यह बात सच है कि मन्दिर में पूजा-पाठ करने का कार्य या कराने के कार्य में जाति का कोई बन्धन नहीं होना चाहिए। हम सभी हिन्दू हैं तो सबको अपने आराध्य देव की पूजा करने कराने की अनुमति समाज को देनी होगी।
हमारी सनातन संस्कृति भी इस बात को मानती है कि जन्म से कोई किसी विशेष वर्ण का नहीं होता है। वह अपने कर्म या संस्कार से उस वर्ण का माना जाता है। यदि ब्राह्मण भी ब्राह्मण का कार्य न करें तो उसे ब्राहमण नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन यदि कोई शूद्र ब्राह्मण के आचार को करता है तो वह ब्राह्मण कहा जायेगा।
भारत की प्राचीन परम्परा यही रही है तभी तो सामवेद के ऋषि सुदक्षिण क्षैमि ऩिम्न जाति में जन्म लेने के बाद भी सरस्वती के तट पर ऋषियों के द्वारा मन्त्रद्रष्टा माने गये तथा उन्हें ब्राह्मण माना गया। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमें वैदिक काल से लेकर 19वीं शती के पहले तक मिल जायेंगे।
पुजारियों के लिए सत्त्वगुण स्वभाव होना सबसे आवश्यक है। उसके पास पूजा कराने की परम्परा होनी चाहिए, तभी वह मन्दिरों में कार्य करने लायक होगा। केवल आरती करना और घंटी डुला देना पुजारियों के कार्य नहीं हैं।
हम यदि दलितों को पुजारी बनाते हैं तो उनकी परम्परा वैसी बनानी होगी। केवल वोट बटोरने के लिए चंद दिनों की कार्यशाला कराकर प्रमाणपत्र देकर नियुक्त कर देना उचित नहीं माना जा सकता है। यहाँ कारण जाति नहीं योग्यता होनी चाहिए।
हमारा धर्म मानता है कि सन्त रविदास चर्मकार कुल में जन्म लेकर भी ब्राह्मणों के द्वारा पूजनीय हुए। उनकी भक्ति ऐसी थी कि भगवान् की मूर्ति आसन से उठकर उऩकी गोद में आ गयी।
ब्राह्मण कौन है?
सैद्धान्तिक रूप से महाभारत, भागवत, ब्रह्मपुराण, नारद पुराण आदि ने माना है कि ब्राह्मणत्व का कारण जन्म नहीं, बल्कि उनका सदाचार होता है, जो सत्त्वगुण से युक्त होना चाहिए।
महाभारत वन पर्व में युधिष्ठित-सर्प संवाद में यह कहा गया है-
सत्यं दानं क्षमा शीलमानृशंस्यं तपो घृणा।
दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण इति स्मृतः।।
महाभारत, वनपर्व, 180,21.
हे नागेन्द्र, सत्य, दान, क्षमा, शील, आनृशंसता, तप और दया जहाँ दिखाई पड़ता है वहाँ ब्राह्मणत्व है। वही ब्राह्मण है। हमें जानना चाहिए कि संस्कृत में घृणा का अर्थ करुणा है, हिंदी में घृणा का अर्थ नफरत करना होता है। इससे पाठक भ्रम में न पड़ें।
शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः।।
तदेव, 180.25
यदि शूद्र में उपर्युक्त लक्षण है ब्राह्मण में नहीं, तो शूद्र शूद्र नहीं है और ब्राह्मण भी ब्राह्मण नहीं है।
युधिष्ठिर-यक्ष संवाद में भी इसे और स्पष्ट किया गया है।
यक्ष उवाच
राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्ययेन श्रुतेन वा।
ब्रह्मण्यं केन भवति प्रब्रूह्येतत् सुनिश्चितम्।।
महाभारत, वनपर्व, 313.107
यक्ष ने पूछा- राजन् कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है? यह बात निश्चय कर बताओ।
युधिष्ठिर उवाच।
शृणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
कारणं हि द्विजत्वेच वृत्तमेव न संशयः ॥ 3-314-110
युधिष्ठिर ने कहा- तात, सुनो। न तो कुल ब्राह्मणत्व में कारण न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है। इसमें संशय नहीं है।
वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः।
अक्षीणवृत्तो न क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥ 3-314-111
इसलिए प्रयत्नपूर्वक सदाचार (वृत्त) की ही रक्षा करनी चाहिए। ब्राह्मण को भी उस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी चाहिए, क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका सदाचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया।
स्वभाव की महत्ता वर्ण-निर्धारण के लिए भागवत में भी वर्णित है।
प्रायः स्वभावविहितो नृषां धर्मो युगे युगे।।
भागवत, 7.11.31
वेददर्शी ऋषि–मुनियों ने युग-युग में मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिए इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारी है।
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत् तेनैव विनिर्दिशेत्।।
तदेव, 7.11.35
जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझा जाना चाहिए।
ब्रह्म-पुराण में उल्लेख है-
शूद्रोऽपि द्विजवत् सेव्यः इति ब्रह्माब्रवीत् स्वयम्।
स्वभावकर्मणा चैव यत्र (यश्च) शूद्रोऽधितिष्ठति।।
ब्रह्म-पुराण 223.55
न योनिर्नापि संस्कारो वृत्तमेव तु कारणम्।
कारणानि द्विजवत्त्वस्य वृत्तमेव तु कारणम्।।
तदेव, 223-56-57
पवित्र कर्मों से युक्त शुद्धात्मा तथा जितेन्द्रिय शूद्र भी ब्राह्मण की तरह पूज्य है- यह साक्षात् ब्रह्मा ने कहा है। ब्राह्मणत्व कारण न योनि है, न संस्कार, न श्रुति और न संतान ही है। वृत्त (आचरण) ही इसका कारण है।
इस प्रकार, जिन पुजारियों की नियुक्ति की गयी है, उनमें यदि सत्त्व गुण हैं, तो वे निश्चित रूप से श्रद्धा के पात्र हैं, और उन्हें भगवन् की सेवा करने से कोई रोक नहीं सकता।
भविष्य में खतरा
लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की परम्परा में मन्दिरों में पूजा करने के विशेष नियम हैं, विशेष मन्त्र हैं। मन्त्रों की अपनी-अपनी अलग-अलग परम्परा है। दक्षिण भारत के वैष्णव मन्दिरों में वैखानस आगम से पूजा होती है। उत्तर भारत के मन्दिरों में पांचरात्र आगम से पूजा होती है। ये सारी विधियाँ संस्कृत भाषा में हैं। संस्कृत हमारी ज्ञान परम्परा के अक्षय स्रोत हैं।
संस्कृत के वे मन्त्र हमारे ऋषियों-मुनियों के उद्गार हैं। वे सदियों से व्यवहार में आते आते सिद्ध हो चुके हैं। उन मन्त्रों में जो शक्ति है, वह शक्ति उनके अनुवाद में नहीं हो सकती। उनके उच्चारण में यदि थोड़ी गलती हुई, तो उलटे प्रभाव पड़ेंगे। इस दुष्प्रभाव पर अष्टाध्यायी के महाभाष्यकार पतञ्जलि ने उदाहर देकर समझाया कि इन्द्रशत्रुः शब्द के उच्चारण करने में किस अक्षर पर जोर दिया जाना चाहिए, इसमें गलती हो गयी तो उलटा प्रभाव पड़ गया। लाभ होने के बजाय हानि हो गयी।
यदि ये पुजारी संस्कृत के मन्त्रों को छोड़कर जनभाषा की कविताओं से पूजा करायेंगे तो इससे संस्कृत भाषा को जो हानि होगी उसकी भरपायी कभी सम्भव नहीं है।
इस प्रकार हमें हमेशा ध्यान रखना होगा कि
- नये दलित पुजारी जो नियुक्त किये जा रहे हैं, वे पारम्परिक संस्कृत के मन्त्रों से पूजा करें, करायें, वरना सारी पूजा प्रभावहीन हो जायेगी।
- ये नये पुजारी संस्कृत शिक्षाशास्त्र के अनुसार उचित उच्चारण करने में सक्षम हों।
- ये नये पुजारी सत्य, दान, क्षमा, शील, आनृशंसता, तप और करुणा का पालन करें।
- ये नये पुजारी कहीं भी परम्परा को हानि पहुँचाते हुए मनमानी न करें।
यदि हमारी परम्परासमाप्त होगी तो फिर मन्दिर को रखना ही बेकार होगा। भक्तिमात्र को आवशअयक मानते हैं तो मूर्तिपूजा का औचित्य ही समाप्त हो जाता है।
यदि हम मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों की पूजा करते हैं तो हमें अर्चावतार के प्रसंग में हमारे शास्त्रकार जो निर्देश देते आये हैं, उनका पालन हमें करना ही होगा।
वरना मन्दिरों में इन दलित पुजारियों की नियुक्ति राजनीतिक मुद्दा तथा कुछ वोट बटोरने के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा, वह केवल हमारी परम्परा को हानि पहुंचाने का ही काम करेगा।
बेहतर यही होगा कि अभी जिनकी नियुक्ति हो रही है, वे पूर्व से पूजा करते आ रहे पुजारियों की देखरेख में कुछ वर्ष काम करें, सीखें, तब जाकर मर्यादा बची रहेगी।