि।
एहि प्रकारें व्रत कएनिहारक सभ मनोरथ पूरा भए गेलनि। एहि प्रकारें ई व्रत विख्यात भेल आ सभ मनुष्य एकर आदर करए लागल। इच्छा पूरा कएनिहार ई व्रत सभटा सुख देमए वला बनि गेल।
ओतए एकटा नीक कुलमे उत्पन्न दरिद्र ब्राह्मण रहैत रहथि। ओ कमे वयसक रहथि जनिका ने विद्या रहनि आ ने घरे रहनि । ओ भिखारि रहथि। हुनका लग धनक कोनो जोगार नहिं छलनि, ने खएबाक आ पहिरबाक उपाय रहनि। भूखे लहालोट भेल ओ घरती पर घुमैत रहथि, मुदा कतहु सुख नै भेटैत रहनि। एहि प्रकारें बहुत दिन धरि खिन्न भेल घुमैत ओ ओतहि अएलाह, जतए पहिने आएल रहथि। ओहो ब्राह्मणक बात सुनि हर्षित भए कहलनि जे हमहूँ व्रत करब। आ श्रद्धासँ ओ सभटा कामना पूरा केनिहार ई व्रत कएलनि। एकेटा व्रत केलासँ हुनका पढबामे मोन लागए लगलनि आ किछुए वर्षमे पढि कए काव्य आ अलंकारक ज्ञाता कवि भए गेलाह। अपन अरजल धनसँ सुन्दर वंश मे उत्पन्न एकटा कन्याक संग विवाह कएलनि आ पुत्र-पौत्रादिसँ सम्पन्न भए सभ सम्पत्तिसँ पूर्ण भेलाह। बहुत रास ब्राह्मण कें पढबैत सभ प्रकारक भोग भोगैत सुखी भए विष्णुक अष्टाक्षर मन्त्रक जप करैत, वेदक पाठ करैत अपन दिन बितौलनि आ अन्तमे तेजस्वी लोकनिक जे गति होइत छनि से पओलनि। ओ एहि व्रतक प्रभावसँ ब्राह्मणमे श्रेष्ठ भेलाह।
अपन राज्यसँ बेदखल भेल जे रहथि ओ ब्राह्मणो एहि व्रतक सम्बन्धमे सुनि सभटा मनोरथ पूरा केनिहार एहि व्रत कें भक्ति आ श्रद्धासँ कएलनि।
राजाक मन्त्री सेहो पाँच वर्षमे आपसमे विचार-विमर्श कए ओतहि अएलाह जतए ई राजा रहथि। राजाकें आगाँ कए सभ बलशाली भए गेलाह आ विद्रोही सभकें मारि शत्रुक सेनाकें बैलाए आनो सभकें ताकि ताकि कें उजाड़ि कए अपन राज कें निष्कंटक केलनि आ हुनकहि फेरसँ राजा बनौलनि आ ओहो राजा पहिनहिं जकाँ पालन करए लगलाह। आनो आनो लोक जे व्रत कएलनि सेहो इच्छा भरि पौलनि।
एहि प्रकारें जे सभटा मनोरथ पूरा करए वला ई व्रत करताह हुनक इच्छा भगवान् भास्करक कृपासँ पूरा हेतनि। साक्षात् सूर्य देव सभक पालन करैत छथि। एहि दिव्य कथा कें सुनि विधानपूर्वक व्रत कए कथा कहनिहारकें अपन शक्ति भरि सोना दक्षिणा दी। जे भक्तिभावसँ एहि दिव्य कथा कें सुनैत छथि गंगा आदि सभ तीर्थक स्नानक पुण्य पबैत छथि।
एहि प्रकारें स्कन्दपुराणक ई विवस्वत् षष्ठीक कथा सम्पन्न भेल।।