हम भारत माता की संतान हैं। हम सिन्धु नदी के किनारे से चलकर पूरे भारत में फैले हुए हैं, तो हम सिन्धु से फैले ‘सिन्दु’ हैं, ‘हिन्दु’ हैं। हमारे हिन्दुत्व की व्याख्या हमारी ही धरती और पानी से हो सकती है। आरम्भ से लेकर आजतक हमें एक-दूसरे से जोड़कर रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत प्रयास किया है। जबतक हम उन सभी प्रयासों को एक जगह तलहत्थी पर रखे आँवले की तरह नहीं देख पायेंगे हम हिन्दुत्व को पहचानने में भयंकर भूलकर बैंठेंगे।
इस आलेख में में हम उन प्रयासों पर एक नजर देंगे। हमें गौरव का बोध होगा कि कैसे हमारे पूर्वजों ने एक एक व्यक्ति को हिन्दुत्व से जोड़कर रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास किये। जिन्हें आज हम ‘सम्प्रदाय’ कहते हैं और विविधता के कारण और अपने सम्प्रदायय से अलग होने के कारण उनकी निंदा करते हैं, वे वास्तव में अधिक-से अधिक लोगों को एकसूत्र में बाँधने के प्रयास ही तो थे। हमारे पूर्वजों ने हमें जोड़ने काम किया। किसी ने वेद, आगम, पुराण, तंत्र, मंत्र, शाबर-मंत्र आदि का ज्ञान देकर समाज के अंतिम व्यक्ति तक उन्होंने पहुँचने का प्रयास किया, उन्हें हिन्दुत्व से जोड़कर रखने का प्रयास किया।
लेकिन बहुत ‘कुल्हाड़े’ भी निकले। स्वार्थसिद्धि के लिए उन्होंने हमारी शाखाओं को काटने का काम भी किया। उन कुल्हाड़ों का विवरण भी यह यहाँ देंगे।
प्राचीन काल में सभी लोग पारिवारिक स्तर पर अपनी-अपनी जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन करते थे। जरूरत ही बहुत कम थी, केवल जीवन-निर्वाह करना था तो परिवार के सदस्य सभी वस्तुओं का उत्पादन कर लेते थे। बाद में जनसंख्या में वृद्धि हुई, तो समाज की अवधारणा बनी। अब एक काम एक परिवार के लिए निर्धारित हुआ। यदि किसी गाँव में 50 परिवार हैं तो उनमें से जो परिवार जो वस्तु अच्छा बनाते थे, उसी को उनका परिवार बनाने लगा और आपस में विनियम करने लगे। इसी स्थिति में कर्मानुसार जाति की व्यवस्था बनी। लोहार, कुम्हार, बड़ई, गोपाल, कृषक आदि परिवारों को पहचाना गया। उनके अपने कार्य के लिए उपयोगी विद्या अपने परिवार के अंदर ही माता-पिता से मिल जाती थी। उन्हें अन्य विद्या की जरूरत ही नहीं थी तो वे उसके लिए उद्योग ही क्यों करें।
यह सामाजिक औद्योगीकरण का दौर था। ब्राह्मण वेदों की रक्षा के लिए जिम्मेदार होते थे, क्षत्रिय अपने समाज की सम्पत्ति की रक्षा के लिए जिम्मेदार बने, बाँकी सब उत्पादक बने या कामगार बने। वैश्य या तो उत्पादक थे या व्यापारी। शूद्र वे थे जो अपना पारम्परिक धंधा करने में रुचि नहीं लेते थे, वे शुद्ध कामगार बने। स्वाभाविक है कि उत्पादक तथा कामगार जातियाँ वैदिक मन्त्र, यज्ञ, होम आदि से धीरे-धीरे कटती गयी। वे लोग देवी-देवताओं की आराधना से कटने लगे तो उन्हें जोडने के लिए उपाय निकाला गया, जिसका नाम था- ‘आगम’
आगम की परम्परा-
वेद की परम्परा “निगम” कहलाती थी। इसके समानान्तर आगम-पद्धति की स्थापना की गयी। सभी जातियों के गृहस्थों को वेदोक्त देवी-देवताओं से जोड़ने का यह एक उपाय था। इस पद्धति में भगवान् को अपने घर बुलाकर अतिथि-सत्कार की शैली में उनकी आराधना प्रमुख थी। मानसिक रूप से देवताओं का आवाहन होता था और वैदिक मन्त्रों के स्थान पर लौकिक संस्कृत भाषा में स्तुतियाँ की जाती थी। वैदिक मन्त्रों में गलती होने की सम्भावना थी पर लौकिक संस्कृत भाषा की स्तुतियों में इसकी संभावना नहीं के बराबर थी। इस पद्धति में मन्त्रों के आशय होते थे- हे भगवान् आप यहाँ आवें, यह आसन ग्रहण करें, पैर धोने के लिए जल (पाद्य) ग्रहण करें। हाथ धोने के लिए जल (अर्घ्य) ग्रहण करें। हे देवता, आपको स्नान करनेके लिए जल देता हूँ। हे देवता मेरे हाथ से चंदन ग्रहण करें, पुष्प ग्रहण करें। वस्त्र ग्रहण करें। हमार घर भोजन करें। ताम्बूल ग्रहण करें। आप प्रसन्न होकर हमारे कष्टों को दूर करें।
आगम-पद्धति की यह सामान्य प्रक्रिया थी। इसमें विना मन्त्र के भी अर्पण करने की छूट थी। किसी भी वस्तु के बदले जल देने की भी छूट थी। प्रत्येक गृहस्थ का यह कर्म था। इसमें न तो वैदिक मन्त्र थे न यज्ञ की जटिल प्रक्रिया। हर जाति के गृहस्थ के लिए यह पद्धति खुली हुई थी। इतनी फुरसत भी न हो तो मन ही मन देवताओं का आह्वान कर उनकी पूजा करने की भी छूट थी। ये सारे प्रयास समाज के सभी लोगों को धर्म के साथ जोड़ने के लिए किये गये थे। उपासना की भाषा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत पर आ गयी थी। इसमें नयी-नयी स्तुतियों के लिखने तथा पढ़ने की भी छूट थी, अतः इस आगम-पद्धति का बहुत विस्तार हुआ। सूर्य, शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश तथा अग्नि से सम्बन्धित प्रमुख छह आगम-परम्पराएँ विकसित हुई। लेकिन सबको एक साथ जोड़ने के लिए पंचदेवता की अवधारणा बनी और किसी भी एक परम्परा को मानने वालों के लिए भी सबसे पहले इन छह देवताओं की पूजा आवश्यक मानी गयी, ताकि लोग एक-दूसरे से अपने को अलग न समझें।
पुराणों का विकास
आगम-परम्परा की भाषा लौकिक संस्कृत थी, इसलिए सन्तों, विचारकों, कवियों तथा प्रवचनकर्ताओं ने कथा, स्तुति, विधान आदि के माध्यम से इसे पल्लवित-पुष्पित किया और पुराणों की संख्या बढ़ती गयी। समाज के सभी वर्ग के लोगों को धर्म से जोड़ने के लिए प्रवचनकर्ताओं ने गाँव-गाँव तक पहुँचने का प्रयास किया।
तन्त्र की परम्परा
इसी आगम परम्परा से एक शाखा तंत्र के रूप में विकसित हुई। इसमें जप-विधान का विशेष विचार हुआ। बड़े-बड़े मन्त्रों के स्थान पर बीजमन्त्रों का विकास हुआ। एक-एक देवता की पूरी परिकल्पना का प्रतीक एक अक्षर को मान लिया गया। इस पद्धति में भी हम जाति का कोई विचार नहीं देखते हैं। हाँ, केवल एक बंधन रखा गया कि जो गुरु से दीक्षित हो चुके हैं, वे ही इस पद्धति का उपयोग करेंगे। इस पद्धति के गुरु गाँव-गाँव जाकर अपने यजमानों की दीक्षित करने लगे ताकि वे धर्म और हिन्दुत्व से जुड़े रहें।
सिद्धों की परम्परा
जब लौकिक संस्कृत भाषा भी समाज से दूर होती गयी और क्षेत्रीय भाषा-भेद का विकास हुआ, मातृभाषाएँ बनीं तो फिर समाज के सभी वर्ग एक-दूसरे से कटने की स्थिति में आ गये। ऐसे समय में सिद्धों और नाथों की परम्परा विकसित हुई, जिनके गुरु लोकभाषाओं में उपदेश करने लगे। लोक-भाषाओं में ही मन्त्र भी देने लगे। उन्होंने संस्कृत का परित्याग कर दिया, क्योंकि उसे पकड़े रहने पर सिद्ध और नाथ मुनि जन-जन तक नहीं पाते। उन्होंने वहाँ की भाषा में ही मन्त्रों की भी रचना की, जो शाबर मन्त्र कहलाये। उनके माध्यम से भी उन्होंने समाज को एकसूत्र में जोड़कर रखने का काम किया।
भक्ति आन्दोलन
सिद्धों और नाथ सम्प्रदाय की परम्परा के काल मे ही भक्ति-आन्दोलन आरम्भ हुआ। वैदिक उपनिषद्-वाद के विकास के साथ संन्यास की अवधारणा पनपने लगी तो संन्यास धर्म की मुख्य धारा में आने की स्थिति में आ गयी थी। इससे खतरा था कि जो लोग संन्यास नहीं लेते हैं, वे धर्म से कटते जायेंगे। उन्हें धर्म और हिन्दुत्व से जोड़कर रखने के लिए भक्ति-आन्दोलन आरम्भ हुआ। यह प्रमुख रूप से शैवों और वैष्णवों का आन्दोलन था। वैष्णवों में भी चतुर्भुज विष्णु, द्विभुज राम, द्विभुज कृष्ण प्रमुख उपास्य देव थे। विभिन्न आचार्यों ने संस्कृत तथा लोकभाषा दोनों के माध्यम से अपनी परम्परा को फैलाने का प्रयास किया। नियमों में शिथिलता की गयी। यहाँ तक कि किसी भी अवस्था में रहता हुआ, कोई भी व्यक्ति, चाहे वह संन्यासी हो, गृहस्थ हो, वानप्रस्थी हो, वैरागी हो, ब्राह्मण हो, चाण्डाल हो यदि वह श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन, पादसेवन, दासता, पूजन, ध्यान और आत्मनिवेदन इस नवधा भक्ति के द्वारा ईश्वर की शरण में जाता हैं तो वह धार्मिक माना जायेगा। हम विचार करें तो ये सारे प्रयास हिन्दुत्व की रक्षा के लिए किये गये थे। कोई शिव का उपासक हो, कोई विष्णु का उपासक हो, राम, कृष्ण, गोपाल, दुर्गा, हनुमान, गणेश, आदि किसी भी देवता के उपासक क्यों न रहें, वे सब एक सूत्र में जोड़े गये। कुछ शताब्दी तक शैव, शाक्त और वैष्णव लड़ते रहे, लेकिन हमारे हिन्दुत्व के शुभचिन्तक पूर्वजों में इस लड़ाई पर भी काबू पा लिया। 12वीं शती के बाद हम इस प्रकार के संघर्ष का कोई चिह्न नहीं पाते हैं।
आगम परम्परा पर ब्राह्मणवाद का कब्जा
वैष्णवों और शैवों के बीच संघर्ष की कथा तो सब जानते हैं, किन्तु 12वीं शती के बाद आगम-परम्परा पर ब्राह्मणवाद का कब्जा हुआ। आरम्भ में आगम परम्परा विशुद्ध लौकिक परम्परा थी। इसके मन्त्र लौकिक संस्कृत भाषा के थे, पौराणिक थे। आम जनता जात-पाँत से ऊपर उठकर स्वयं इसका प्रयोग कर आराधना कर लेती थी। जब लौकिक संस्कृत भाषा भी सामान्य जनता से दूर हो गयी, जनभाषा फैल गयी, भक्तिवाद के प्रसार के कारण यज्ञ का प्रचलन घट गया तब वैदिक ब्राह्मण पुरोहित वर्गों की बेरोजगारी की स्थिति आ गयी। उन्होंने आगम परम्परा पर कब्जा किया, ताकि उस पद्धति से भी उपासना करने वाले उन्हें दक्षिणा देकर बुलावें। इसके लिए उन्होंने आगम-पद्धति में वेदमन्त्रों को घुसाना आरम्भ किया। वैदिक काल में चूँकि आगम परम्परा थी ही नहीं, तो आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, स्नान, नैवेद्य आदि के लिए वैदिक मन्त्र कहाँ से आवें! फिर भी एक शब्द की भी श्रुति के आधार पर अथवा इससे असम्बद्ध मन्त्र भी आगम पद्धति में जोड़े गये और आगम-पद्धति को वैदिक पद्धति कहकर प्रचारित किया गया। ताकि वह आम जनता से दूर हटकर ब्राह्मण पुरोहितों के कब्जे में आ जाये।
इन्हीं लोगों ने देखा कि आगम-पद्धति में तो हम वैदिक मन्त्र घुसा कर संक्षिप्त हवन की विधि डालकर ब्राह्मण पुरोहितों के कब्जे में डाल सकते हैं, किन्तु तन्त्र की जो परम्परा थी, जिसमें बीजमन्त्र थे, उसे कब्जा में नहीं कर पायेंगे। फलतः उन्होंने तन्त्र के विरुद्ध जहर उगलना आरम्भ किया।
पूर्वोत्तर भारत के लोगों ने आगम-पद्धति में वैदिक मन्त्रों को घुसाने की प्रक्रिया तथा प्रत्येक पूजा के साथ संक्षिप्त हवन की विधि को नहीं माना। वे आगम-पद्धति के साथ तन्त्र के बीज-मन्त्रों का जोड़कर वैदिक मन्त्रों की मर्यादा की रक्षा करते रहे। फलतः सम्पूर्ण उत्तर भारत में पूर्वोत्तर भारत की उपासना-पद्धति के प्रति हीनता की भावना फैलाने का कार्य हुआ।
इसका उपाय
इन दोनों विसंगतियों को आजतक हमलोग दूर नहीं कर पाये हैं- आगम-पद्धति में वैदिक मन्त्र घुसेड़कर ब्राह्मण-पुरोहितों का वर्चस्व आज तक बना हुआ है। आवश्यकता है कि आगम पद्धति में से वैदिक मन्त्र के स्थान पर पौराणिक मन्त्र रखे जायें तथा सभी वर्णों को स्वयं पूजा करने की प्राचीन विधि का प्रचार किया जाये। साथ ही, आगम-परम्परा में तन्त्र की परम्परा के बीज-मन्त्र रखे जायें और दीक्षा-विधि का पालन हो, जिससे सभी वर्ग के लोग धर्म से जुड़े रहें। साबर मन्त्रों के प्रति उदार भावना रखें। उपासना में भाषा के महत्त्व से अधिक आत्मिक शुद्धि तथा क्रिया की होती है। यही आगम-पद्धति की मूल आत्मा है।
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