सनातन धर्म में बार-बार “कुलधर्म” शब्द आया है। “ललितविस्तर” के “शिल्पसंदर्शनपरिवर्त” में प्रसंग आया है कि शुद्धोदन ने दण्डपाणि के यहाँ राजकुमार तथागत के विवाह के लिए रिश्ता भेजा कि आपकी जो बेटी है, उसे मेरे राजकुमार सिद्धार्थ के लिए दें। इस पर उस दण्डपाणि ने उसे ठुकरा दिया। उसने उत्तर दिया कि मैं जिसके पास शिल्प का ज्ञान नहीं है, उससे अपनी बेटी नहीं ब्याहूँगा। हमारा कुलधर्म है कि हम शिल्प के जानकार को ही अपनी बेटी ब्याहते हैं। कुमार तो तलवार, धनुष चलाना नहीं जानते हैं, वे युद्धकला भी नही जानते हैं, इसलिए नैं अपनी बेटी का ब्याह उनके साथ न करूँगा।

विशाखदत्त के संस्कृत नाटक “मुद्राराक्षस” में जब चाणक्य के आदेश से कायस्थ चंदनदास का वध करने के लिए उसे वधस्थल पर लाया जाता है तो उसके परिवारवाले भी अंतिम मुलाकात के लिए वहाँ पहुँच जाते हैं। अंतिम समय में चन्दनदास चाण्डालों से विनती करता है कि थोड़ी देर रुक जाओ, जरा मैं अपने बेटे से मिल लूँ। वह अपने छोटे से बेटे से कहता है कि मृत्यु तो निश्चित है पर मैं अपने मित्र (मगध का पूर्व मंत्री- राक्षस) की सहायता करने के कारण मारा जाऊँगा, यह बड़े ही संतोष का विषय है। इस पर वह बालक उत्तर देता है- तात, ऐसा क्यों कहते हैं, यह तो हमारा कुलधर्म है। यहाँ वह बच्चा भी जान रहा है कि मित्र की सहायता कर मेरे पिताजी ने अपना कुलधर्म निभाया है।

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महाभारत में भी जब भीष्म पितामह पाण्डु के विवाह के लिए प्रस्ताव लेकर मद्र देश जाते हैं तो मद्र के राजा शल्य के साथ वार्तालाप के क्रम में कुलधर्म शब्द आया है। यहाँ भीष्म विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते हैं तो अपने साथ बहुमूल्य उपहार लेकर भी जाते हैं। वहाँ राजा मद्र इसे लेने में संकोच करते हैं कि हमारे कुल में इस प्रकार कन्या के बदले में ये उपहार नहीं लिये जाते हैं। लेकिन भीष्म भी अपने कुलधर्म की बात उठाकर कहते हैं कि इसमें कोई दोष नहीं है। कुलधर्म का पालन करने की बात स्वयं ब्रह्माजी भी कह गये हैं। अतः हमें अपने कुलधर्म का पालन करने दीजिए। यह कहकर भीष्म ने अपने साथ लाये सारे उपहार उन्हें दिये। यहाँ राजा शल्य कहते हैं कि

पूर्वैः प्रवर्तितं किंचित्कुलेऽस्मिन्नृपसत्तमैः।

साधु वा यदि वाऽसाधुतन्नातिक्रान्तुमुत्सहे।।        

व्यक्तं तद्भवतश्चापि विदितं नात्र संशयः।

न च युक्तं तथा वक्तुं भवान्देहीति सत्तम।।          

कुलधर्मः स नो वीर प्रमाणं परमं च तत्। महाभारत, 1.122.9-10

अर्थात् अपने कुल में पूर्वज जो कुछ भी सही या गलत कर चुके हैं उसे हम छोड़ नहीं सकते हैं। इसे आप भी भलाभाँति जानते हैं। अतः आप कुछ दें यह मुझे बोलना अच्छा नहीं लगता है। यह हमारा कुलधर्म है, जो सबसे बड़ा प्रमाण है।

अपने वंश में पूर्वज जो करते आये हैं वह हमारा कुलधर्म है

इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे अपने वंश में पूर्वज जो करते आये हैं वह हमारा कुलधर्म है। उसका पालन करना हमारा कर्तव्य है। यह कुलधर्म सभी क्षेत्रों के लिए है।

मुण्डन के समय शिखा कितने भागों में बाँटकर रखी जाये इसका धर्मशास्त्र में कोई प्रमाण नहीं है। एक भाग में, दो भाग में, तीन भाग में अथवा पाँच भाग में शिखा को विभक्त करना चाहिए इसके लिए वैखानस गृह्यसूत्र में बौधायन के वचन को उद्धृत कर कहा गया है कि इस सम्बन्ध में कुलधर्म देखना चाहिए। उस कुल के पूर्वज क्या करते आये हैं, इसका पालन हमें करना चाहिए।

अत्र बोधायनः। ‘एकशिखो द्विशिखस्त्रिशिखःपञ्चशिखो वा यथैषां कुलधर्मः स्यादिति।

भोजन से पहले देवताओं को नैवेद्य देने का विधान है। कितने देवताओं को नैवेद्य दिये जायें यह निश्चित नहीं है, इसका कोई प्रमाण शास्त्र में नहीं है। जिस व्यक्ति के कुल की जो परम्परा है, उसके अनुसार वे कार्य करते हैं।

यही कुलधर्म धार्मिक कृत्यों में वास्तव में गोत्रधर्म और शाखाधर्म है। छान्दोग्य शाखा वाले तीन प्रवर का जनेऊ पहनेंगे, वाजसनेयी शाखावाले पाँच प्रवर का जनेऊ पहनेंगे। दोनों शाखाओं के संध्यावंदन के मंत्र तथा विधि अलग-अलग हैं। यह शाखाभेद कुलधर्म बन जाता है।

हर जाति के अपने अपने कुलधर्म

यह कुलधर्म केवल ब्राह्मणों में ही नहीं, हर जाति में है। कुम्हार, लुहार, चमार, धोबी, नाई आदि जितनी भी जातियाँ हैं, सबके अपने अपने कुलधर्म हैं। उपासना के क्षेत्र में भी, कार्य के क्षेत्र में भी। लुहार लोहे से सम्बन्धित कार्य करेंगे, कुम्हार का कुलधर्म है मिट्टी से बर्तन बनाना। नाई का कुलधर्म है- हजामत बनाना। सब अपने अपने कुलधर्म को निभाते हुए समाज के विकास में योगदान करते रहे।

इसी कुलधर्म की निरन्तरता जन्मना वर्ण-व्यवस्था की जड़ बनी, जिसे यूरोपीयनों ने 19वीं शती के आरम्भ में ही गलत व्याख्या कर इसी कुलधर्म के लिए सारी जिम्मेदारी ब्राह्मणों और क्षत्रियों पर थोंप दी। इस्ट इंडिया कम्पनी में पहली चोट उत्पादक वर्ग पर की। भारत में इसी कुलधर्म के कारण आत्मनिर्भरता थी। गाँव के गाँव आत्मनिर्भर थे। दैनिक वस्तुओं का उत्पादन अपने ही गाँव में हो जाता था। समाज की सभी जातियाँ चार प्रकार के कर्म करते थे- शिक्षा, रक्षा, उत्पादन तथा श्रम। यही भारत की आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र था।

यूरोपीयन जब औद्योगिक क्रान्ति के बाद भारत में कपड़ा बेचने आये तो उसने देखा कि यहाँ का वस्त्र उद्योग आत्मनिर्भर है। इसी प्रकार अन्य वस्तुएँ जो यूरोपीयन फैक्टरी में बनाते थे, वे वस्तुएँ भारत के गाँव-गाँव में बनती थी। उनकी वस्तुओं का खरीददार बहुत कम लोग थे। उऩका व्यापार फैले, इसके लिए आवश्यक था कि यहाँ का कुलधर्म नष्ट किया जाये।

उत्पादन के लिए भारत में तकनीकी शिक्षा घर में मिल जाती थी। पिता के साथ साथ काम करते हुए बच्चे परिवार में ही अपनी जरूरत की शिक्षा पा लेते थे। लुहार को लोहा गलाने और उससे विभिन्न प्रकार की वस्तु बनाने की शिक्षा यदि मिल गयी तो उसे और क्या चाहिए। जो विद्या वे उत्पादक वर्ग अपने पिता से सीखते थे, उसे यूरोपीयनों ने अशिक्षा कहना आरम्भ किया। हमारे उत्पादक वर्ग को सबसे पहले अशिक्षित घोषित किया गया तथा उसकी इस कल्पित अशिक्षा के लिए शिक्षक वर्ग ब्राह्मणों को दोषी साबित कर दिया गया।

हम इतिहास को उलट कर देखें तो पता चलेगा कि यूरोपीयन प्रभाव के कारण सबसे पहले तथा सबसे अधिक प्रभावित हमारे पारम्परिक उत्पादक वर्ग हुए, जो भोजन, वस्त्र, आवास एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करते थे। ज्यों ज्यों औद्योगीकरण बढता गया भारत के प्राचीन उत्पादक वर्ग श्रमिक बनते गये, जिन्हें शूद्र कहा गया। यानी वैश्य से वे शूद्र बनते गये। आज जिन्हें शूद्रों की कोटि में रखा गया है, वे किन-किन वस्तुओं के उत्पादक थे, यह समझना बहुत आवश्यक है।

आगे जारी>> तन्त्रशास्त्र में कुलधर्म>>

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