उपासना में लोकभाषा का प्रयोग
भाषाओं के विस्तार की स्थिति में हमारे धर्मचिन्तकों ने जनभाषा का उपयोग अधिक से अधिक लोगों को धर्म से जोडने के लिए किया। उत्तर भारत में रामानन्द, कबीर, रैदास, पीपा, धना, तुलसीदास, सूर, विद्यापति, चैतन्य, शंकरदेव आदि ने यही काम किया। वे भाषा-गीतों के माध्यम से, नाटकों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचने लगे और सबकी जिह्वा पर हिन्दू पौराणिक देवी-देवताओं का नाम लिखने लगे। रामानन्द ने रामरक्षास्तोत्र तत्कालीन जनभाषा में प्रचारित किया, हनुमानजी की आरती लिखी, अनेक मन्त्र-तन्त्रों के प्रयोग की विधि बतलायी। सिद्धों की परम्परा भी शाबर मन्त्र के रूप में प्रचलित थी। अलखनिरंजन, दोहाई ईश्वर महादेव गौरा पारवती के, हनुमानजी की चौकी, नरसिंह की चौकी, दोहाई श्रीराम की, दोहाइ लखन महराज की, दोहाई श्रीसीता माता की आदि मुखड़ों के साथ शाबरमन्त्र जन-जन तक फैले थे। लोकभाषा की इस धारा पर कब्दा करने के प्रयास में संस्कृत के मंत्रों को घुसाने के भी प्रयास कम नहीं हुए हैं, पर वे भी विकृत होकर लोकभाषा में ही घुल-मिल गये। गुरुर्ब्रह्मा आदि श्लोक तथा अखण्डमण्डलाकारं आदि श्लोक किस प्रकार मध्यकालीन साहित्य में विकृत हो गये हैं ये देखने लायक हैं। ये सारे प्रयास हिन्दुत्व की रक्षा के लिए किये गये जो लगभग 1800 ई. तक विद्यमान रहे।
सनातन धर्म का विशाल वृक्ष
इस प्रकार, आगम, तन्त्र, पुराण, सिद्धों तथा नाथों की लोकभाषा की धारा, भक्ति आन्दोलन, भक्ति की लोकभाषा की धारा, भक्ति की संस्कृत भाषा की धारा, भक्ति-गीतों और नाटकों की परम्परा, रास की परम्परा आदि विविधताओं के साथ हिन्दुत्व का एक विशाल वृक्ष बन गया, जिसकी जड़ें तो वैदिक साहित्य में थीं, किन्तु शाखाएँ आसमान को छूती हुई चारों ओर फैली। सभी वर्गों के लोगों के लिए देश काल एवं पात्र के अनुसार हमारे पूर्वजों ने उन्हें हिन्दुत्व से जोड़कर रखने के लिए प्रयास किया और वे सफल भी हुए।
इस्लाम के द्वारा हिन्दुत्व के विरुद्ध संघर्ष
यह सच है कि इस्लाम के कुछ कट्टर शासकों ने हिन्दुत्व पर आघात किया। हमारी सम्पत्ति लूटी, मन्दिर ध्वस्त किये, किन्तु उन दिनों हम अपनी सभी शाखाओं के साथ जड़ से जुड़े थे। आँधी आयी, कुछ टहनियाँ टूटीं पर समय से हम फिर खड़े हुए। एक लहलहाते विशाल वृक्ष को आँधी क्या बिगाड़ेगा? मुश्लिम शासक या तो उस विशाल वृक्ष की टहनियाँ काटना जानते ही नहीं थे या उन्होंने इसकी आवश्यता नहीं समझी। अतः इस्लाम हमारी कुछ गरीब और असहाय जातियों को धर्मपरिवर्तन कराने के अतिरिक्त बहुत हानि नहीं पहुँचा सके। इस बात को हम आगे के विवरण पढ़ने के बाद अधिक समझ पायेंगे।
इस्लाम के विरुद्ध हिन्दुत्व की रक्षा के लिए सिख-आन्दोलन
गुरु नानक देव से लेकर निर्गुण पंथी सिखों ने इसी इस्लाम के विरुद्ध हिन्दुत्व की रक्षा के लिए कमर कसी थी। उनके बलिदानों को हम कभी भूल नहीं सकते हैं।
ईसाइयों के द्वारा चली पहली कुल्हाड़ी
संस्कृत को धर्म की भाषा के रूप में प्रचारित करना ईसाइयों की पहली कुल्हाड़ी थी। हम देख चुके हैं कि किसी काल में धर्म केसाथ भाषा का कोई सम्बन्ध नहीं रहा। जो भाषा जिस समय जिस क्षात्र में प्रचलित थी, उसी का उपयोग धर्म से जोड़ने के लिए किया गया। अंगरेजों ने संस्कृत को धर्म की भाषा बनाकर संस्कृत से भिन्न लोकभाषों के धार्मिक साहित्य को सामान्य लोक साहित्य का दर्जा दिया, जिसे शोध के नाम पर भारतीयों ने स्वीकार किया। इससे परिणाम हुआ कि जो हिन्दू संस्कृतेतर भाषा के माध्यम से धर्म से जुड़े थे, उन्हें धर्म से वंचित आम जन घोषित करने की परम्परा चल पड़ी। शाबर मन्त्रों को झाड़-फूँक का मन्त्र मानकर उनके प्रति घृणा का भाव प्रसारित किया जाने लगा। फलतः सिद्धों और नाथों के द्वारा किये गये सारे प्रयास धूमिल होते चले गये। इस कोटि के अन्य सम्प्रदाय भी जो थे उनके विरुद्ध घृणा फैलाने का कार्य ईसाइयों ने किया तो भारत की लगभग 80 प्रतिशत जनता हिन्दुत्व से वंचित घोषित कर दी गयी, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। वे सारे लोग हिन्दू थे, केवल भाषा का भेद था।
इधर ईसाई मिशनरियों ने घर-घर जाकर उनके काम भरने लगे कि केवल वेद ही हिन्दुत्व है, केवल संस्कृत भाषा ही हिन्दुत्व है, जो संस्कृत नहीं जानते हैं, उन्हें संस्कृत के जानकार ब्राह्मणों ने धर्म से वंचित कर रखा है। अतः आपलोग ईसाई धर्म को स्वीकार कर लें। और इसी के साथ धर्मान्तरण का दौर चला।
जमींदारी नीति का सामाजिक दुष्प्रभाव
1793 में जब भारत में जमींदारी नीति लागू हुआ तो इस्ट इंडिया कम्पनी के तीन लक्ष्य थे-
- अधिक से अधिक राजस्व वसूली
- अधिक से अधिक कम्पनी निर्मित सामानों की बिक्री
- अधिक से अधिक लोगों को ईसाई बनाना।
इस्ट इंडिया कम्पनी अधिक लगान देने वाले छोटे छोटे जमींदारों को बंदोवस्ती देने लगे। जमींदार का एक ही काम रह गया था- जनता से कर वसूल कर इस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों के हवाले करना। उन्हीं के दबाव में आकर कम्पनी निर्मित माल की बिक्री कराना। इसके लिए भारत की जो पुरानी उत्पादन-पद्धति थी, वह विखंडित होने लगी। लोग नकदी जमा करने के लिए काम करने लगे। पुराने जाति आधारित उद्योग समाप्त होने लगे। फलतः वे लोग बेरोजगार हुए, तो सारा ठीकड़ा ब्राह्मणों और क्षत्रियों के मत्थे पर फोड़ने के लिए जातिवाद को लेकर शोध आरम्भ हुए और हमारे ग्रन्थों की मनमानी व्याख्या की गयी। आम जनता बेरोजगारी के कगार पर पहुँच चुकी थी। सभी लोग नकदी बटोरने के लिए परेशान थे।
मुगलों के काल तक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राचीन प्रणाली का उपयोग होता रहा, अतः समाज में सामान्य रूप से आर्थिक स्थिति उतनी खराब नहीं थी, जितनी कि इस्ट इंडिया के समय में हो गयी। इसाइयों ने इसके लिए भारतीय परम्परा को जिम्मेदार ठहराने का कार्य किया। भारतीय विद्वानों को धन तथा ओहदा का लोभ देकर उनसे भी कार्य कराया। फलतः पूरी 19वीं शती अंगरेज उपर्युक्त तीन कार्यों के लिए लगे रहे।
हिन्दुत्व की लोकभाषामयी शाखा सबसे पहले काटी गयी।
सातवीं शतीसे लेकर 18वीं शती तक जनभाषा के माध्यम से लोगों को धर्म से जोड़ने का जो कार्य हमारे पूर्वजों ने किया था उस पर पहला कुठाराघात हुआ। इससे भारत की 80 प्रतिशत जनता धर्म की जड़ से काट दी गयी। ईसाई धर्मान्तरण के लिए यह पृष्ठभूमि बनी।
लोकभाषा की धारा के संतों को संस्कृत की धारा में शामिल करने की कोशिश
यह 19वीं शती की माँग थी। अंगरेजों ने लोकभाषाओं को धर्म की जड़ से काट दिया था। उनके साहित्य को सामान्य साहित्य मान लिया था। उनके शाबर मन्त्रों को अवैध घोषित कर दिया था, असामिजिक बना दिया था। लोकभाषा के उपयोग करने वालों को गँवार, मूर्ख आदि की उपाधि दे डाली थी। यहाँ तक कि जो लोग कैथी नागरी लिपि जानते थे, उनमें लिखा साहित्य पढ़ सकते थे, उन्हें निरक्षर मान लिया था। ऐसी स्थिति में रामानन्द को संस्कृत की धारा से जोड़कर उन्हें आचार्य की पदवी देने का भी दुष्प्रयास हुआ। उनके नाम पर फर्जी भाष्य लिखे गये। उनकी लोकोन्मुखी धारा को काटने का दुष्प्रयास भारतीयों ने खूब किया।
तन्त्र की संस्कृतमयी शाखा काटी गयी।
जो लोग बीजमन्त्रों का उपयोग कर साधना के मार्ग से जुड़े थे तथा उनके ग्रन्थ संस्कृत में थे, उनके विरुद्ध घृणा फैलाने कार्य भी खूब हुआ।
पुराण की शाखा पर चली कुल्हाड़ी
जब अंगरेजों ने लोकभाषा की शाखा को काट दी तो 19वीं शती के अंत में एक हुए दयानन्द। अंगरेजों के एजेंट थे या उनसे पैसा लिए थे, स्पष्ट नहीं है, किन्तु वे उठे तो उन्होंने पुराणों की शाखा को ही भी काट दी। अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वेद को छोड़कर किसी भी शाखा को उन्होंने नहीं माना। सब बेकार है, सब बेकार है, सब में जहर है, कहते हुए उन्होंने विसाल वृक्ष को ठूँठ बना दिया। अंगरेजों ने भी उनके प्रचार-प्रसार के लिए काफी काम किया, क्योंकि वैदिक ब्राह्मणों को छोड़कर उन्होंने सबको हिन्दुत्व से अलगकर भारत की 99 प्रतिशत जनता को ईसाई बनाने के लिए पृष्ठभूमि बना दी थी। जो शाखा कट जाती है, उसके घोंसले उजड़ जाते हैं, उन उजड़े घोंसले वाले चिड़ियों को आसानी से पिंजरों में पोसा जा सकता है, यह बात अंगरेज भी भलीभाँति जानते थे। उन्होंने मूर्तिपूजा के माध्यम से हिन्दुत्व से जुड़े लोगों को भी धर्मविहीन कर दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वेद हमारी जड़ है, पर शाखाओं का अपना महत्त्व होता है। पंछी शाखों पर घोंसले बनाते हैं। शाखाओं का अवलम्बन लेकर भी वे जड़ से जुड़ाव रखते हैं। दयानन्द कहा कि वेद के अलावा कुछ है ही नहीं।
भारत विवध भाषाओं का देश है, हम भाषा के आधार पर धर्म को नहीं देख सकते हैं। यहाँ दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम इन भाषाओं के माध्यम से धार्मिक क्रान्ति हुई है। हमारे सन्तों ने अपने-अपने काल में सन्त साहित्य लिखकर समाज को एकजुट बनाने का काम किया है। हम भाषा के आधार पर उनका महत्त्व नहीं घटा सकते। उत्तर भारत में हम यदि यह कहते हैं कि संस्कृत धर्म की भाषा है तो यह संस्कृत के प्रति अन्याय होगा और यदि यह कहते हैं कि धर्म की भाषा संस्कृत है तो यह धर्म के प्रति अन्याय होगा। हम संस्कृतेतर भाषा की जो धार्मिक धारा है, उसे कभी छोटा नहीं मान सकते हैं।
आज आवश्यकता है कि हम अपने हिन्दुत्व के विशाल वृक्ष को हमेशा ध्यान में रखें। उसकी सभी शाखाओं, टहनियों की हमें जरूरत है ताकि हम इतने विशाल भारत के सभी हिन्दुओं को समेट सकें। सभी सम्प्रदायों के प्रति हमें उदारता का भाव रखना होगा।
आज जो लोग केवल एक टहनी को अपना झंडा बनाकर पूरे भारत में फैल जाना चाहते हैं उनके लिए यह समझना आवश्यक है कि भारत में हिन्दुत्व पूरा विशाल वृक्ष है, उनकी विशालता को सुरक्षित रखने में ही सबकी भलाई है।