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Home›मैथिली साहित्य›धनि, काल्हि जेबै पैंजाब

धनि, काल्हि जेबै पैंजाब

By Bhavanath Jha
December 26, 2021
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dhani kalhi jebai panjab

प्रकाशित, आरम्भ, सम्पादक- राजमोहन झा, अंक संख्या 12, दिसम्बर, 1996ई., पृ. 48-53

भवनाथ झा

कनकनी आर बढ़ि गेल रहै। एक तँ बीसीक समय, ते पर से पुरबाक झोंका, रातिमे एकटा अछारो भʼ गेल रहै। ते सौंसे किचकिच रस्ता पेरा सभ तरि।

रूपन मुनहारि साँझ कʼ बाधसँ चलल रहथि । महिसबारोक हेँज घरमुहा भʼ गेल रहै। के रहत एहेन अकालबेरामे। तेँ रूपन सेहो अपन मुहचिरा फराठी ठकठकबैत टोल दिस चलल रहथि। भरि गाममे हुनकर अइ फराठीक आवाज सभके गमल छै। साँपो-कीड़ा रस्ता छोड़ि दैत छनि तेँ ओ अन्हारोमे बाधसँ घूरि अबैत छथि। रूपन कुसियारक खेतक पछबरिया आडि धेने जखनि बान्हपर अएलाह तʼ पुरबाक झोंक गाँतीमे सोन्हिआइत सौंसे देह दलका देलकनि। आगाँ बान्हपर एकटा खोड़ा रहै जइमे थोड़ेक पानि डबरिआएल रहै । रूपन पनही खोलि कʼ पएर देलनि तʼ बुझएलनि जे ठेहुन तक सुन्न भʼ गेल । देह तलमलेलनि तʼ ठेंगा अडओलनि मुदा बूढ़ देह कहाँ धरि सम्हरतनि से पिछरि गेलाह । खोँड़ाक कातमे गोखला काँटक जंगल रहै, तकर नोछारो लगलनि ।

ई ते एक दिनका छोट छिन बात रहै । सत्य पूछी तँ रूपनकेँ आब एसकर बाध नै सम्हरै छनि, तखन तँ खटलहा देह छनि, सँगहि आबहु एही बाधक बदौलत बुतातोमे कोनो दिकदारी नै होइ छनि ते कहुना खेपने जाइत छथि। अपना भरि त जी-जान लगा कʼ खटैत रहैत छथि। एकेटा रच्छा रहल छनि जे आँखिक इजोत अखनौ ओहिना छनि। कितगरो कुसियारमे ज एको गोटे छड़क्का टोंगैत रहत तँ दसो बिगहा दूरसँ देखि लै छथि, मुदा पएर सग नै दै छनि। काल्हिए तँ छियै,  दूरे सँ देखलनि एकटा घसबहिनी के धान छोपैन। कतबो डाकनि देलनि किए सुनतनि ओ! उनटले ओएह कहʼ लगलनि- बड़े सुझै छह बुढ़बे, कतʼ छोपलिए धान! जावत रूपन जाथि, तावत ओ निपत्ता। सते धानक छोपलहा बुट्टी ओहिना पनिआएल रहै। बड दुक्ख भेलनि। रामलालक खेत रहै। अही बेर तँ किनलक-ए बिस्सू मालिकसँ। खेत रोपै काल रामफल अपने कहने रहनि रूपन केँ, भाइ, कमला माइ करथिन तँ हमरौ आउरके दिन घुरत। देखिहʼ विदैत ने हुअए। आब की कहतनि रामफल!

आइ फेर बहुरी झाक खेतमे एक आँतर गोट उखाड़ि लेलकै! बाछि कʼ उखाड़ितै तँ कोनो बात नै छलै। साग छियै- खैतै। अपनो उखाड़ʼ दै छै। बेर खन ओकर बेटा आएल रहै – कच्छड़-कुच्छड़ बजैत। दोसराके रखवारि दʼ देते। आ बीचमे केओ आन पैसार लʼ लेते तँ बितौनी लागि जेतनि। रूपनकेँ एकर तेहन चिन्ता छलनि जे गोखलाक काँटसँ बेसी घाब केने रहनि।

रूपन कहुना कʼ ठगा सम्हारलनि। जाँघ आ छाबाके हँसोथि कʼ देखलनि तʼ काँट नै अभड़लनि। धोती कने भीजि गेल रहनि, तकरा गाड़ि कʼ कहुना खोँड़ा पार कएलनि। बेस अनहार भʼ गेल रहै, तखन आङन पहुँच सकलाह रूपन।

आङन मे धूर पजरल रहै। रूपनक जेठ भाइ केँ लकबा मारि देने छनि ते ओ अङने मे रहै छथि। ओएह घूर लग एसकरे बैसल रहथि। बाधमे अपना तँ खेत नै छनि, मुदा मोन टाँगल रहै छनि ओतऽ। आ तेँ रूपन के देखि पूछि बैसलखिन- जेना कि ओ बात बड़ी कालसँ मोनमे धुरिआइत रहल होनि-

“रूपन धानक की हाल छै? अइ बेर त लगै-ए जे सभ टा बौक भʼ जेते।”

हिनकर इएह बोली बानी लोक केँ नीक ने लगै छै। कनेको कुलच्छन भेल कि अलच्छे बात बजताह। अहिना एक दिन हिनकर नातिनकेँ कने जर भʼ गेलैक तँ सौंसे अङनाकेँ माथ पर उठा नेने रहथि, जे आब ओ जीबे नै करत। मुदा रूपन के ई बात नै छनि। कमला माइ एहन निसोख थोड़े छथिन जे गाम लिलोह भʼ जेते। किछु ने किछु त हेबे करत? बड़ आस छनि हुनका बाध पर। ते आने दिन जकाँ फेर कहि देलखिन ʼएना किए कहै छहक भैया हो। धान हेबे करत कि।”

रूपनक भाइकेँ छाती सूप सनक भʼ गेलनि, जेना इएह सुनए चाहैत होथि। मुदा आइ रूपनक आबाज बदलल बुझएलनि ते विधुआएल हुनकर मुह ताकए लगलाह।

– “मुदा भैया, रखबारि रहत तखनि ने। हमहूँ आब बुढ़ेलौं। नै पार लग-ए दौड़-बरहा। आइ बहुरी झाके खेतमे बिदैत भʼ गेलै। बेचाराके धनरोपनीमे जन नै भेटलै तʼ अढाइयो बिगहामे अगता गोट बाओग केने छलै। एक आँतर काँडरि उखाडि लेलकै-ए सगबिछनी सभ। हम जावत पहुँची तावत सभ छौड़ी निपत्ता”। रूपन सभटा खेरहा सुना दियʼ चाहैत रहथि। तहू सँ जँ मोन हल्लुक भए जाए।

रूपनक भाए अपनौ बहुत दिन रखबारि कैने छथि ते रूपनक दरेक के अँखियासि लेलनि। तइयो बजलाह- “जाए दहिन। चोरक धन छिपाड़ खाए! ओकर बाप-पितामह गामक लोककेँ कलहन कʼ कʼ खेत अरजने रहै।” रूपनक भाएके सभटा ओहिना मोन छनि जे कोना लुट्टी झा एक मोन धानक तरे हिनको तीन कट्ठा धनहर ओहि अढाइ बिघहामे मिला देने रहथिन। रूपनके तँ मोनौ ने हेतनि, तहिए के गप्प छियै।

– लेकिन भैया, ओकर कोन दोख। आब तँ ओकरा ओएह टा असरा, आ कि फेर दमकल आ बोरिङ। कहुना कʼ खोंटि-खाँटि कʼ चलबै छै । देखिते छहक जे जेठका बेटा कहाँदन डिल्ली मे ठेला पर तरकारी के फेरी करै छै। रूपनकेँ बहुरी झाक हालति पर दरेग भʼ जाइत छनि।

गप्प चलिते रहै कि तावत बहुरी झा पहुँचि गेला। रूपन उठि कʼ ठाढ़ भेला आ अपन चटुआ घुसका देलनि। संगहि नातिन के सोर पाडलनि सितलपाटी ले। मुदा बहुरी झा मना कʼ देलखिन, जुत्ता पहिरने रहथि चुक्कीमाली भʼ बैसि गेला। – “अहाँ बहुत दिन जीयब मालिक, एखने अहींक चर्चा होइ छले” । रूपनक भाइ-ए चुप्पी तोड़लनि। मुदा बहुरी झाक मोन दोसर दिस रहनि।

 -ʼरूपन, तोहर रहैत हमर बिदैत भʼ जाए। तो खाली नाम खोलह। के उखाड़लक हमर गोट।ʼ बहुरी झा कनैत रहथि कि खिसिआएल, से नै जानि। आब सदति काल एहने अङौत रहै छनि हुनकर।

रूपनक मोन छौ-पाँच करए लगलनि। नाँओ खूजि जेतै त गाममे उकबा ऊठि जेते। आ तैमे मारल जेतै बेचारा बहुरी झा। तेहन लोकक बेटी पुतोहु उखाड़ने रहनि जे ओकरा पर कैफा करथिन त उनटले डेंगा देतनि। ओकरा कोन! नढड़ा हेलल अछि। सभ चिन्है छै ओकरा दरोगासँ एम० पी० धरि। भोटक दिन ओहिना थोड़बे धड़फड़न देने रहै-ए बूथ पर। ते नाँओ कहै सँ नीक जे बेचारा अनभुआरेमे दैवेक डाङ बूझि कʼ छातीमे मुक्का मारि लेथु। ते रूपन बुझियो कʼ झूठ बाजि गेला जे हम नै चिनहलिए। जावत लग जाइ तावत ओ निपत्ता भʼ गेल।

– ʼदू बापूत भʼ के तखनि नै सम्हरै छह।ʼ बहुरी झा फेर ओहिना बजलाह। हुनका बुझा गेलनि जे रूपन बूझि कʼ नै कहि रहल अछि।

-ʼकी नाँओ लै छी सोनमाके। ओ जँ सङ दितए तखनि की छलै! तखनि तँ एकोटा कौओ ने टपए दितिअइ”। रूपन छातीक धुकधुकी दबबैत बजला।

बहुरी झा रूपनक रग-रगसँ चिन्हार रहथि। जे बात ओ ने बाजʼ चाहत से कोन मरद हैत जे खोला लेत। ते ओहने अङौतमे चेतौनी दैत बजलाह -”देखह, ठीक सँ रखबारि करह नै त हमर खेत छोड़ि देह। अगिला जजातिमे अनका द देबै। ई सय बिगहाक बाध कतहु एसकर सम्हरएʼ। बहुरी झा किछु सुनै सँ पहिनै धड़फड़ाएल चलि देलनि। रूपन ठकुआएल अपन भाइक मुह ताकए लगलाह।

ताबत बेस अनहार भʼ गेल रहै। रूपनकेँ अङनाबाली हाक देलकनि अपन घरक कोनटा सँ। भानस भʼ गेल रहै। खा पी कʼ रूपनके फेर बाध जएबाक रहनि- राति कʼ ओगरै लेʼ। तेँ कने सबेरे सकाल भानस भʼ गेल रहै – सोहारी आ लौसग। रूपन खएबाक गप्प गमि कʼ सोनमाक खोज कएलनि ʼकतʼ बौआइत रहै छै साँझ भरली। सोनमाक माएकेँ से बूझल नै रहैक। चौकीबला हन्नासँ सोनमाक कनियाँ रामपुर वाली गर जाँति कʼ बाजि उठलि-”अपन हेरिया आउर सँ भेट कर लेʼ गेल छथिन, जिनका जरे काल्हि पैजाब जेथिन।

रूपन सन्न दʼ रहि गेला। ʼकिए जेते पंजाब। एमहर हम एसकर। हमरा जँ नै होइ-ए, तँ हम बाध सम्हारी। ओइमे संग साहुत देत से हेतै नै। पंजाबमे कि हबकौड़ा राखल छै। देखलिए त परुकाँ बम्बै गेल रहै। केहेन खटास भʼ के धुरल रहै। पाइयो कहाँ अनलकै। हमरा नै नेʼ दियʼ अपनौ लोकवेद ले एको गो नूँओ अनितै आ कि एक्को जोड़ चूडियो तँ बुझितौं। अपनो देह बनितै तँ हिया जुड़ाइते। कहि दौ कनियाँके जे नै जाए देते।”

तावतमे सोनमाक अएबाक धाप बुझएलै। सिनेमाक गीत गबैत रहए- ʼतू चीज बड़ी है मस्त मस्त।ʼ सोनमाक मायक कंठ फुटलै -”कनियाँ रोकतै त मनसा कि मानते। अपनै कहौ ने जे कहै के छै।”

-ʼकथी के गप्प होइत रहै माए?ʼ सोनमा मुहथड़ि पर सँ किछु गल-बुल सुनने रहए। ते ओ चट दʼ पूछि बैसल।

रूपन के तँ एक बेर सिरिङ चढ़लनि, मुदा फेर मोन थिर कʼ पुछलखिन “अएँ रौ तो काल्हि पैजाब जेबहिन?ʼ

-”हँ विचार भेलैए। परमेसरा भैया चिठी देलकै-ए जे अखनि गहूम खेती के सीजिनमे बड पाइ भेट छै, से पाँच छौ गोटे आबए।” सोनमा पएरक औंठा सँ माँटि खोखरि रहल छल।

-”मासुल भेलौ?”

-ʼहूँ। तोही जे परमेसरा भैया के रुपैया देने छलहक, तेकर चारि मासक सुइद पठा देलकʼ हे चिट्ठिए के जरे। सेहे छै। आर किछ मालिक से लʼ लेबै सूइद पर। जाइ छियै अखनी।”

-”चारिए मासक सूइद किए पठौलको?” रूपन जोड़ने रहथि तँ नौ मास भेल रहै। गहूमक कटनी लगाति पाँच सए रुपैया लʼ कʼ परमेसरा पैंजाब गेल रहए।

तखनि एक ते सूदे टा ताहू परसँ चारिए मासक! खैर, जएह हाथ सएह साथ। बहुत दिनसँ विचारने रहथि रूपन जे एकटा चोरबत्ती लेब। अनहारमे बड़ फिद्दति होइ छनि, से तँ भइए जएतनि। ते भीतर कतहु सँ रुपैया अएबाक बड़ खुशी भेलनि “ला ओ रुपैया। नै जो पैंजाब। जँ वाहरे कमाइके छौ त मोन थीर कʼ के कत्तौ कम्पनी आउरमे कोसिस कर। पैंजाब मे कि दू मास लेʼ बबुआनी भेटतौ। हँसुआ फररोस के तँ लागल जजाति भेटल ताकए।

मुदा सोनमाके बेसी सुनबा के पलखति नै रहै। भिनसरे अनरोखे लोहना रोड पहुँचबा के छलै। अखनि मालिक ओतʼ जाए पड़तै फेर झोडा झपटा सैतनाइ। ओ अपन कोठलीमे ढुकल, विना कोनो ऊतारा देने। सभके अनसौहाँत लगलै, ओकर कनियोके। मुदा किछु कहबा के हिआओ ने भेल। ओ ठकुआएल घरवला फुलपैंटके चौपैत कʼ बकसामे धरैत रहलि।

-”एगो छिपली आ गिलास दियʼ ने धो कʼ सोनमा खौंझाएल बाजल। ओकर मोन टाँगल रहै परमेसरा भैयाक डेरापर। ओतʼ मालिक सभके सनीमा देखबै छै। नवका नवका सभ। खूब मजगर। बीड़ी तमाकूकेँ तँ कोनो बाते नै, चाहो जते पीबी। कहाँ दन ओतʼ जुअनकी छौंडी सभ एकरे सभक जरे काम करैत रहै छै, ठेहुन तक सलवार समेटने हँसैत रहै छै, गियान धियान बिसारि कʼ। बाधे बाधे दारू के बोतल बिकाइत रहैत छै। एक गिलास सुन बिसुनमे फेर चिखिए लेत तँ के देखते। गाममे तँ बाप रे, भाङो खाउ तʼ बाउ फज्झतिक तर कʼ देत। सोनमा केँ परमेसरा भैया सभटा खिस्सा सुनौने रहै। इएह सभ सोचैत ओ अकासमे उड़त जा रहल छल। एकरा इहो सुधि नै रहलै जे ओकर कनियाँ कते कालसँ छिपली आ गिलास लʼ कʼ ठाढ़ि छै। ……”की सोचै छथिन ?” कनिये टोकारा देलकै ।

“किछु नै”। सोनमा गोँगिआएल आ फेर खखसि कʼ बाजल- सैंत दौ हमर समान। एको गो छूट नै। हम मालिक ओतʼ से भʼ अबिऐ।

ओसारा पर रूपनकेँ भुम्हुरमे हाथ सुखा गेल रहनि। ओ अपन मुह चिड़लहा फराठी उठौलनि आ चलि पड़लाह बाध दिस ठक… ठक… ठक… ठक…।

***

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Bhavanath Jha

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